आश्चर्य से भर देती है संस्कृति के वाहक आदि शंकराचार्य की वह अद्भुत यात्रा

Posted By: Himmat Jaithwar
4/28/2020

सनातन धर्म-संस्कृति में नवप्राण फूंककर आदि शंकराचार्य (788-820 ईसवी) ने जो महान योगदान दिया, वह भारतीय चेतना की महा धारा को प्रवाहपूर्ण बनाए हुए है। उनके द्वारा स्थापित चार मठ या धाम हों या द्वादश ज्योतिर्लिंग और पंच प्रयाग, या फिर उनका विराट दर्शन और साहित्य, 32 वर्ष की अल्पायु में महावतारी युगपुरुष ने जो पुरुषार्थ किया, वह समूची संस्कृति का वाहक बन गया।

राजनीतिक ताने-बाने को अपने तरह से गढ़ने में सफल: आज से 12 सदी पहले की कठिन भौगोलिक परिस्थितियों में, जब आवागमन तक आसान न था, केरल के कालड़ी (जन्मस्थान) से शुरू कर संपूर्ण भारत की पदयात्रा, जिसमें बदरी और केदार जैसे उच्च पर्वतीय क्षेत्र भी सम्मिलित हैं, आसान कार्य न था। वर्तमान समय के धुरंधर ट्रैकर भी उस यात्रा को आश्चर्य करार देते हैं। वह महायात्रा, जिसे दिग्विजय भी कहा गया है, उन्होंने भारतीय धर्म-दर्शनअध्यात्म को नई ऊर्जा से भर देने के उद्देश्य से ही पूर्ण की थी। यह वह काल था जब भारत में बौद्ध-जैन सहित अनेक मत-पंथ चरम पर पहुंचकर सनातन धर्म को चुनौती दे चुके थे, राजाश्रय प्राप्त कर सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक ताने-बाने को अपने तरह से गढ़ने में सफल हो गए थे।


आदि शंकराचार्य का दिग्विजय पथ। सौ. कांची कामकोटि

उधर, पश्चिचमोत्तर भारत में इस्लाम काबिज हो चुका था। अरब सिपहसालार मुहम्मद बिन कासिम ने 712 ईसवी में सिंध और पंजाब इलाकों पर कब्जा कर लिया था। राजनीतिक तौर पर भारत विभिन्न छोटे-बड़े राज्यों में बंटा हुआ था। वैचारिक-धार्मिक-सामाजिक मतभेद भी चरम पर थे। ऐसे में महज छह वर्ष की आयु में वैदिक ज्ञान में पारंगत हो चुके शंकर ने संन्यास की राह चुनी और 32 की आयु में समाधिस्थ होने तक भारत वर्ष का कोना-कोना लांघ लिया। जहां-जहां गए सनातन धर्म-संस्कृति के आड़े आ रही चुनौतियों को दूर करने का जतन करते हुए आगे बढ़े।

विभिन्न मतों से मिल रही चुनौती को उन्होंने अद्वैत से परास्त किया। आदि शंकराचार्य को अद्वैत का प्रवर्तक माना जाता है। उनका कहना था कि आत्मा और परमात्मा एक ही हैं। हमें अज्ञानता के कारण ही दोनों भिन्न प्रतीत होते हैं। उन्होंने इन शिक्षाओं को सतत बनाए रखने को चारों दिशाओं में पीठ स्थापित किए। उत्तर में बदरिकाश्रम में ज्योतिर्पीठ, पश्चिम में द्वारिकाशारदा पीठ, दक्षिण में शृंगेरी पीठ और पूर्व में जगन्नाथपुरीगोवर्द्धन पीठ। गढ़वाल केंद्रीय विश्वविद्यालय श्रीनगर से सेवानिवृत्त प्रख्यात इतिहासकार डॉ. शिव प्रसाद नैथानी ने आद्य शंकराचार्य की बदरिकाश्रम क्षेत्र की यात्रा पर काफी अध्ययन किया है। अपने शोध में वह कहते हैं कि शंकराचार्य आठवीं सदी के आखिर में (करीब 12 वर्ष की आयु में) काशी से धर्म प्रचार करते हुए हरिद्वार पहुंचे थे। यहां गंगा तट पर पूजा-अर्चना कर उन्होंने ऋषिकेश स्थित भरत मंदिर के गर्भगृह में भगवान विष्णु का शालिग्राम विग्रह स्थापित किया। मंदिर में रखा गया श्रीयंत्र आज भी शंकराचार्य के ऋषिकेश आगमन की गवाही देता है।

