भोपाल.
जो ट्रेन पहले यात्रियों से ठसाठस भरी होती थी। जिसके जनरल कोच में सांस लेना भी दूभर हो जाता था और वेटिंग और आरएसी के लिए भी लंबी लाइन लगती थी, वही शान-ए-भोपाल एक्सप्रेस, हबीबगंज से हजरत निजामुद्दीन, सोमवार को जब हबीबगंज से निकली तो 50% खाली रही।
ट्रेन में सफाई तो खूब थी लेकिन लोगों की रौनक नहीं थी। जगह-जगह डस्टबिन रखे थे। लेकिन उनमें कचरा नहीं था। हर दूसरी सीट खाली पड़ी थी। कुछ केबिन तो पूरे के पूरे खाली थे। जो यात्री सफर कर रहे थे वो भारी दहशत में थे। चेहरे पर मास्क था। साथ में हैंड सैनिटाइजर था। बार-बार यात्री हाथों को सैनिटाइज कर रहे थे।
ट्रेन में इतना सूनापन था कि लोग आपस में भी बातचीत करने से बच रहे थे। एसी के बजाय स्लीपर कोच में फिर भी थोड़ी रौनक थी, लेकिन वहां भी तमाम सीटें खाली पड़ी थीं और लोग एक-दूसरे से बचते नजर आ रहे थे।
खिड़कियों से निकले पर्दे, हेल्पर पीपीई किट में मुस्तैद रहे ट्रेन के एसी कोच में पहले जो पर्दे लगे नजर आते थे, उन्हें कोरोना के कारण हटा दिया गया है। एक भी अटेंडर नहीं है, क्योंकि बेडरोल की सुविधा रेलवे दे ही नहीं रहा। हेल्पर पीपीई किट पहने नजर आए। यही लोग ट्रेन में पानी से लेकर एसी मेंटेन करने तक का काम करते हैं।
पीपीई किट पहने दिखे मैकेनिक सुनील कुमार ने बताया कि आज हमारा कुल पांच लोगों का स्टाफ ट्रेन में है। इसमें 3 हेल्पर हैं और दो मैकेनिक। किट पहली बार पहनी है, तो घबराहट हो रही है। पूरा पसीने से भीग चुका हूं लेकिन कोरोना का डर इतना है कि किट की चेन खोलने की हिम्मत भी नहीं हो रही।
सुनील ने यह भी बताया कि हम लोगों ने एसी का टेम्परेचर भी 25° पर सेट किया है, हालांकि यदि कहीं से डिमांड आएगी तो कम कर देंगे। लेकिन हमें बताया गया है कि इतना ही टेम्परेचर रखें। आप ड्यूटी कर रहे हैं तो घरवाले चिंता में हैं? ये पूछने पर बोले कि साहब मेरी पत्नी और तीन बच्चे हैं। सब इसी चिंता में हैं कि कोरोना न हो जाए। हालांकि, ड्यूटी तो करनी ही है, इसलिए पीपीई के साथ मैदान में जुट गए हैं।
सुनील के साथी हेल्पर हरी सिंह ने बताया कि पहली बार अगले दिन का खाना लेकर भी हम चल रहे हैं। पानी भी पांच-पांच लीटर रख लिया है, ताकि बाहर से भरने की नौबत न आए। सुनील की बेटी महज दो साल की है। जो उत्तरप्रदेश के उरई में अपनी मां के साथ फंसी है।
सुनील बोले, लॉकडाउन की वजह से परिवार आ नहीं पाया। आज से मेरी ड्यूटी शुरू हुई तो मम्मी ने खाना बनाकर दिया। बाहर का नहीं खाना, इसलिए कल तक का रख लिया। हेल्पर शशिकांत सिंह कहते हैं, बहुत गर्मी है, इसलिए खाने के लिए सब सूखे आइटम रखे हैं, ताकि कल रात तक खराब न हों।
8 के बजाए 3 ही टीटीई, स्लीपर में कोई नहीं
