सुंदरगढ़. पहली कहानी ओडिशा के सुंदरगढ़ से... समरुति, रेखा, निशांत, आदिल, कुसुम, समीर, वर्षा, कुणाल, कुम, बिरजिनिया, निखिल... ऐसे 21 नाम हैं। ये कुछ उन यतीम बच्चों के नाम हैं, जो लॉकडाउन के बीच सुंदरगढ़ में बिसरा के ‘दिशा शेल्टर होम' में पहुंचे हैं। लहुनीपाड़ा की समरुति 45 दिन की है और उससे थोड़ी ही छोटी खटकुल बहाल की रेखा है, जिसकी उम्र महज 34 दिन है। दोनों की मां ने उन्हें सरेंडर कर दिया, यानी ये मांएं खुद अपने बच्चे को पाल नहीं सकतीं।
कोरोना इन बच्चों के लिए कहर साबित हुआ है। खासकर गरीब बच्चों के लिए। कोई अपने नवजात को अडॉप्शन सेंटर में छोड़कर जा रहा है, तो कोई अपने बच्चों को किसी गांव में या फिर सड़क पर लावारिस रखकर चला जा रहा है। जो कमाने कहीं गए थे, लॉकडाउन खुलने के बाद भी लौटे ही नहीं। उनके बच्चे यतीम हो गए हैं। भटक रहे हैं।
ब्राह्मणी तरंग के निशांत को 22 दिन पहले कोई सड़क पर छोड़कर चला गया था। यही कहानी आदिल की है, जो जनता कर्फ्यू यानी, 22 मार्च के अगले ही दिन शेल्टर होम पहुंचा। इन नवजातों के यह नाम शेल्टर होम वालों के ही दिए हुए हैं। इन बच्चों के माता-पिता कौन हैं, कोई नहीं जानता।
इनमें से कोई सड़क पर पड़ा मिला तो कोई चुपचाप इन्हें पालना घर के बाहर छोड़ गया। दिशा चाइल्डलाइन में 39 बच्चे हैं, 17 बड़े बच्चे हैं। जिनमें से 7 तो हमारे सामने ही यहां आए। वहीं 22 नवजात हैं, इनमें 4 लॉकडाउन के दौरान आए हैं।
पांच बच्चों को सोता हुआ छोड़ गए मां-बाप
बिसरा के शेल्टर होम में पांच भाई-बहन कुसुम, समीर, वर्षा, कुणाल और कुम मांझी पहुंचे। इनमें सबसे बड़ी कुसुम 14 साल की है। सुंदरगढ़ जिले के राजगांगपुर के भगत टोला-भाटीपाड़ा के पास लॉकडाउन के कुछ दिन पहले इनके मां-बाप रात में इन्हें सोता हुआ छोड़कर चले गए। कहां गए-पता नहीं। ये बच्चे गांव की एक टूटी झोपड़ी में जिंदगी बसर कर रहे थे।
यह झोपड़ी इन बच्ची की नहीं, किसी और की थी। फिर भूख से जंग शुरू हुई। कुछ दिन गांव के लोगों ने कुछ खाने को दिया। सरकारी राशन इन्हें मिल नहीं सकता था, क्योंकि राशन कार्ड था नहीं। जिस गांव में मां-बाप ने इन्हें छोड़ा, वह इनका अपना नहीं था।
सबसे बड़ी कुसुम ने बताया कि ‘हम गोंड आदिवासी हैं। भूख लगी तो काम खोजा। छोटे-छोटे भाई बहन हैं। क्या करती? राजगांगपुर बाजार में एक घर में बर्तन-बासन का काम करने लगी। जो पैसे मिले उसी से सबको खिलाती थी। लॉकडाउन हुआ तो जहां काम करती थी, उन्होंने आने से मना कर दिया। कोरोना का डर था। फिर खाना मिलना बंद हो गया। लोगों को हमारे बारे में पता चला। चाइल्डलाइन को खबर मिली तो हम सब यहां चले आए।’
बाप सूरत कमाने गया तो लौटा ही नहीं
5 साल की बिरजिनिया और 3 साल के निखिल के बाप सूरत कमाने गए। लौटे ही नहीं। सालभर पहले मां, जलकर मर गई। बच्चों को उम्मीद थी कि लॉकडाउन में पिता लौट आएंगे। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। बच्चे दादी के पास रहते थे। सत्तर साल की दादी को डर सताने लगा कि महामारी में मैं चली गई तो इनका क्या होगा? दादी ने दोनों की परवरिश चाइल्डलाइन को सौंप दी। निखिल और बिरजिनिया भी हमारे सामने ही शेल्टर होम पहुंचे।
दिशा चाइल्डलाइन के सेक्रेटरी अबुल कलाम आजाद बताते हैं कि बच्चे कुछ दिन हमारे पास रहेंगे। आगे इनको हॉस्टल में रहने-पढ़ने का प्रबंध किया जाएगा। हम बच्चों को यहां इसलिए ले आए कि ये ट्रैफिकिंग के शिकार न हो जाएं।
सुंदरगढ़ में 27% बच्चे ट्रैफिकिंग के शिकार
1. ओडिशा एंटी ह्यूमन ट्रैफिकिंग पायलट प्रोजेक्ट की रिपोर्ट कहती है कि सुंदरगढ़ के ग्रामीण इलाकों में 27% बच्चे ट्रैफिकिंग के शिकार हैं। खासकर बच्चियां।
2. इनमें सर्वाधिक 21% ट्रैफिकिंग बलिशंकरा ब्लॉक से होती है। सबडेगा, लेपहरीपाड़ा, कुतरा भी इसकी जद में हैं।
3. रिपोर्ट के मुताबिक बलिशंकरा की 40% बच्चियां तो लौटती ही नहीं हैं। आजाद के मुताबिक जिले में हर महीने सात-आठ बच्चों के गायब होने के मामले दर्ज होते है।
आजाद के मुताबिक लॉकडाउन, अनलॉक और उसके बाद सबसे बड़ा खतरा इसके बढ़ने का है। फिलहाल सुंदरगढ़ से 75 हजार से 1 लाख लड़कियां बाहर भेजी जाएंगी। हर साल हम 30-35 बच्चियों को रेस्क्यू करते हैं।
कहां जाती हैं ये बच्चियां?
1. बच्चियां केरल के टेक्सटाइल, इलायची व गोलमिर्च के बगानों में काम करने ले जाई जाती हैं।
2. सूरत में 10-12 श्रमिकों की टोली एक लड़की को खाना पकाने के लिए ले जाती है। श्रमिक उसे ‘भाउजो'(भाभी) कहते हैं।
3. राजस्थान और हरियाणा के लोग तो शादी की नीयत से यहां से बच्चियां ले जाते हैं। लाठीकाटा ब्लॉक की एक बच्ची संध्या (परिवर्तित नाम) को काम दिलाने के नाम पर राजस्थान में बेच दिया गया। तब वह 14 साल की थी। पांच दिसंबर 2017 को गायब हुई थी। इसमें संध्या के रिश्तेदारों का ही हाथ था। हम उसे ले आए। 17 साल की संध्या एक बच्चे की मां है। बिनब्याही। आज संध्या अपने पिता के पास है।