पढ़ाई के पैसों के लिए पूरा घर रातभर बीड़ी बनाता था, फिजिक्स में टॉप किया, पीएचडी की लेकिन फल बेचने को मजबूर

Posted By: Himmat Jaithwar
7/27/2020

एक नाम और दूसरा साइन, इन दो चीजों का हर्जाना मैं सालों से भर रही हूं और शायद जिंदगीभर भरते रहूंगी। एक गलत नाम ने मेरे पूरे करियर को चौपट कर दिया। फिजिक्स की टॉपर रहने और पीएचडी करने के बावजूद मुझे ठेले पर फल बेचने को मजबूर होना पड़ा।

यह शब्द इंदौर की डॉक्टर रईसा अंसारी के हैं। रईसा इंदौर के मालवा मिल चौराहे पर सड़क किनारे सब्जी का ठेला लगाती हैं। पिछले दिनों इंदौर नगर निगम की टीम इनका ठेला हटाने पहुंची तो रईसा का दर्द फूट पड़ा। हिंदी के साथ ही उन्होंने अंग्रेजी में भी निगम कर्मचारियों को खूब खरी-खोटी सुनाई।

इसके बाद से ही रईसा का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है। रईसा एक गरीब परिवार से ताल्लुक रखती हैं। उनके पिता मोहम्मद अंसारी सालों से सब्जी-फल बेचकर अपने घर का गुजारा कर रहे थे। रईसा के अलावा घर में उनके तीन भाई, तीन भाभी और दो बहनें हैं। एक बहन की शादी हो चुकी है।

तबियत खराब होने के बाद रईसा ने नौकरी छोड़ दी थी और ठेला लगाना शुरू कर दिया।

इतनी गरीबी के बावजूद पीएचडी तक की पढ़ाई कैसे कर पाईं? इस सवाल के जवाब में रईसा ने बताया कि अब्बू जितना कमाते थे, उससे तो दो वक्त की रोटी ही बमुश्किल मिल पाती थी। हमें अच्छे स्कूल में पढ़ाने की तो उनकी हैसियत नहीं थी। मेरी बड़ी बहन ने पांचवीं क्लास में टॉप किया था, तो उस समय उसे तत्कालीन सीएम अर्जुन सिंह ने ईनाम दिया था। इसके बाद से ही अम्मी ने सोच लिया था कि कुछ भी हो जाए, लेकिन बच्चों को अच्छा पढ़ाना-लिखाना है।

अब हम लोग तो उस समय छोटे थे तो क्या करते। फिर दीदी ने बीड़ी बनाना सीख लिया और हम सब घर में बीड़ी बनाकर बेचने लगे। अम्मी, हम तीनों बहनें, भाई और अब्बू सब बीड़ी बनाते थे और बेचते थे। अब्बू दिन में ठेला भी लगाते थे। रात-रातभर बीड़ी बनाने का काम चलता था। इससे जो पैसे आते थे, उसी से हमारी पढ़ाई शुरू हो गई।

मैं 12वीं तक घर के पास में ही पिंक फ्लॉवर स्कूल में पढ़ी। इसके बाद कम्प्यूटर साइंस से बीएससी किया। फिजिक्स में इतने अच्छे नंबर आए कि टॉपर बनी और मुझे अवॉर्ड भी मिला। 2004 में मैंने डीएवीवी के स्कूल ऑफ इंस्ट्रूमेंटेशन में पीएचडी के लिए रजिस्ट्रेशन करवाया।

रईसा के अब्बू भी सालों से यहीं ठेला लगाते आ रहे हैं। उन्हीं का काम बेटी ने संभाल लिया।

मैंने 2004 में पीएचडी का शोध तो शुरू कर दिया था, लेकिन मेरी पीएचडी 2011 में पूरी हो पाई। इसकी वजह ये नहीं थी कि मैंने शोध समय पर पूरे नहीं किए या गाइड के इंस्ट्रक्शन फॉलो नहीं किए। बल्कि मेरे गाइड ही मुझसे चिढ़ गए थे। उन्होंने दो साल तक तो मेरा वायवा ही नहीं होने दिया। जब मैंने हंगामा मचाया तब कहीं जाकर मेरा वायवा लिया गया और 11 मार्च 2011 को मुझे पीएचडी अवॉर्ड हो पाई।

