मौत के डर से खतरों की राह पर निकले लोगों की आपबीती, जब बस्तियों तक खाना नहीं पहुंचा तो पैदल ही सफर शुरू कर दिया

Posted By: Himmat Jaithwar
4/1/2020

नई दिल्ली. राष्ट्रीय राजमार्गों पर इन दिनों गाड़ियों की दनदनाहट से तेज मजदूरों के पैरों की थाप गूंज रही है। कोरोनावायरस के संक्रमण से बचने के लिए जब देश भर में लॉकडाउन है। तमाम यातायात ठप पड़ा है। गली-मोहल्ले-बाजार सुनसान हैं। तब हजारों मजदूर देश के अलग-अलग हिस्सों से पैदल चलते हुए अपने-अपने गांव लौट रहे हैं। पूर्व सांसद बलबीर पुंज का कहना है कि ये लोग भूख के डर से नहीं भाग रहे, बल्कि परिवार के साथ छुट्टी मनाने गांव जा रहे हैं। लेकिन ये ‘छुट्टियां’ इन मजदूरों के लिए कितनी क्रूर आपदा बन कर आई हैं, इसकी झलक दिल्ली के आनंद विहार बस अड्डे पर बीते रविवार आसानी से देखी गई। पढ़ें उस दिन की कहानी, जब दिल्ली का लॉकडाउन फेल हुआ और रोजी से ज्यादा रोटी की चिंता में हजारों लोग आनंद विहार बस टर्मिनल पर जमा हुए।

सुबह के करीब नौ बजे हैं। हरियाणा के गुरुग्राम से पैदल चलते हुए यहां पहुंचे चंदन कुमार के परिवार की हिम्मत अब जवाब दे चुकी है। करीब 45 किलोमीटर पैदल चलने के बाद उनकी पत्नी इस स्थिति में नहीं हैं कि अब एक कदम भी और आगे बढ़ा सकें। सड़क किनारे बने फुटपाथ पर बैठते ही उन्हें उल्टी हो चुकी है। वे लगातार दर्द से कराह रही हैं। इन लोगों को वाराणसी जाना है। चंदन दुविधा में हैं कि पत्नी को ऐसे कराहता हुआ छोड़ वे वाराणसी की गाड़ी खोजने कैसे जाएं।

इन लोगों से कुछ ही दूरी पर सीआरपीएफ के दो जवान तैनात हैं। इनमें से एक के कंधे पर पंप ऐक्शन गन लटक रही है और दूसरे के पास आंसू गैस के गोलों से भरा एक बक्सा है। हालांकि, यहां आंसू गैस का गोला दागने की कोई नौबत नहीं आई है, लेकिन यहां मौजूद अधिकतर लोगों की आंखें आंसुओं से पहले ही डबडबाई हुई हैं। कई-कई किलोमीटर पैदल चलकर यहां पहुंचे ज्यादातर लोग थकान से बहाल हो चुके हैं और ये सोचकर भी परेशान हैं कि उन्हें अपने गांव की गाड़ी मिलेगी भी या नहीं। सीआरपीएफ के जवान इन लोगों को सड़क के दूसरी तरफ भेज रहे हैं, जहां सैकड़ों बसें पंक्तिबद्ध खड़ी हैं।

डीटीसी की बस चलाने वाले मनीष बताते हैं, ‘यहां करीब 15 हजार लोग जमा हो गए थे। हमने रातभर कई-कई चक्कर लगाकर लोगों को लाल कुआं छोड़ा, जहां से उन्हें उत्तर प्रदेश के अलग-अलग इलाकों के लिए गाड़ियां मिली होंगी। डीटीसी की करीब 570 बसें यहां लगी हुई थीं।’ शनिवार रात तक यहां पहुंचे सभी लोगों को सिर्फ लाल कुआं तक ही छोड़ा जा रहा था जो दिल्ली-उत्तर प्रदेश बॉर्डर पर बसा है। लेकिन रविवार सुबह से करीब तीन सौ बसें सीधे दिल्ली से उत्तर प्रदेश के अलग-अलग जिलों के लिए भी चलाई गईं। ‘दिल्ली कॉन्ट्रैक्ट बस एसोसिएशन’ से जुड़े डीएस चौहान बताते हैं, ‘दिल्ली सरकार ने शनिवार सुबह हमसे बसें मांगी थी। हमारी बसें तैयार भी थीं, लेकिन फिर उन्होंने मना कर दिया। फिर शनिवार रात उनका दोबारा फोन आया तो हमने सुबह से करीब तीन सौ बसें लगा दीं, जो लोगों को अलग-अलग शहरों में छोड़ने रवाना हुईं। इसके लिए लोगों से टिकट नहीं लिया गया।’

