राजस्थान में पायलट वर्सेज गहलोत से शुरू हुई सियासी उठापटक अब राज्य सरकार वर्सेज राज्यपाल हो गई है। गहलोत सरकार 31 जुलाई से ही विधानसभा का सत्र बुलाने पर अड़ी है, लेकिन राज्यपाल की तरफ से हरी झंडी नहीं मिल रही है। कांग्रेस का आरोप है कि राज्यपाल दबाव में काम कर रहे हैं। वे कैबिनेट के प्रस्ताव को खारिज नहीं कर सकते हैं। उधर राज्यपाल का कहना है कि इस समय कोरोनाकाल चल रहा है, ऐसे में इतना जल्दी सत्र बुलाना ठीक नहीं है, सरकार को 21 दिनों का नोटिस देना चाहिए।
इस पूरे मामले को लेकर राजनीति तेज हो गई है। भारत में आजादी के बाद से ही कई बार राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच आमने-सामने की स्थिति देखने को मिली है, कई बार राज्यपाल अपने फैसलों से विवादों में भी रहे हैं।
कर्नाटक : राज्यपाल ने 1989 में बोम्मई सरकार को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लगा दिया था
एसआर बोम्मई 1988-1989 के दौरान कर्नाटक के मुख्यमंत्री रहे। अक्टूबर 2007 में इनकी मृत्यु हो गई।
बात 1989 की है, राज्य में जनता दल की सरकार थी और मुख्यमंत्री थे एसआर बोम्मई। अप्रैल 1989 में उनकी पार्टी के कुछ विधायकों ने बगावत कर दी। तब की सरकार पर अल्पमत में होने का आरोप लगा। बोम्मई ने राज्यपाल से एक हफ्ते के भीतर विधानसभा का सत्र बुलाने और बहुमत साबित करने की इजाजत मांगी। लेकिन, राज्यपाल पी वेंकट सुबैया ने मंजूरी नहीं दी। राज्यपाल ने केंद्र की कांग्रेस सरकार से राज्य सरकार को बर्खास्त करने की सिफारिश कर दी। 21 अप्रैल, 1989 को बोम्मई सरकार को बर्खास्त कर दिया गया और कर्नाटक में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया।
बोम्मई इस मामले को कर्नाटक उच्च न्यायालय में ले गए, लेकिन वहां राहत नहीं मिली। न्यायालय ने राज्यपाल की भूमिका को सही ठहराया। इसके बाद यह मामला सुप्रीम कोर्ट में गया। पांच साल तक मामले की सुनवाई हुई। उसके बाद 1994 में 9 जजों की बेंच ने राज्यपाल द्वारा सरकार को बर्खास्त करने के फैसले को गलत ठहराया। कोर्ट ने कहा कि किसी सरकार का बहुमत साबित करना हो या सरकार से समर्थन वापस लेना हो, इसके लिए विधानसभा में शक्ति परीक्षण ही अकेला तरीका है। कोर्ट ने तब कहा था कि राष्ट्रपति शासन का रिव्यू भी हो सकता है।
उत्तर प्रदेश : महज एक दिन के लिए मुख्यमंत्री बने थे जगदंबिका पाल
जगदंबिका पाल अभी यूपी के डुमरियागंज से लोकसभा के सांसद प्रत्याशी हैं। पहले कांग्रेस में थे, लेकिन 2014 में भाजपा में शामिल हो गए।
बात 1998 की है, यूपी में भाजपा की मिली-जुली सरकार थी, कल्याण सिंह मुख्यमंत्री थे। तब यूपी के गवर्नर थे रोमेश भंडारी। जगदंबिका पाल ने सरकार से समर्थन ले लिया और कहा कि 22 विधायक उनके साथ हैं और उनके पास बहुमत है। इसके बाद फरवरी 1998 को राज्यपाल रोमेश भंडारी ने कल्याण सिंह की सरकार को बर्खास्त कर दिया और रातोंरात जगदंबिका पाल को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई गई। राज्यपाल के इस फैसले का पुरजोर विरोध हुआ। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने लखनऊ में आमरण अनशन शुरू कर दिया।
कल्याण सिंह ने इस फैसले को इलाहाबाद हाई कोर्ट में चुनौती दी। कोर्ट ने राज्यपाल के फैसले को असंवैधानिक करार दिया। इसके बाद मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। सुप्रीम कोर्ट ने फ्लोर टेस्ट का आदेश दिया। फ्लोर टेस्ट में कल्याण सिंह के पक्ष में 225 और पाल के पक्ष में 196 वोट पड़े थे। इसके बाद कल्याण सिंह फिर से मुख्यमंत्री बने।
