गैस का प्रभाव इतना भयावह था कि जिनके घर मौत नहीं हुई...वे भी कफन खरीद रहे थे

Posted By: Himmat Jaithwar
12/3/2020

गैस त्रासदी के वक्त मेडिको लीगल संस्थान गांधी मेडिकल कॉलेज में जॉइंट डायरेक्टर डॉ. डीके सत्पथी उस भयानक रात के गवाह बने। उन्होंने ढेरों लाशों का पोस्टमार्टम किया। वर्तमान में वे एल एन मेडिकल कॉलेज और रिसर्च सेंटर के डायरेक्टर हैं। डॉ. डीके सत्पथी से उस काली रात की कहानी उन्हीं की जुबानी...

अचानक सुबह साढ़े तीन बजे ईदगाह हिल्स स्थित मेरे घर के दरवाजे पर तेज खट-खट की आवाज हुई। दरवाजा खोला तो सामने मेरे डायरेक्टर प्रो. हीरेशचंद्र थे। उन्होंने कहा- डॉ. सत्पथी तुरंत मॉर्चुरी पहुंचें, हमारी कल्पना से भी ज्यादा शव आए थे। मैं तत्काल बाहर निकला और बिना कोई सवाल किए सीधे हमीदिया अस्पताल पहुंचा। लेकिन वहां का मंजर मुझे साहस खोने के लिए मजबूर कर रहा था। हमीदिया अस्पताल के परिसर में बीमार लोग और शव ऐसे बिखरे पड़े थे जैसे किसी ने चलते ट्रक से कचरा फेंक दिया हो। परिसर के बाहर और भीतर खांसते उल्टी करते लोग थे। बच्चे अपनी ही उल्टी पर बैठे थे। जगह-जगह मवाद पड़ा था। कभी खुद पर इतराने वाली लड़कियों के चेहरे गैस के असर से वीभत्स हो गए थे। अस्पताल में जो डॉक्टर थे वे सब इलाज में लगे थे। पूछने लायक कुछ था नहीं। हर व्यक्ति की जुबां पर एक ही बात थी कि यूनियन कार्बाइड से निकली गैस ने सभी को निगल लिया।

स्कूटर को बाहर ही पार्क कर मैं तेजी से मर्चुरी की तरफ दौड़ा, लेकिन मेरे पैर थकने लगे थे। एक मुर्दा पैर से टकरा गया जो कि एक बच्चे का था। मैं उसे चादर लपेटकर मर्चुरी में ले गया। लेकिन वहां मेरी आंखें पलक झपकना भूल गईं। मॉर्चुरी के पूरे परिसर में मुर्दे ही मुर्दे थे। एक अंदाजे से लगभग 800 मुर्दे वहां पड़े थे। समस्या एक साथ इतने मुर्दों के पोस्टमार्टम की थी। हम तीन आदमी थे। अब दूसरी समस्या यह थी कि उसकी पहचान कैसे करें, क्योंकि लोग आते थे और अपना मुर्दा वहां डालकर चले जाते। हमको ये बात मालूम थी कि सभी मुर्दे अज्ञात नहीं हैं। हां उनमें से कुछ मुर्दे लावारिस लग रहे थे। सुभाष गोदाने की याद आई। उसे फोन लगाया और कहा कि जितने भी फिल्म के रोल हैं, उन्हें लेकर सीधे मॉर्चुरी पहुंचो। इसके बाद तमाम मेडिकल स्टूडेंट्स जिन्हें इस काम में लगाया जा सकता था, उन्हें बुला लिया गया। उन्हीं की मदद से हमने सूची तैयार की। सुभाष गोदाने और छात्रों की मदद से मुर्दों को नंबर दिया गया। उनके फोटोग्राफ्स लिए। हम हर तीसरी और चौथी लाश का पोस्टमार्टम कर रहे थे।

मुर्दों के पोस्टमार्टम के दौरान जब एक गर्भवती महिला का शव सामने आया तो हमने यूनियन कार्बाइड से पूछा कि क्या बच्चे पर एमआईसी (मिथाइल आइसोसाइनेट) का असर होगा तो उन्होंने इंकार कर दिया। लेकिन पोस्टमार्टम में एक के बाद एक जब गर्भवती महिलाओं के गर्भ से बच्चे मृत निकले तो माथा ठनका और यूनियन कार्बाइड की तरफ से दिए गए जवाब पर शक होने लगा। यह शक तब सही निकला जब गर्भ से निकाले गए एक बच्चे के खून का परीक्षण किया गया। उसमें भी वही जहर था जो उसकी मां के खून में था। यानी यूनियन कार्बाइड प्रबंधन सफेद झूठ बोल रहा था कि गर्भ में पल रहे बच्चे के ऊपर इसका असर नहीं होगा। इस खुलासे से एक भयावह तस्वीर सामने आई कि यूनियन कार्बाइड से निकली एमआईसी की चपेट में जितनी भी गर्भवती महिलाएं आईं हैं उनके बच्चों पर गैस का असर हुआ है। यानी अगली पीढ़ी भी इस खतरे में थी। लेकिन इस बात को साबित करने के लिए मुझे 16-17 दिसंबर तक इंतजार करना पड़ा।

जीवन में पहली बार देखा कि जिसके घर मौत नहीं हुई वह भी कफन खरीद रहा है। दरअसल जिस वक्त लाशों के आने का सिलसिला थमा, तब सुबह हो चुकी थी। पुरुष, महिलाएं और बच्चे अर्धनग्न अवस्था में थे। अस्पताल में कफन के लिए कोई इंतजाम नहीं था। चौक स्थित दुकान जहां मैं कुछ लोगों को जानता था, वहां संपर्क किया कि लाशों के लिए कफन नहीं हैं। कफन का इंतजाम भी नहीं कर सकते। इसके बाद तो जैसे कफन लाने के लिए होड़ मच गई।



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