रतलाम। रविवार को महिला दिवस था और इसे जगह-जगह धूमधाम से मनाया गया। महिला दिवस किस रुप में मनाया जाता रहा है और आज के दौर में इसे किस तरह मनाया जा रहा है ये विचारणीय है क्योंकि अब इसके मनाए जाने के दौरान पाश्चात्य संस्कृति की झलक नजर आती है। महिला दिवस हर साल आता है और रैली,सेमीनार आदि आयोजनों के माध्यम से एक ही दिन में महिलाओं का कल्याण ज्ञानेन्दुलाल कर देते है हमारे यहां भी ऐसे लोगों की भरमार कम नहीं रही है। इस दिन किन महिलाओं का सम्मान होना चाहिए और कौन महिलाएं सम्मान पा जाती है, ये भी विचारणीय है। हमारे यहां सर्दी,बरसात, भीषण गर्मी के बीच हर दिन मुंह अंधेरे घरों से निकले कचरे को सड़क से उठा कर साफ करने वाली महिला सफाई संरक्षकों का सम्मान कभी नही किया जाता है। इसी तरह ऊँची ईमारतों के निर्माण सहित अन्य तरह के निर्माण कार्यों में जुटी महिलाओं को इस सम्मान के लायक आज तक नहीं समझा गया है।
महिला दिवस पर महिलाओं के कल्याण की बातें कुछ पढ़े-लिखे लोग एकत्र होकर आपस में ही कर लेते है, इनमें महिला उत्थान की बातें करने वाले वे ज्ञानचंद्र भी शामिल रहते है, जो महिला दिवस के दूसरे ही दिन अपने नर्सिग होम बनाम कटर हाऊस का इस्तमाल किसी महिला का शारीरिक, मानसिक और आर्थिक शोषण करने के लिए करते आ रहे है।
बेटी बचाओं-बेटी पढ़ाओं और बेटियों को बढ़ाओं ताकि वे महिला बन कर समाज का उत्थान कर सके मगर कई बेटियों को महिला बनने के पहले ही खत्म कर दिया जाता है, या वो किसी तरह के शोषण का शिकार हो जाती है या गर्भवस्था के दौरान ही इनकी मौते हो जाती है।
गर्भधारण करके एक स्वस्थ्य नवजात को जन्म देने वाली महिलाओं की हालत पर नजर डाले तो पता चलेगा कि रतलाम जिले में मातृ व शिशु सुरक्षा के लिए चल रही तमाम योजनाओं के बावजूद हालात खराब चल रहे है।
मातृ और शिशु सुरक्षा के तैनात अमला और इनके अफसर उन इलाकों में महिला दिवस मनाने से परहेज करते है जहां रैलियों और सेमीनार के माध्यम से जागरुकता बढ़ाने की जरुरत है। महिला दिवस पर गोष्टी, रैली और परिचर्चा जिले की सीमा से जुड़े उन दर्जन भर गांवो में नही होती जहां की दर्जनों महिलाएं अनैतिक कुप्रथा को अपना कर मजबूरीवश खुले आम अपनी काया का सौदा कर रही है। ये ही कार्यक्रम उन इलाकों में नही होते है जहां के लोग आज भी 13 साल की बच्ची को दुल्हन का लिबास पहना कर डोली में विदा कर रहे हैं।
स्वास्थ्य विभाग हो या महिला एंव बाल विकास विभाग हर कोई ग्रामीण इलाकों में आज भी कम आयु में होने वाले शादी ब्याह को नहीं रोक पा रहा है।
ऐसे में किशोरियों के शरीर तैयार नहीं होते। कम उम्र में प्रसव से कई तरह की शारीरिक दिक्कतें होती है और जिस कारण कई बार लड़कियों के परिवार इनसे किनारा कर लेते हैं। बच्चों की सेहत को भी खतरा रहता है। अगर माँ 18 साल से छोटी है तो बच्चे के मरने की आशंका बढ़ जाती है ये भी सभी जानते है।
पिछले साल अक्टूबर-नवंबर माह में जिले के कालूखेड़ा क्षेत्र की एक गर्भवती महिला की मौत हो गई। इस महिला की मौत पर राज्य स्तर से जांच कराई गई। कई महिनों चली जांच में पता चला कि इस महिला ने 17 से 18 बरस की आयु में दूसरे बच्चे को जन्म देने का प्रयास किया था,मगर इसके दोनो बच्चे कोख में ही दम तोड़ चुके थे और मरे हुए दूसरे बच्चे को जन्म देने के बाद इस मां ने भी दम तोड़ दिया था। यही हालात महिला उत्पीडऩ को लेकर भी चल रहे है। जिले के थानों में हर दिन एक से दो महिला उत्पीडऩ के मामले दर्ज हो रहे है। इस मान से एक साल में यह संख्या पांच सौ से ज्यादा का आंकड़ा पार कर लेती है। यौन उत्पीडऩ के ज्यादातर मामलों में अपने वाले ही आरोपित पाए जाते है। वही दहेज प्रताडऩाओं के सप्ताह में एक-दो प्रकरण सामने आ ही जाते है। इस तरह अन्य तरह की प्रताडऩाओं के चलते भी महिलाएं खुद को खौफजदा महसूस करती आ रही है।
कुल मिलाकर आठ मार्च को महिला दिवस मनाओं और नौ मार्च से इसे अगले आठ मार्च तक के लिए भूल जाओं जैसी प्रवृति का चलन तेजी से बढ़ा है। ऐसे में महिला दिवस के असल मायने गौण होते जा रहे है और अबला नारी को सबला बनाने के प्रयास कागजों तक सिमट गए है।
पांच सालों में 91 मौतों का जिम्मेदार कौन?
पिछले पांच सालों के आंकड़ों पर नजर डाले तो पता चलेगा कि कुल 91 मौते हो चुकी है। इसमें वर्ष 2015 में 22, 2016 में 14, 2017 में 25,2018 में 14 और 2019 में 16 मौतें हो चुकी है।अब उस आंकड़े पर भी नजर डाल ली जाए जो इस बात की गवाही देते है कि कितने नवजात अपनी मां को जन्म लेने के बाद भी मातृत्व सुख नहीं दे पाए है। पिछले पांच सालों में जिले की बाल मृत्यु पर नजर डाले तो पता चलेगा कि वर्ष 2015 में 179 बाल मृत्यु हुई है। इसी तरह 2016 में 345, 2017 में 257, 2018 में 555,2019 में 878 और फरवरी 2020 तक 84 बच्च्चों को मां का आंचल नसीब नही हो पाया है। रतलाम जिले में पिछले पांच सालों में 2298 बच्चों की मौत हुई है जिसमें 1630 बच्चों ने शासकीय चिकित्सा संस्थाओं में जन्म लेने से पहले या बाद में दम तोड़ा है। ये आंकड़े वो आंकड़े है जो सरकारी फाईलों में दर्ज है ऐसी कितनी अभागी माताएं व बच्चे ऐसे भी जो परलोक सिंधार गए मगर सरकारी दस्तावेजों में दर्ज नही हो पाए है।