चीन से लड़ने को तैयार की गई एक खुफिया रेजीमेंट, जो सेना के बजाए रॉ के जरिए सीधे प्रधानमंत्री को रिपोर्ट करती है

Posted By: Himmat Jaithwar
6/26/2020

नई दिल्ली. अक्टूबर 2018 की बात है। यूरोपीय देश एस्टोनिया की मशहूर गायिका यना कास्क भारत आई थीं। वो अपना एक म्यूजिक वीडियो यहां शूट करना चाहती थीं और इसके लिए उन्होंने उत्तराखंड के चकराता क्षेत्र को चुना था।

देहरादून से करीब 100 किलोमीटर दूर बसा चकराता एक बेहद खूबसूरत पहाड़ी कस्बा है। यहीं पर यना अपने दोस्तों के साथ शूटिंग कर ही रही थीं, लेकिन जैसे ही लोकल इंटेलिजेंस यूनिट को इसकी भनक लगी यना और उनके साथियों को तुरंत हिरासत में ले लिया गया। उन्हें देश छोड़कर जाने का नोटिस थमा दिया गया और स्थानीय पुलिस ने केंद्र सरकार से कहा कि यना को ब्लैक-लिस्ट कर दिया जाए ताकि वो भविष्य में भारत न आ सकें।

यह सब इसलिए हुआ क्योंकि चकराता एक प्रतिबंधित क्षेत्र है। यहां केंद्रीय गृह मंत्रालय की अनुमति के बिना किसी भी विदेशी नागरिक को जाने की इजाजत नहीं है। यना इस बात से अनजान थीं और वो बिना किसी परमिशन के ही यहां दाखिल हो चुकी थीं, इसलिए उन्हें इस कार्रवाई का सामना करना पड़ा।

 फोटो स्पेशल पैरा फोर्स की है, जो बेहद खुफिया तरीकों से बड़े-बड़े ऑपरेशन को अंजाम देती है, इसी तर्ज पर टूटू रेजीमेंट भी काम करती है।

यना की ही तरह ज्यादतर भारतीय भी इस बात से अनजान ही हैं कि चकराता में विदेशियों का आने पर रोक है। यह प्रतिबंध क्यों है, इसकी जानकारी तो और भी कम लोगों को है। चकराता एक छावनी क्षेत्र है जो कि सामरिक दृष्टि से भी काफी संवेदनशील है। यहां विदेशियों के आने पर रोक की सबसे बड़ी वजह है भारतीय सेना की बेहद गोपनीय टूटू रेजीमेंट।  

टूटू रेजीमेंट भारतीय सैन्य ताकत का वह हिस्सा है जिसके बारे में बहुत कम जानकारियां ही सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध हैं। यह रेजीमेंट आज भी बेहद गोपनीय तरीके से काम करती है और इसके होने का कोई प्रूफ भी पब्लिक नहीं किया गया है। 

पूर्व पीएम जवाहरलाल नेहरू ने टूटू रेजीमेंट बनाने का फैसला लिया था

टूटू रेजीमेंट की स्थापना साल 1962 में हुई थी। ये वही समय था जब भारत और चीन के बीच युद्ध हो रहा था। तत्कालीन आईबी चीफ भोला नाथ मलिक के सुझाव पर तब के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने टूटू रेजीमेंट बनाने का फैसला लिया था।

इस रेजीमेंट को बनाने का मकसद ऐसे लड़ाकों को तैयार करना था जो चीन की सीमा में घुसकर, लद्दाख की कठिन भौगोलिक स्थितियों में भी लड़ सकें। इस काम के लिए तिब्बत से शरणार्थी बनकर आए युवाओं से बेहतर कौन हो सकता था। ये तिब्बती नौजवान उस क्षेत्र से परिचित थे, वहां के इलाकों से वाकिफ थे।

जिस चढ़ाई पर लोगों का पैदल चलते हुए दम फूलने लगता है, ये लोग वही दौड़ते-खेलते हुए बड़े हुए थे। इसलिए तिब्बती नौजवानों को भर्ती कर एक फौज तैयार की गई। भारतीय सेना के रिटायर्ड मेजर जनरल सुजान सिंह को इस रेजीमेंट का पहला आईजी नियुक्त किया गया।

सुजान सिंह दूसरे विश्व युद्ध में 22वीं माउंटेन रेजीमेंट की कमान संभाल चुके थे। इसलिए नई बनी रेजिमेंट को ‘इस्टैब्लिशमेंट 22’ या टूटू रेजीमेंट भी कहा जाने लगा।

 फोटो उन गोरखा कमांडो की है जो इस टूटू रेजीमेंट का हिस्सा होते हैं, लेकिन शुरुआत में सिर्फ तिब्बती जवान ही इसमें शामिल हो पाते थे।

शुरुआत में अमेरिका की खुफिया एजेंसी ने दी थी ट्रेनिंग

दिलचस्प है कि टूटू रेजीमेंट को शुरुआती दौर में ट्रेंड करने का काम अमेरिका की खुफिया एजेंसी सीआईए ने किया था। इस रेजिमेंट के जवानों को अमेरिकी आर्मी की विशेष टुकड़ी ‘ग्रीन बेरेट’ की तर्ज़ पर ट्रेनिंग दी गई। इतना ही नहीं, टूटू रेजिमेंट को एम-1, एम-2 और एम-3 जैसे हथियार भी अमेरिका की तरफ से ही दिए गए।

