बंद कमरे में पति-पत्नी के बीच जो भी अच्छा-बुरा होता है, अमूमन उस पर बात न करना सही माना जाता है. बावजूद इसके कुछ बातें बाहर निकल आती हैं. गुड न्यूज हुई तो खुशियां मनती हैं पर कुछ बैड हुआ तो समझाया जाता है कि तूल न दिया जाए. मगर तब क्या हो जब चाकू चल जाए क्योंकि अब पुलिस भी आएगी और केस अदालत में भी जाएगा. पुलिस-अदालत में गई बातें लंबी खिंचती हैं. यही क्रिमिनल जस्टिसः बिहाइंड क्लोज्ड डोर्स में होता है. ओटीटी डिज्नी-हॉटस्टार पर आई यह वेबसीरीज औसतन पौन-पौन घंटे की आठ कड़ियों में फैली है. मामला है वकीलों में सलमान खान जैसी हैसियत रखने वाले रसूखदार विक्रम चंद्रा (जिशु सेनगुप्ता) को उनकी पत्नी अनु (कीर्ति कुल्हारी) ने बेडरूम में चाकू घोंप दिया. फिर खुद मेडिकल वालों को बुलाया. विक्रम से अनु ने लव मैरिज की थी. उनकी बारह साल की बेटी है. घर में किसी बात की कमी नहीं है. पुलिस और अदालत में अनु अपने हक में, बचाव में कुछ नहीं कहती और सभी इसे ओपन-एंड-शट केस मानते हैं. यहीं एंट्री होती है वकीलों में बिरादरी-बहिष्कृत माधव मिश्र (पंकज त्रिपाठी) की. जिनके हाथों में अभी-अभी मेहंदी लगी है. उन्हें सहयोग मिलता है साथी वकील आयशा हुसैन (अनुप्रिया गोयनका) का.
क्रिमिनल जस्टिस का यह दूसरा सीजन शुरुआत से ही दर्शक के दिमाग से खेलने की कोशिश करता है. लेखक अपूर्व असरानी और निर्देशक जोड़ी रोहन सिप्पी-अर्जुन मुखर्जी अनु की चुप्पी को कहानी के केंद्र में रखते हैं. वह बार-बार स्क्रीन पर आती है. कभी उदास, कभी रोती हुई, कभी पथराई आंखों से आस-पास देखती तो कभी अपने अंदर खोई हुई. बोलती कुछ नहीं. देखने वाले के मन में सवाल पैदा करती कि आखिर इस चुप्पी का मतलब क्या है. अनु अपने सीने में कौन-सा राज दफन किए है. अस्पताल में पति के मर जाने की खबर पर भी वह फफक-फफक कर नहीं रोती. दूसरी तरफ माधव मिश्र और आयशा हुसैन लगातार अनु का मन कुरदने की कोशिश में हैं. माधव मिश्र वकालत के साथ थोड़ी जासूसी भी करते हैं. धीरे-धीरे तार खुलते हैं मगर कुछ साफ नजर नहीं आता. समस्या यह भी है कि चंद्रा परिवार के साथ मजबूत वकील लॉबी खड़ी है. फिर अदालत में अनु इकबाल-ए-जुर्म कर चुकी है. तब केस में बचा ही क्या.
यह वेब सीरीज अदालत में लंबा समय बिताते हुए अनु-विक्रम के रिश्तों को खंगालने की कोशिश करती रहती है. इसी से हौले-हौले साफ होता है कि मामला पति द्वारा पत्नी को दबाने का है. सीरीज के आए अन्य परिवारों में आप स्त्री को दोयम दर्जे का ही पाते हैं. पुरुष का हाथ ऊपर है. स्त्री यहां पीड़ित है या बराबरी के लिए संघर्ष कर रही है. अदालत में भी प्रतिष्ठित महिला वकील दूसरे बड़े वकील से कहती है कि क्या आपको नहीं लगता कि कानून सिर्फ पुरुषों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए बना है. मगर इन बातों के बावजूद ऐसा कोई कारण सामने नहीं आता कि पत्नी बंद कमरे के एकांत में पति के पेट में चाकू घोंप दे. क्रिमिनल जस्टिसः बिहाइंड क्लोज्ड डोर्स इसी मुद्दे की पड़ताल करते हुए अंत में चौंकाती है.
केस सिर्फ वकील ही नहीं लड़ता, मुवक्किल भी लड़ता है. परंतु यहां लगातार वकील ही लड़ते नजर आते हैं, ताकि अनु का पक्ष सामने आ सके. क्या समाज का उजला तबका कहलाने वालों के यहां कोई स्याह पक्ष नहीं होता. क्या वे सिर्फ आदर्श होते हैं. क्या उनकी कमजोरियां, कुंठाएं नहीं होतीं. क्या वे पूरी तरह दूध के धुले होते हैं. माधव मिश्र और आयशा हुसैन की लड़ाई इन्हीं सवालों के जवाब खोजती है. यहां अदालत-पुलिस के साथ जेल भी कहानी का अहम हिस्सा है क्योंकि अनु वहां लंबा अर्सा गुजारती है. महिला जेल के जीवन की हैरतनाक तस्वीरों के साथ सीरीज यह भी बताती है कि यहां पति के खून को सबसे बड़ा अपराध माना जाता है. क्रिमिनल जस्टिस का यह सीजन नायिका के हक में खड़े होते हुए समाज और कानून से कुछ लगातार टाले जा रहे मुद्दों पर सवाल करता है.
ऐसे दौर में जबकि सशक्त नायिकाओं की कहानियां निरंतर तेजी से सामने आ रही हैं, क्रिमिनल जस्टिस में आप एक बेहद कमजोर और लगभग बीमार नायिका को देखते हैं. यह कहानी के लिए भले जरूरी लगे, मगर आकर्षित नहीं करता. फोर मोर शॉट्स प्लीज के दोनों सीजन में बिंदास दिखतीं कीर्ति ने अनु की भूमिका को विश्वसनीय ढंग से निभाया है. पंकज त्रिपाठी अपने सादगी और मुस्कराते अंदाज में जमे हैं. उन्होंने बखूबी अपना काम किया है. अनुप्रिया गोयनका ने कंधे से कंधा मिला कर उनका साथ दिया है. अन्य कलाकार भी अपनी भूमिकाओं में जमे हैं. भले ही क्रिमिनल जस्टिस किसी स्तर पर कहानी का अलग या नया पैटर्न नहीं अपनाती, फिर भी अपराध और अदालती कथाओं में आपकी रुचि है तो यह जरूर मनोरंजन करेगी.