बिहार : बूटा सिंह ने विधानसभा भंग कर दिया और राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया
पूर्व केंद्रीय मंत्री बूटा सिंह कांग्रेस के सीनियर लीडर हैं, वे बिहार के राज्यपाल रह चुके हैं।
2005 के बिहार विधानसभा चुनाव में किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था। सभी एक दूसरे से जोड़तोड़ की कोशिश कर रहे थे। उस समय केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी और राज्यपाल थे बूटा सिंह।
उन्होंने 22 मई, 2005 को बिहार विधानसभा भंग कर दिया और राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया। राज्यपाल पर आरोप लगा कि उन्होंने जल्दी में फैसला लिया है। इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई, जिस पर फैसला सुनाते हुए कोर्ट ने बूटा सिंह के फैसले को असंवैधानिक बताया था। इसके बाद अक्टूबर- नवंबर 2005 में चुनाव हुआ। जिसमें एनडीए को पूर्ण बहुमत मिला। नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने।
अरुणाचल प्रदेश : राज्यपाल ने समय से पहले ही सत्र बुला लिया था, सुप्रीम कोर्ट ने फैसले को गलत बताया
जेपी राजखोवा 2015-2016 के दौरान अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल रह चुके हैं।
साल 2015 की बात है, राज्य में कांग्रेस की सरकार थी, मुख्यमंत्री थे नबाम तुकी और राज्यपाल थे जेपी राजखोवा। आज जो हालात राजस्थान में है, कुछ इसी तरह के हालात अरुणाचल प्रदेश में भी हुआ था। कांग्रेस के 21 विधायकों ने बगावत कर दिया था। उस समय विधानसभा का शीत सत्र 2016 में जनवरी में शुरू होना था, लेकिन राज्यपाल ने 9 दिसंबर 2015 को आदेश जारी किया और शीत सत्र से एक महीना पहले यानी 15 दिसंबर 2015 को बुला लिया।
इसके बाद विपक्षी विधायकों ने बागियों के साथ मिलकर मुख्यमंत्री तुकी और विधानसभा अध्यक्ष नाबम रेबिया को ही बर्खास्त कर दिया। 9 फरवरी को कालिखो पुल को मुख्यमंत्री बनाया गया। कांग्रेस के बागी 20 और भाजपा के 11 विधायकों ने समर्थन दिया था।
इसके बाद मामला सुप्रीम कोर्ट में गया। सुप्रीम कोर्ट ने जुलाई 2016 में राज्यपाल के फैसले को गलत ठहराया और 9 दिसंबर 2015 से पहले की स्थिति बहाल करने का आदेश दिया। तब सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि राज्यपाल अपनी मर्जी से कभी भी और कहीं भी विधानसभा का सत्र नहीं बुला सकते।
उत्तराखंड : सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद कांग्रेस की सरकार बहाल हुई थी
कृष्णकांत पाल पूर्व आईपीएस अधिकारी हैं, वे मेघालय,मणिपुर और उत्तराखंड के राज्यपाल रह चुके हैं।
साल 2016 की बात है, मुख्यमंत्री थे हरीश रावत। विधानसभा के बजट सत्र के दौरान कांग्रेस के नौ विधायकों ने बगावत कर दी और भाजपा के साथ चले गए। 27 मार्च 2016 को स्पीकर ने इन विधायकों की सदस्यता रद्द कर दी। तब राज्यपाल थे कृष्णकांत पाल। उन्होंने राज्य में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश कर दी। जिसका कांग्रेस ने विरोध किया। इसके बाद मामला हाई कोर्ट पहुंचा। हाई कोर्ट ने राष्ट्रपति शासन हटाने का फैसला किया।
इसके बाद केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट पहुंची। सुप्रीम कोर्ट ने 10 मई 2016 को हरीश रावत को बहुमत साबित करने को कहा। इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने उन बागी 9 विधायकों को फ्लोर टेस्ट में वोटिंग पर रोक लगा दी। 10 मई को शक्ति परीक्षण हुआ और हरीश रावत फिर से मुख्यमंत्री बने।