कहानी बिहार के उस गांव की, जहां दुनिया के सबसे अमीर आदमी बिल गेट्स आए थे

Posted By: Himmat Jaithwar
10/28/2020

खगड़िया, बिहार। सुबह आठ बजे राज्य रानी एक्सप्रेस ने खगड़िया स्टेशन पर उतारा तो संदीप पहले से ही वहां मेरा इंतजार करते मिले। वे खगड़िया के ही रहने वाले हैं। लिहाजा उन्होंने ही मुझे अपना जिला घुमाने की जिम्मेदारी उठाई थी। ‘वेल्कम टू खगड़िया सर। बताइए पहले किधर चलिएगा?’ उनके पूछने पर मैंने जवाब दिया, ‘गुलरिया गांव।’

गांव का नाम सुनकर संदीप के चेहरे पर जो शून्य उभरा उससे साफ था कि वे खुद भी नहीं जानते गुलरिया गांव किधर है। ‘अलौली प्रखंड में कहीं ये गांव है।’ मेरे ये बताने के बाद उनके चेहरे की रंगत लौटी और उन्होंने तुरंत ही अलौली में रहने वाले अपने एक दोस्त को फोन लगाया।

फोन पर गुलरिया गांव पहुंचने का रास्ता समझ लेने के बाद संदीप बोले, ‘ये गांव तो फरकिया में है सर। तभी मैं सोच रहा था कि मैंने गांव का नाम कैसे कभी नहीं सुना। असल में फरकिया में जो गांव हैं, उन्हें बस वहीं के लोग अलग-अलग नाम से पहचानते हैं। बाकी सबके लिए तो पूरे इलाके का बस एक ही नाम है - फरकिया। बाहर का कोई आदमी उधर नहीं जाता, जाकर कोई करेगा भी क्या? बाइक स्टार्ट करते हुए संदीप बोले, ‘चलिए, आपके बहाने आज मैं भी फरकिया के गांव देख आऊंगा। बैठिए, वैसे आप जानते हैं उस इलाके को फरकिया क्यों कहते हैं?’

किस्सा यूं है कि बादशाह अकबर के नवरत्नों में से एक, टोडरमल पूरे हिंदुस्तान के लैंड सर्वे पर निकले थे। लेकिन वो जब इस इलाके में पहुंचे तो फंस गए। यहां हर दो किलोमीटर पर एक नदी थी और ये नदियां बहुत जल्दी अपना रास्ता बदल लेती थीं। टोडरमल कई महीनों तक यहां बैठे रहे, लेकिन सर्वे नहीं करवा सके। आखिरकार उन्होंने नक्शे में इस इलाके को रेखांकित कर लिख दिया ‘फरक किया’ यानी अलग कर दिया। यह फरक किया ही अब फरकिया बन गया है।

गुलरिया गांव की हालत अब भी ऐसी है कि ट्रैक्टर तक नाव पर लादकर लाने पड़ते हैं।
गुलरिया गांव की हालत अब भी ऐसी है कि ट्रैक्टर तक नाव पर लादकर लाने पड़ते हैं।

फरकिया की तरफ बढ़ते हुए यह भी अहसास होता है कि राजा टोडरमल ने सदियों पहले जिस इलाके को सिर्फ नक्शे में अलग किया था, वह आज भी सबसे अलग-थलग ही है। साफ पानी और सड़क जैसी मूलभूत सुविधाएं तक इस इलाके के लिए किसी सपने जैसी ही हैं। अलौली से जो सड़क इस तरफ आती है, वो भी शहरबन्नी पहुंचने के बाद दम तोड़ देती है। शहरबन्नी तक भी यह सड़क इसलिए पहुंच पाती है क्योंकि ये दिवंगत नेता राम विलास पासवान का गांव है।

गांव में जाने के लिए नदी पर पुल नहीं है, इसलिए गांव के लोगों को मुश्किलों का सामना करना पड़ता है।
गांव में जाने के लिए नदी पर पुल नहीं है, इसलिए गांव के लोगों को मुश्किलों का सामना करना पड़ता है।