इस रेजीमेंट के जवानों की अभी भर्ती भी पूरी नहीं हुई थी कि नवंबर 1962 में चीन ने एकतरफा युद्धविराम की घोषणा कर दी, लेकिन इसके बाद भी टूटू रेजीमेंट को भंग नहीं किया गया। बल्कि इसकी ट्रेनिंग इस सोच के साथ बरकरार रखी गई कि भविष्य में अगर कभी चीन से युद्ध होता है तो यह रेजीमेंट हमारा सबसे कारगर हथियार साबित होगी।

टूटू रेजीमेंट के जवानों को विशेष तौर से गुरिल्ला युद्ध में ट्रेंड किया जाता है। इन्हें रॉक क्लाइंबिंग और पैरा जंपिंग की स्पेशल ट्रेनिंग दी जाती है और बेहद कठिन परिस्थितियों में भी जीवित रहने के गुर सिखाए जाते हैं।

1971 में स्पेशल ऑपरेशन ईगल में किया गया था शामिल

अपने अदम्य साहस का प्रमाण टूटू रेजीमेंट ने 1971 के बांग्लादेश युद्ध में भी दिया है, जहां इसके जवानों को स्पेशल ऑपरेशन ईगल में शामिल किया गया था। इस ऑपरेशन को अंजाम देने में टूटू रेजिमेंट के 46 जवानों को शहादत भी देनी पड़ी थी। इसके अलावा 1984 में ऑपरेशन ब्लूस्टार, ऑपरेशन मेघदूत और 1999 में हुए करगिल युद्ध के दौरान ऑपरेशन विजय में भी टूटू रेजिमेंट ने अहम भूमिका निभाई।

शहादत के बदले नहीं मिलता सार्वजनिक सम्मान

इस रेजीमेंट के जवानों का सबसे बड़ा दर्द ये रहा है कि इन्हें अपनी क़ुर्बानियों के बदले कभी वो सार्वजनिक सम्मान नहीं मिल पाया जो देश के लिए शहीद होने वाले दूसरे जवानों को मिलता है। इसके पीछे वजह है कि टूटू रेजिमेंट बेहद गोपनीय तरीके से काम करती रही है। इसकी गतिविधियों को कभी पब्लिक नहीं किया जाता।

यही वजह है कि 1971 में शहीद हुए टूटू के जवानों को न तो कोई मेडल मिला और न ही कोई पहचान मिली। जिस तरह से रॉ के लिए काम करने वाले देश के कई जासूसों की कुर्बानियां अक्सर गुमनाम जाती हैं, वैसे ही टूटू के जवानों के शहादत को पहचान नहीं मिल सका।

बीते कुछ सालों में इतना फर्क जरूर आया है कि टूटू रेजीमेंट के जवानों को अब भारतीय सेना के जवानों जितना ही वेतन मिलने लगा है। दिल्ली हाई कोर्ट ने कुछ साल पहले कहा था, ‘ये जवान न तो भारतीय सेना का हिस्सा हैं और न ही भारतीय नागरिक। लेकिन, इसके बावजूद भी ये भारत की सीमाओं की रक्षा के लिए हमारे जवानों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े रहे हैं।’

पूर्व भारतीय सेना प्रमुख रहे दलबीर सिंह सुहाग भी टूटू रेजीमेंट की कमान संभाल चुके हैं।

पूर्व सेना प्रमुख दलबीर सिंह संभाल चुके हैं कमान

टूटू रेजीमेंट के काम करने के तरीकों की बात करें तो आधिकारिक तौर पर यह भारतीय सेना का हिस्सा नहीं है। हालांकि, इसकी कमान डेप्युटेशन पर आए किसी सैन्य अधिकारी के ही हाथों में होती हैं। पूर्व भारतीय सेना प्रमुख रहे दलबीर सिंह सुहाग भी टूटू रेजिमेंट की कमान सम्भाल चुके हैं। यह रेजिमेंट सेना के बजाय रॉ और कैबिनेट सचिव के जरिए सीधे प्रधानमंत्री को रिपोर्ट करती है।

शुरुआती दौर में जहां टूटू रेजीमेंट में सिर्फ तिब्बती मूल के जवानों को ही भर्ती किया जाता था, वहीं अब गोरखा नौजवानों को भी टूटू का हिस्सा बनाया जाता है। इस रेजिमेंट की रिक्रूटमेंट भी पब्लिक नहीं किया जाता है।

टूटू रेजीमेंट में आज कितने जवान हैं, कितने अफसर हैं, इनकी बेसिक और एडवांस ट्रेनिंग कैसे होती है और ये काम कैसे करते हैं, यह आज भी एक रहस्य ही हैं। टूटू रेजीमेंट का उद्देश्य आज भी वही है जो इसकी स्थापना के वक्त था, चीन से युद्ध की स्थिति में भारतीय सैन्य ताकत का सबसे मजबूत हथियार साबित होना।



Log In Your Account