ट्रेन में 8 के बजाए 3 ही टीटीई थे। स्लीपर में कोई टीटीई नहीं था। पिछले दस साल शान-ए-भोपाल में ही ड्यूटी कर रहे टीटीई जगदीश पाठक बोले कि बहुत सा स्टाफ स्टेशन पर लगाया गया है। टिकट चेकिंग और यात्रियों के नाम, नंबर वहीं दर्ज किए जा रहे हैं इस कारण भी ट्रेन में टीटीई कम हैं।
50 साल से ज्यादा उम्र वाला स्टाफ भी अधिकतर स्टेशनों पर तैनात है। पाठक कहते हैं कि मैंने जिंदगी में पहली दफा शान-ए-भोपाल का ये हाल देखा। जिस ट्रेन में पैर रखने की जगह नहीं होती थी, जो सर्दी, गर्मी और ठंड में एक जैसी भरी चलती थी वो आज 50% ही भरी है। पाठक हंसते हुए बोले, ऐसा लग रहा है कि ट्रेन में बस हम ही सफर कर रहे हैं।
टीटीई नितिन कुमार सिंह कहते हैं, कोरोना का डर तो है लेकिन अब सोच लिया जो होगा वो होगा। बोले, मास्क और फेस शील्ड पहनने से सांस लेने में थोड़ी दिक्कत हो रही है लेकिन अभी रिस्क नहीं ले सकते। नितिन की चार साल की बेटी है। पिछले करीब चार साल से ही इस ट्रेन में चल रहे हैं। बोले, यह ट्रेन आईएसओ सर्टिफाइड है, यहां हर सुविधा उच्च स्तर की है, फिर भी ट्रेन खाली पड़ी है।
मैंने पहली बार अपनी जिंदगी में ऐसा देखा। बोले यह कोरोना से पैदा हुए डर के कारण है। शान-ए-भोपाल में पहली बार एलएचबी कोच लगाए गए हैं। इन कोचों में सीट ज्यादा हैं। ये आरामदायक
ज्यादा हैं और जगह भी इनमें पुराने कोच की अपेक्षा ज्यादा है। एलएचबी के स्लीपर कोच में 72 की जगह 80, थर्ड एसी में 64 की जगह 72, सेकंड एसी में 46 की जगह 52 सीटें हो गईं।
दो महीने से पत्नी से दूर था, ट्रेन शुरू होते ही रिजर्वेशन करवाया
हबीबगंज से हम सेकंड क्लास में चढ़े। एन-1 कोच की अपनी चार नंबर सीट पहुंचे तो सामने 1 नंबर सीट राहुल आनंद बैठे थे। वे पीएनबी से चीफ मैनेजर के पद से रिटायर हुए हैं। परिचय के बाद बातचीत शुरू हुई तो उन्होंने बताया कि मेरी पत्नी आगरा में हैं। लॉकडाउन के चलते दो माह से मैं भोपाल में फंसा था।
ट्रेन शुरू होने का इंतजार ही कर रहा था। जैसे ही रिजर्वेशन मिलना शुरू हुए, उसके दूसरे ही दिन अपनी सीट बुक कर ली। बोले, शादी के बाद पहली दफा ऐसा हुआ कि पत्नी से इतने दिनों तक दूर रहा। बीते दो महीने में खाना बनाना तक सीख गया। ट्रेन में जाने में डर नहीं लग रहा? इस पर कहा कि डर तो है, लेकिन परिवार के पास पहुंचना ज्यादा जरूरी है।
यहां से हम स्लीपर कोच की तरफ घूमते हुए गए तो अभय ठाकुर मिले। पूछा कहां जा रहे हो तो बोले दो महीने की बच्ची है। एम्स में ट्रीटमेंट करवाना है। बहुत जरूरी है। इसलिए पत्नी और बच्ची को लेकर दिल्ली जा रहा हूं। ई-पास भी बनवा लिया था, ताकि वहां जाकर कोई दिक्कत न आए। ट्रेन में कई महिलाएं छोटे बच्चों के साथ नजर आईं। एक ट्रांसजेंडर ने भी हबीबगंज से निजामुद्दीन का सफर किया।