शहरबन्नी से आगे सड़क के नाम पर जो रास्ता बढ़ता है, उसमें गाड़ियां नहीं चलती। सिर्फ ट्रैक्टर या दुपहिया वाहन ही शहरबन्नी से आगे बढ़ पाते हैं और इस रास्ते में उन पर सवारी करना किसी चुनौती से कम नहीं होती। ये चुनौती आगर पहुंचने के बाद और भी ज्यादा खतरनाक हो जाती है क्योंकि इससे आगे नदी का विस्तार मिलता है। इसे लोग नाव से पार करते हैं और ये नाव सिर्फ दुपहिया वाहनों को ही नहीं, बल्कि बड़े-बड़े ट्रैक्टर तक को लाद कर नदी पार करती हैं।

इस पूरे गांव के इकलौते ग्रैजुएट पंकज कुमार बताते हैं, ‘गांव की स्थिति ऐसी है कि कोई अपनी बेटी की शादी यहां नहीं कराना चाहता।
इस पूरे गांव के इकलौते ग्रैजुएट पंकज कुमार बताते हैं, ‘गांव की स्थिति ऐसी है कि कोई अपनी बेटी की शादी यहां नहीं कराना चाहता।

आगर में ही मेरी मुलाकात पवन कुमार से हुई जो अपनी बाइक पर सब्जियां लादे नाव का इंतजार कर रहे थे। वे रोज इसी तरह बाइक पर सब्जियां लेने नाव में सवार होकर अलौली या खगड़िया जाते हैं और वहां से सब्जी खरीदकर फरकिया के गांवों में बेचते हैं। पवन कहते हैं, ‘हम लोग सब्जियां लेने नदी के उस तरफ जाते हैं और उधर वाले ताड़ी पीने यहां आते हैं। आगर की ताड़ी बड़ी मशहूर है। लोग दूर-दूर से यहां पीने आते हैं।’

नदी पार करते ही पवन की बातों से सामना हो जाता है। खजूर और ताड़ के पेड़ों के नीचे कई ऐसे लोग बैठे मिलते हैं जो मटकों में भरी ताड़ी को दस रुपए ग्लास की दर से बेच रहे हैं। यहां से गुलरिया गांव करीब दो किलोमीटर ही दूर रह जाता है। लेकिन ऊबड़-खाबड़ पगडंडियों पर बाइक से चलते हुए ये दो किलोमीटर का सफर भी बेहद लंबा लगता है।

जब बिल गेट्स आए, तब क्या हुआ?

गुलरिया गांव वैसे तो फरकिया के तमाम गांवों की ही तरह है लेकिन जो बात इसे बाकियों से अलग करती है वो ये है कि दुनिया के सबसे अमीर आदमी यहां आ चुके हैं। साल 2010 में पल्स पोलिओ अभियान के चलते बिल गेट्स पूरे लाव-लश्कर के साथ इस गांव पहुंचे थे। उस दौरान देश भर के अखबारों में यह खबर प्रकाशित हुई थी कि बिल गेट्स ने इस गांव को गोद ले लिए है।

60 साल के शंकर साह इसी गुलरिया गांव के रहने वाले हैं। वे याद करते हैं, ‘वो पहली और आखिरी बार ही था जब इस गांव में बड़े-बड़े अधिकारी आए थे। डीएम, एसडीएम सभी पहुंचे थे बिल गेट्स के साथ। हमें लगा था कि अब हमारे गांव के दिन फिरने वाले हैं लेकिन कहाँ कुछ हुआ। दस साल बीत गए, आज भी स्थिति वही है।’