 लाल कुआं इलाका, दिल्ली और उत्तरप्रदेश की बॉर्डर पर आता है। आनंद विहार टर्मिनल से लोगों को लाकर यहीं छोड़ा जा रहा था। यहां से उन्हें उत्तर प्रदेश के अपने शहर जाने के लिए बसें मिल रही थी।

दिल्ली सरकार बसें चलवाने का फैसला लेते हुए असमंजस में थी
डीएस चौहान की बातों से समझा सकता है कि दिल्ली सरकार बसें चलवाने का फैसला लेते हुए कितनी असमंजस में रही। फिर शनिवार रात जब हालात बेहद खराब हो गए और हजारों लोग आनंद विहार में जमा होने लगे, तब दिल्ली सरकार ने बसें चलवाना शुरू किया। लेकिन जैसे ही बसें चलने का सिलसिला शुरू हुआ तो लोगों का घरों से निकलकर बस अड्डे पहुंचना भी तेज हो गया।

आनंद विहार पहुंचे लोगों से ये सवाल करने पर कि वे यहीं अपने-अपने ठिकानों पर क्यों नहीं रुके रहे, लगभग एक ही जवाब मिला कि जब से लॉक डाउन हुआ है दिहाड़ी बंद हो गई है। आसपास की दुकानों में राशन बेहद महंगा बिकने लगा है और कोई सरकारी मदद नहीं पहुंची है। ऐसे में कितने दिन भूखे रहें। इसलिए अपने गांव लौट रहे हैं। सुबह के 10 बजे तक जो लोग आनंद विहार पहुंच चुके थे, उन्हें उनके गांव पहुंचाया जा रहा है। लेकिन जो लोग अब भी दिल्ली की तरफ से आनंद विहार की ओर आए हैं, उन्हें पुलिस ने रोकना शुरू कर दिया है। ऐसे में सैकड़ों लोग दिल्ली के अलग-अलग इलाकों में खड़े दिखाई देने लगे। सैकड़ों अन्य ऐसे भी हैं, जो अब लाल कुआं की तरफ पैदल जाने लगे हैं। इस उम्मीद में कि शायद वहां पहुंचकर उन्हें आगे के लिए कोई गाड़ी मिल जाए।

आनंद विहार से लाल कुआं की तरफ जाती सड़क पर दोनों ओर ऐसे लोगों की लंबी कतारें हैं, जो सिर पर कपड़े की गठरी या बैग उठाए पैदल चले जा रहे हैं। कई लोगों के कंधों पर उनके छोटे-छोटे बच्चे बैठे हुए हैं तो कई ऐसे भी हैं, जिनके बच्चे पैदल ही उनके पीछे-पीछे चले जा रहे हैं। पैदल चलते इन लोगों में सिर्फ वही लोग नहीं हैं जो दिल्ली से निकलकर अपने-अपने गांव जा रहे हैं। इन लोगों में बड़ी संख्या उनकी भी है, जो अलग-अलग प्रदेशों से आए हैं। मोहम्मद जीशान और उनके साथी इलाहाबाद से चलें हैं और उन्हें मुजफ्फरनगर जाना है। ये लोग कभी किसी ट्रक तो कभी किसी टैम्पो में बैठ-बैठ कर दो दिन बाद इलाहाबाद से यहां तक पहुंचे हैं।

