राहत भाई हिंदी-उर्दू साहित्य के बीच के सबसे मजबूत पुल थे। मेरी याददाश्त में मैंने किसी शायर को मकबूलियत के इस उरूज पर नहीं देखा था, जितना उन्हें। उनके अंदर की हिंदुस्तानियत का ये जादू था कि हिंदी कवि-सम्मेलनों में भी उन्हें वही मुकाम हासिल था जो उर्दू मुशायरों में था। राहत भाई मुंहफट होने, इंदौरी होने, शायर होने और इन सब से बढ़ कर हिंदुस्तानी होने पर ताउम्र फ़िदा रहे, और गजब के फिदा रहे। कई मुल्कों के खचाखच भरे ऑडिटोरियम की कशमकश भरी वे रातें मेरी आंखों को मुंह जुबानी याद हैं, जहां अपने जुमलों और शेरों में महकती हिंदुस्तानियत की खुशबू पर आपत्ति उठाने वाले लोगों से राहत भाई अपने तेवर, फिलवदी जुमलों और कहकहों के हथियार ले कर एकदम भिड़ जाते थे।
बहरीन की एक महफ़िल में, जहां हिंदुस्तान और पाकिस्तान दोनों के श्रोता लगभग बराबर संख्या में मौजूद थे, वहां राहत भाई ने पढ़ा, कि “मैं जब मर जाऊं तो मेरी अलग पहचान लिख देना// लहू से मेरी पेशानी पे हिंदुस्तान लिख देना”, तो महफिल से एक चुभता हुआ सा जुमला उठा - कम से कम गजल को तो मुल्क के रिश्ते से बाहर रखिये।” जुमले के समर्थन और विरोध के शोर के बीच मुझे खामोश होने का इशारा किया और अपने मशहूर अंदाज में माइक को थामकर कहा कि ‘हिंदुस्तान के एक अलग हुए टुकड़े के बिछड़े हुए भाई, जरा ये शेर भी सुनो - “ए जमीं, इक रोज तेरी ख़ाक में खो जाएंगे, सो जाएंगे// मर के भी, रिश्ता नहीं टूटेगा हिंदुस्तान से, ईमान से”।