30 साल पहले बेटे के साथ एक रात कश्मीर छोड़कर आए थे; कल रात दोबारा वापस आना पड़ा, इस बार साथ बेटे का शव था

Posted By: Himmat Jaithwar
6/10/2020

जम्मू. अनंतनाग के डूरू लकबावन गांव के रहने वाले द्वारका नाथ पंडित जीवन के सबसे कठिन सफर के बाद मंगलवार सुबह जम्मू पहुंचे। वे रिटायर्ड शिक्षक हैं और 30 साल पहले इसी गांव से एक मनहूस रात अपनी पूरी गृहस्थी लेकर जम्मू आ गए थे।
फर्क ये था कि 30 साल पहले उनका बेटा भी साथ था। सोमवार की शाम जब उन्होंने अपना सामान पैक किया तो सबकुछ एक सूटकेस में था और साथ आ रहा था बेटे का शव। उनका बेटा अजय पंडिता इसी गांव का सरपंच था।

जिनकी सोमवार शाम आंतकियों ने हत्या कर दी थी। घर से 50 मीटर की दूरी पर थे अजय जब पीछे से गोली मारी गई। वरना कुछ देर पहले ही तो दोनों साथ अपने सेब के बाग में गए थे।  

मंगलवार सुबह अजय पंडिता का अंतिम संस्कार किया गया।

द्वारका कहते हैं, ‘देर शाम कोई घर पर आया और अजय से कहा कि उसे एक फॉर्म पर उनकी सिग्नेचर की जरूरत है। वे जैसे ही घर से बाहर निकला, थोड़ी दूर चला ही था कि किसी ने उनके सिर पर पीछे गोली मारी। हम तुरंत अस्पताल ले गए लेकिन वे बच नहीं सके।’


पंडिता कहते हैं, "जहां पैदा हुआ उस गांव लौटने के बाद अजय ने कड़ी मेहनत की ताकि सबकुछ फिर से ठीक हो सके। मेरा बेटा देशभक्त था। अपनी मातृभूमि से प्यार करता था। जम्मू में लगभग सात साल बिताने के बाद, हम 1996-97 में कश्मीर घाटी लौटे थे।’

परिवार के करीबी सदस्यों के मुताबिक, ये परिवार 1992 में कश्मीर लौट आया था। पहले किराए पर रहने लगे और 1996 में फिर से घर बनाया और गांव लौट गए।

यही परिवार था जिसने 1986 में इलाके में हुआ सांप्रदायिक दंगा झेला था। इलाके के कई मंदिरों को उस दंगे में तोड़फोड़ डाला था। द्वारिका कहते थे उन्हें कोई मदद भी नहीं मिली थी। और तब उनके बेटे अजय ने ही बैंक से लोन लिया और आतंकवाद में बर्बाद अपने बाग और घर को दोबारा आबाद किया था।

मंगलवार को जब बेटे का अंतिम संस्कार कर लौटे तो जम्मू के सुभाषनगर में अपने नजदीकियों के साथ बैठे वो बार-बार अजय की बातें याद कर रहे हैं। कहने लगे, मैंने मना किया था उसे लेकिन वो नहीं माना। बोला कि वह किसी से डरता नहीं है। कहने लगा जब सेना के जवान ड्यूटी कर रहे हैं तो हमें क्यों यहां से भागना चाहिए। यहीं जीऊंगा और यहीं मरूंगा।

द्वारका नाथ कहते हैं, मेरा बेटा मरा नहीं है, वो तो शहीद हुआ है अपनी मातृभूमि के लिए। गांव के सब लोग उसे पसंद करते थे। जब उसने चुनाव लड़ा तो लोग पैदल चलकर उसे वोट देने निकले थे। उसका तो कोई दुश्मन भी नहीं था। वो रोते हुए किसी का नाम लेते हैं और कहते हैं, मेरे शेर को वो ही लोग ले गए।  

कश्मीरी मुसलमानो के सहयोग को लेकर उनका कहना है कि बहुत कम कट्‌टरपंथी हैं जो चाहते हैं कि कश्मीरी पंडित वापस कश्मीर घाटी में नहीं लौटे। वे उस समय भी हमारे खिलाफ थे और अब भी हैं। लेकिन अधिकांश लोग चाहते हैं कि कश्मीरी पंडित वापस लौटें और अपने घरों में रहें।

अजय के पिता के मुताबिक वो कश्मीर लौटकर अपने बेटे का सपना पूरा करना चाहते हैं। कहते हैं मुझे वापस जाने में कोई हिचक नहीं है। बस अफसोस है कि मेरे बेटे को पीछे से गोली मारी गई।

पिता अजय पंडिता की अंतिम यात्रा के दौरान उनकी बेटी बदहवास हो गईं। जिसके बाद वहां मौजूद लोगों ने उन्हें संभाला। 

द्वारका नाथ के मुताबिक जिसने उसे गोली मारी उसे भी अजय से डर लगता था इसलिए पीछे से मारी। अजय के परिवार में उनके माता- पिता, पत्नी और दो बेटियां हैं। अजय पंडित सक्रिय राजनीतिक कार्यकर्ता थे। उन्होंने पिछले साल बीजेपी के उम्मीदवार को हराकर सरपंच का चुनाव जीता था। वे पिछले कुछ सालों से सुरक्षा की मांग भी कर रहे थे लेकिन उस पर ध्यान नहीं दिया गया।

जम्मू में 3 दिसंबर, 2019 को एक लोकल न्यूज़ पोर्टल को दिए इंटरव्यू में अजय पंडिता ने कहा था कि सरकारी मशीनरी जमीन स्तर पर चुने गए कार्यकर्ताओं के साथ बुरा व्यवहार करती है। सरकार उनका इस्तेमाल तो कर रही है लेकिन कोई सहयोग नहीं कर रही है।

इसी इंटरव्यू में वो बोले थे कि जब बैक टू विलेज कार्यक्रम के दौरान अनंतनाग के गांव हाकुरा में एक ग्रेनेड हमले में एक सरकारी कर्मचारी और सरपंच की मौत हो गई, तो सरकारी कर्मचारी के लिए 30 लाख का मुआवजा दिया गया, लेकिन शहीद सरपंच के बारे में एक शब्द भी नहीं कहा गया।

वो ये भी बोले थे कि, जब मैंने सुरक्षा के लिए कश्मीर घाटी में कमिश्नर से संपर्क किया था, तो उन्होंने मेरे पत्र को डिप्टी कमिश्नर अनंतनाग के कार्यालय में भेज दिया। अनंतनाग में जब मैंने उनसे अपने आवेदन की स्थिति जानने के लिए संपर्क किया, तो कहा गया कि जब आप यहां की सुरक्षा के बारे में जानते थे तो चुनाव क्यों लड़े? अजय ने ये भी कहा था कि नए उपराज्यपाल जीसी मुर्मू को जमीनी हकीकत की जानकारी नहीं है।



Log In Your Account