दिल्ली से अलग-अलग शहरों के लिए चलाई गई बसों को विशेष लाइसेंस जारी किए गए थे।

काम बंद हुआ तो ठेकेदारों ने मदद नहीं की
जीशान और उनके साथी पीओपी का काम किया करते थे। जिस दिन से काम बंद हुआ उनके ठेकेदार ने कह दिया कि अब काम शुरू होने के बाद ही वापस आना। वे कहते हैं, ‘ठेकेदार के पास ही हम लोग रहते थे। उसने दो दिन तो हमें खाना दिया लेकिन फिर कहा कि तुम घर लौट जाओ क्योंकि यहां पता नहीं कब तक काम बंद रहने वाला है। अगर हमें सिर्फ रहने की जगह और राशन भी मिल जाता तो हम इस मुसीबत में कभी भी इतनी दूर के सफर पर नहीं निकलते।’ ऐसी ही स्थिति कानपुर के पास पनकी पॉवर हाउस में काम करने वाले करीब 10 सिख नौजवानों की भी हैं। ये बताते हैं कि काम बंद होने पर इन्हें वापस अपने घर लौट जाने को कह दिया गया। इन लोगों को अमृतसर जाना है लेकिन वहां तक कैसे पहुंचेंगे, इस बारे में इनके पास भी कोई जवाब नहीं है। ये लोग पैदल आनंद विहार की तरफ जा रहे थे, लेकिन पुलिस ने इन्हें वहां जाने से रोक दिया। अब सड़क किनारे खड़े हुए ये लोग अमृतसर या पंजाब की तरफ जाने वाली ऐसी गाड़ियों का इंतज़ार कर रहे हैं, जिसके आने की उम्मीद इन्हें भी न के बराबर है।

दिल्ली से लाल कुआं की तरफ जाने वाले इस राजमार्ग पर दर्जनों लोग ऐसे भी हैं, जो पैदल चल रहे इन लोगों को फलों से लेकर पानी की बोतल, छांछ, बिस्कुट के पैकेट और रोटी सब्जी बांट रहे हैं। दिल्ली के रहने वाले विपिन जोशी, नौशेर अली, मनिंदर सिंह जैसे तमाम लोग अपनी-अपनी गाड़ियों में खाने-पीने का सामान लेकर यहां पहुंचे हैं और लोगों को रोक-रोककर उन्हें ये सामग्री बांट रहे हैं।

कुछ लोग पैदल चल रहे लोगों को खाना बांटते भी नजर आए।

जब प्रधानमंत्री सोशल डिस्टैंसिंग की बात कर रहे थे, तब लोग एकसाथ ट्रकों में चढ़ रहे थे
उत्तर प्रदेश पुलिस के भी अफसर और जवान भी इस राजमार्ग पर जगह-जगह मौजूद हैं और स्थिति को नियंत्रित करने के प्रयास कर रहे हैं। सब इन्स्पेक्टर विशाल सिंह यहां से लाल कुआं की तरफ जाने वाली हर खाली गाड़ी को रोक रहे हैं और पैदल चल रहे लोगों को उनमें बैठा रहे हैं। सब्जियों के एक खाली ट्रक को जब वे रोकते हैं तो लोग एक-दूसरे पर लगभग चढ़ते हुए उस ट्रक में भरना शुरू हो जाते हैं। दिलचस्प है कि ये नजारा ठीक उसी वक्त का है, जब रेडियो पर ‘मन की बात’ चल रहा है जिसमें प्रधानमंत्री ‘सोशल डिस्टैंसिंग’ के बारे में बात कर रहे हैं।

रिक्शा, टेम्पो और ट्रकों में लोग खचाखच भरे हुए थे।

ऐसा भी नहीं है कि लॉकडाउन के दौरान भी घरों से निकल चुके इन लोगों को ‘सोशल डिस्टैंसिंग’ की बिलकुल जानकारी न हो। बिहार के रहने वाले राम बालक पंडित और इनके साथी इसे बखूबी समझते हैं और जानते हैं कि कोरोनावायरस के संक्रमण वाले इस माहौल में इसे बनाए रखना कितना जरूरी है। ये 8 लोग हैं जो साइकिलों पर सवार होकर उत्तर प्रदेश के साहिबाबाद से पटना जाने के लिए निकल पड़े हैं। साइकिल से जाने के सवाल पर वे कहते हैं, ‘बसों में जिस तरह से भीड़ भर रही है, उसमें संक्रमण का बहुत ज्यादा खतरा है। इसीलिए हम लोग साइकिल से जा रहे हैं ताकि लोगों से दूरी बनाए रखें।’