गाइड सिर्फ इस बात से चिढ़ गए थे कि मीडिया ने मुझे मिले जूनियर रिसर्च के एक अवॉर्ड की खबर लिखते हुए किसी और को मेरा गाइड बता दिया था, उन्हें लगा ये मैंने करवाया है, जबकि मैं तो खुद ही मीडिया के लोगों को लेकर उनके घर गई थी, लेकिन वहां से शुरू हुआ कंफ्यूजन फिर खत्म नहीं हो सका।

2009 में मुझे एक रिसर्च प्रोजेक्ट में बेल्जियम जाने का मौका भी मिला था, लेकिन मेरे गाइड ने साइन ही नहीं किए और मैं नहीं जा पाई। टॉपर होने के बावजूद मैं सिर्फ अपने साथियों से पिछड़ते इसलिए चली गई क्योंकि गाइड से मेरे रिश्ते खराब थे और उनके अच्छे थे। वो लोग आज विदेशों में हैं। सबका करियर सेट हो गया और मैं ठेले पर फल बेच रही हूं।

2011 में पीएचडी पूरी होने के बाद मैंने सरकारी नौकरी के लिए बहत कोशिशें की। विक्रम साराभाई स्पेस सेंटर से लेकर इंदिरा गांधी सेंटर फॉर एटॉमिक रिसर्च सेंटर तक में जाने के लिए ट्राय किया लेकिन जो लोग मेरे पीछे पड़े थे, उन्होंने सब जगह मेरे गलत रिव्यू दिए।

रईसा अब ठेले पर फल बेचकर भी खुश हैं। कहती हैं कभी शोध करने का मौका मिला तो जरूर करूंगी।

साइंस के हर इंस्टीट्यूट में उनकी पहचान के लोग हैं, उन्होंने मुझे आगे बढ़ने नहीं दिया। थक-हारकर मैंने सरकारी नौकरी का सपना छोड़ दिया और प्राइवेट कॉलेज में टीचिंग शुरू कर दी। करीब साढ़े आठ साल अलग-अलग कॉलेजों में पढ़ाया। फिर अचानक मेरी तबियत बहुत खराब हो गई। शरीर में खून बहुत कम हो गया था।

हड्डियां एकदम कमजोर हो गईं थीं। इन दिक्कतों के चलते प्राइवेट जॉब भी छोड़ना पड़ी। ठीक हुई तो फिर प्राइवेट नौकरी करने का मन नहीं हुआ इसलिए जो काम अब्बू करते थे, वही शुरू कर दिया। फल का ठेला लगाने लगी।

रईसा के विरोध के बाद अभी उनका और दूसरे व्यापारियों का ठेला नहीं हटाया गया है।

इसी बीच, नगर निगम ने फरमान जारी कर दिया कि सड़क के किनारे हमारे ठेले नहीं लगेंगे। वो बोलते हैं फेरी लगाओ। फेरी भी लगाओ तो परेशान करते हैं। अरे, अब हम जाएं तो जाएं कहां। अब हम सब एकजुट हो गए हैं। कहीं नहीं जाएंगे। रईसा का वीडियो वायरल होने के बाद उनके पास इंदौर के कई स्थानीय नेता पहुंचे।

उनके सहित दूसरे व्यापारियों का ठेला भी अभी मालवा मिल चौराहे के फुटपाथ पर ही लग रहा है। रईसा ने बताया कि, वीडियो वायरल होने के बाद केरल के मरकज और सुन्नी वेलफेयर कमेटी के लोग सहायता के लिए आए थे, तो मैंने उन्हें कहा कि मेरी पढ़ाई-लिखाई तो हो चुकी है और मैं सब्जी बेचकर अपना गुजारा कर ही लेती हूं।

यदि आपको मदद करना ही है तो किसी बच्ची की पढ़ाई में मदद कर दीजिए। इसके बाद उन्होंने हमारे घर के पास में ही रहने वाली सिफा की पढ़ाई के लिए हामी भरी है। सिफा अभी छठी क्लास में है। अब वो जहां तक पढ़ना चाहेगी, पढ़ पाएगी। मैं जल्द ही उसका किसी अच्छे स्कूल में एडमिशन करवा दूंगी।



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