इस गांव का हर छोटा-बड़ा बिल गेट्स का नाम जानता है। इन लोगों ने सालों तक इंतजार किया कि बिल गेट्स की संस्था शायद गांव की भलाई के लिए कुछ करेगी। हालांकि, बिल गेट्स की संस्था ने उनके दौरे के कुछ समय बाद ही यह साफ कर दिया था कि उन्होंने इस गांव को गोद नहीं लिया है और ये खबरें भारतीय मीडिया में न जाने कैसे चल पड़ी। लेकिन गांव के लोगों के पास उम्मीद बांधने का सबसे मजबूत कारण तो यही था कि जिस गांव में बीडीओ से ऊपर का कोई अधिकारी कभी आया ही न हो वहां दुनिया का सबसे अमीर आदमी पहुंचा है तो गांव के लिए कुछ तो जरूर करेगा।

इस पूरे गांव के इकलौते ग्रैजुएट पंकज कुमार बताते हैं, ‘गांव की स्थिति ऐसी है कि कोई अपनी बेटी की शादी इस गांव में नहीं कराना चाहता। गांव महीनों तक तो पानी में डूबा रहता है और उस दौरान शौचालय जाने के लिए भी नाव से जाना होता है। पोस्ट ऑफिस वाले भी चिट्ठी पहुंचाने इस गांव में नहीं आते। ये गांव आज भी बिलकुल वैसा ही है जैसा शायद अकबर के समय ये रहा होगा।’

इस गांव के रहने वाले शंकर साह कहते हैं कि हमारी बस इतनी मांग है कि अगर सरकार ये नेंगराघाट और सिसवा पुल बनवा दे तो हमारा गांव खगड़िया से सिर्फ 15 मिनट की दूरी पर आ जाएगा।
इस गांव के रहने वाले शंकर साह कहते हैं कि हमारी बस इतनी मांग है कि अगर सरकार ये नेंगराघाट और सिसवा पुल बनवा दे तो हमारा गांव खगड़िया से सिर्फ 15 मिनट की दूरी पर आ जाएगा।

स्वास्थ्य सुविधाओं के नाम पर बीते कुछ सालों में यहां बस इतना ही हुआ है कि गांव में दो लोगों ने झोलाछाप डॉक्टर का काम शुरू कर दिया है। पहले इन लोगों को झोलाछाप डॉक्टर से दवाई लेने भी काफी दूर जाना पड़ता था। पास में ही स्कूल तो है, लेकिन मास्टर वहां न के बराबर ही आते हैं। मास्टरों को किसी अधिकारी के औचक दौरे का डर भी नहीं रहता क्योंकि इस बीहड़ में निरीक्षण के लिए भी कोई नहीं आता।

खेती के नाम पर गांव के लोग मकई की फसल उगाते हैं और यही उनकी आजीविका का मुख्य स्रोत भी है। लेकिन मक्की भी अक्सर न्यूनतम समर्थन मूल्य से काफी कम दामों पर ही उन्हें बेचने पड़ती है। ऊपर से व्यापारी ट्रैक्टर को नाव में चढ़ाकर इन गाव तक लाने का खर्चा भी इन किसानों से ही वसूलता है। लिहाजा आस-पास के गांवों की तुलना में इन लोगों को डेढ़ सौ रुपए प्रति क्विंटल कम दाम मिलता है।

बिहार में चुनाव हैं तो क्या इस गांव के लोगों को भी कुछ उम्मीद हैं?

इस सवाल करने पर शंकर साह कहते हैं, ‘पासवान साहब इतने बड़े नेता रहे। कई साल केंद्र में मिनिस्टर रहे। पास में ही उनका गांव है, लेकिन हमारे गांवों के लिए वो आज तक यहां एक पुल नहीं बनवा सके। किसी और से क्या उम्मीद अब करें। हमारी बस इतनी मांग है कि अगर सरकार ये नेंगराघाट और सिसवा पुल बनवा दे तो हमारा गांव खगड़िया से सिर्फ 15 मिनट की दूरी पर आ जाएगा। अभी बाइक से भी खगड़िया तक जाने में 3 घंटे लग जाते हैं और पैदल वालों के लिए तो वहां जाना पूरे दिन का काम है।’



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