राम बालक पंडित और उनके साथी जब स्थिति से बखूबी वाकिफ हैं तो फिर वे लॉकडाउन में बाहर निकले ही क्यों हैं? इस सवाल का जवाब देते हुए पिंटू कुमार पंडित कहते हैं, ‘मैं पीतल का काम करता हूँ और महीने का छह हजार कमाता हूँ। इस महीने काम बंद होने से पहले चार तो छुट्टियां ही पड़ गई थी तो कुल दो हजार रुपए मिले। इसमें से आठ सौ कमरे का किराया दे दिया। बचे हुए पैसों से कैसे इतने दिन चलाते? राशन लगभग दोगुने दामों में मिलने लगा है।’

बस्तियों में कोई राशन-खाना बांटने नहीं आया
यह पूछने पर कि जब योगी सरकार ने सभी लोगों को राशन पहुंचाने की बात कही है तो फिर वे लोग उसका इंतजार क्यों नहीं करते? राम बालक पंडित कहते हैं, ‘कितना इंतजार करें। तीन दिन हम रुके रहे लेकिन कोई राशन नहीं आया, कोई मदद नहीं आई। योगी जी अभी हमें राशन दे दें तो हम यहीं से लौट जाएं। लेकिन भूखे-प्यासे कब तक इंतजार करें। इन दिनों बहुत सारे लोग खुद भी खाना बांट रहे हैं, लेकिन ये लोग यहीं बांट रहे हैं, जहां लोग पैदल चल रहे हैं। हमारी बस्ती में कोई राशन या खाना बांटने भी नहीं आया। बाहर निकलें तो पुलिस अलग मारती है। हम लोग तब घर से निकले हैं जब ये जान गए थे कि अब जब मरना ही है तो गांव में अपने लोगों के बीच जाकर मरेंगे।’

अपने-अपने गांवों को लौट रहे इन तमाम लोगों में शायद ही ऐसा कोई हो, जिसे महीनेभर की पगार मिलती हो। ये सभी वे लोग हैं जो दिहाड़ी पर काम किया करते हैं। कोई मजदूरी करता है, कोई मिस्त्री है, कोई पंचर लगाता है, कोई रिक्शा चलाता है तो कोई ऐसी ही अन्य छोटी-मोटी अस्थायी नौकरी करता है। ऐसे में इन लोगों के लिए 21 दिनों के लॉक डाउन सीधा मतलब है कि इतने दिनों तक आय के सभी साधनों का बिलकुल बंद हो जाना जबकि खर्चों का बना रहना। कमरे के किराए से लेकर राशन तक के खर्चे तभी पूरे होते हैं जब ये लोग रोज़ मज़दूरी करने निकलते हैं। लिहाज़ा काम न मिलने की मौजूदा स्थिति में इनके पास अपने खर्चे कम करने का एकमात्र तरीक़ा यही बचता है कि शहर से ही पलायन कर लिया जाए।

बुरे वक्त में भी प्राइवेट बस वालों ने मुनाफा कमाया
लाल कुआं पहुंचने पर ये भी देखने को मिलता है कि भूखे-प्यासे शहर छोड़कर जाते इन लोगों से भी मुनाफा कमाने वालों की कमी नहीं है। यहां कई प्राइवेट बसें खड़ी हैं जो लखनऊ तक का किराया एक हजार रुपए प्रति सवारी वसूल रही हैं। ऐसी कुछ बसों में छत पर भी लोग बैठे हुए हैं। छत पर बैठने वालों को दो सौ रुपए की छूट दी गई है। उन्हें लखनऊ तक आठ सौ रुपए प्रति सवारी चुकाने हैं। इतने ज्यादा किराए से बचने का एक विकल्प इन बसों के पास ही खड़ा एक ट्रक है। ये ट्रक लोगों को पीछे लादकर पांच सौ रुपए प्रति सवारी की दर से लखनऊ पहुंचाने को तैयार खड़ा है। जिन्हें सरकार की बसें नहीं मिलीं और जिनके पास प्राइवेट बसों का किराया चुकाने के पैसे भी नहीं हैं, उनके पास फिर यही विकल्प है कि वे पैदल ही चलते रहें। या कुछ लोग 34 साल के संतोष कुमार जैसे भी हैं जो अपनी पत्नी और आठ साल की बेटी को पीछे बैठाकर साइकिल रिक्शे से ही मध्य प्रदेश के सागर के लिए निकल पड़े हैं। रिक्शा चलाने वाले संतोष ने कुछ जरूरी सामान और हवा भरने के लिए एक पंप पीछे बांध लिया है।

संतोष कुमार, मध्यप्रदेश के सागर जिले के रहने वाले हैं। वे पत्नी और बेटी को साइकल रिक्शा पर बैठाकर घर के लिए चल दिए।

कई घंटे रिक्शा चलाने के बाद जब वे दिल्ली की सीमाओं से बाहर निकलने ही वाले थे तो पुलिस ने उन्हें आगे जाने से रोक दिया है। अब वे कई किलोमीटर घूमकर दूसरी तरफ से जा रहे हैं, लेकिन इसका उन्हें ज्यादा अफसोस नहीं है। उनका गंतव्य इतनी दूर है कि ये उसके आगे कुछ किलोमीटर अतिरिक्त रिक्शा खींचने की मेहनत उन्हें ज्यादा भारी नहीं लग रही।

जब हजारों लोग दिल्ली छोड़ गए, तब पोस्टर लगे

शाम के 7 बजने को हैं और दिल्ली की सड़कों पर लोगों के पैदल चलने का सिलसिला अब भी जारी है। हालांकि, दिल्ली सरकार अब तक शहर भर में बड़े-बड़े पोस्टर भी लगवा चुकी हैं जिन पर लिखा है ‘दिल्ली सरकार ने आप सभी के लिए रहने और खाने का पूरा इंतजाम कर लिया है। आपको दिल्ली छोड़कर जाने ज़रूरत नहीं है।’ लेकिन ये पोस्टर तब लगे हैं, जब दिल्ली से हजारों लोग छोड़कर जा चुके हैं।

जो लोग अब भी सड़कों पर पैदल चलते दिख रहे हैं उनमें ज्यादातर वे हैं, जिन्होंने दो-तीन दिन पहले कहीं और से चलना शुरू किया था और अब जाकर दिल्ली पहुंचे हैं। इन लोगों के लड़खड़ाते कदमों और लंगड़ाई चाल से ही अंदाजा हो जाता है कि ये सैकड़ों किलोमीटर पैदल चल चुके हैं। हरियाणा के एक दूरदराज के गांव से तीन दिन पहले निकले सलमान भी इन लोगों में शामिल हैं, जिन्होंने पूरा रास्ता पैदल ही तय किया है। इन लोगों को अभी इटावा जाना है। वहां तक कैसे पहुंचेंगे? इस सवाल का न तो इनके पास कोई जवाब है और ही अब ये कह पाने की ताकत बाकी बची है कि पैदल ही पहुंच जाएंगे।

शहर भर में पोस्टर तब लगाए गए जब हजारों लोग दिल्ली छोड़ कर जा चुके थे।

‘हम लोग भाग भी तो मौत से रहे हैं’
देशभर में जितने लोग अब तक कोरोना वायरस के चलते मरे हैं, लगभग उतने ही लोग अब तक पैदल चलते हुए भी मर चुके हैं। ये तमाम लोग जानते भी हैं कि जिस यात्रा पर ये निकल रहे हैं, वह कितनी घातक साबित हो सकती है। लेकिन यह सब जानने के बावजूद ये लोग इतना खतरा क्यों मोल ले रहे हैं? यह सवाल करने पर बिहार जा रहे पिंटू पंडित दो टूक जवाब देते हैं, ‘हम लोग भाग भी तो मौत से ही रहे हैं।’



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