केदारनाथ में हो रहा आदि शंकराचार्य की समाधि का पुनर्निर्माण। सौ. वुड स्टोन कंस्ट्रक्शन कंपनी

ऋषिकेश के आसपास घाटी क्षेत्र होने के कारण तब गंगा को पार करना आसान नहीं था और गंगा पार किए बिना आगे भी नहीं बढ़ा जा सकता था। सो, शंकराचार्य ने इसके लिए अलग राह चुनी और ऋषिकेश से 35 किमी दूर व्यासघाट (व्यासचट्टी) में गंगा पार कर ब्रह्मपुर (वर्तमान में बछेलीखाल के नीचे स्थित मैदान) पहुंचे। यहां से आज भी तैरकर नदी को पार किया जा सकता है। बताते हैं कि ब्रह्मपुर से देवप्रयाग पहुंचकर संगम पर उन्होंने स्तवन रचना (गंगा स्तुति) की और फिर श्रीक्षेत्र श्रीनगर (गढ़वाल) की ओर बढ़ गए। फिर अलकनंदा नदी के दायें तट मार्ग से रुद्रप्रयाग व कर्णप्रयाग होते हुए नंदप्रयाग पहुंचे। डॉ. नैथानी के अनुसार यहां से शंकराचार्य जोशीमठ पहुंचे और वहां कल्प वृक्ष के नीचे साधना में लीन में हो गए। जोशीमठ में ज्योतिर्मठ पीठ की स्थापना के उपरांत वह बदरीनाथ पहुंचे। यहां उन्होंने न केवल बदरीनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार किया, बल्कि भगवान विष्णु की चतुर्भज मूर्ति को नारंद कुंड से निकालकर मंदिर के गर्भगृह में स्थापित किया।

ज्योतिर्मठ (जोशीमठ) में आज भी वह कल्प वृक्ष मौजूद: बदरिकाश्रम में ही शंकराचार्य ने ब्रह्मसूत्र पर शांकर भाष्य की रचना कर भारत भूमि को एक सूत्र में बांधने का प्रयास किया। इसके बाद शंकराचार्य केदारनाथ पहुंचे।यहां उन्होंने समाधि ली थी। ज्योतिर्मठ (जोशीमठ) में आज भी वह कल्प वृक्ष मौजूद है, जिसके नीचे आद्य शंकराचार्य ने तप किया था। वनस्पति विज्ञानी शहतूत के इस पेड़ की उम्र ढाई हजार साल बताते हैं जबकि शहतूत के पेड़ की औसत आयु 15 से 20 साल होती है। वर्ष 2013 में केदारनाथ त्रासदी के दौरान आद्य शंकराचार्य का समाधि स्थल बाढ़ में बह गया था, जिसका अब भूमिगत निर्माण किया जा रहा है।

बछेंद्री पाल बोलीं, आद्य शंकराचार्य थे महान अन्वेषण ट्रैकर: भारत की पहली एवरेस्ट विजेता महिला पद्मभूषण बछेंद्री पाल कहती हैं कि आद्य शंकराचार्य पर्वतारोहियों के प्रेरणास्नोत हैं। 1200 साल पहले उन्होंने किस तरह से पग-पग नापा होगा, रहने-खाने के इंतजाम कैसे किए होंगे, इसकी तो कल्पना भी नहीं कर सकते। शंकराचार्य छोटी उम्र में ही भ्रमण पर निकल गए थे। समुद्र के किनारे से लेकर हिमालय तक की ट्रैकिंग में घने जंगल, पठार, नदी, तालाब, धूप, बारिश, बदलते मौसम और हिमालय की विकटता को झेला होगा। समुद्र किनारे चलते हुए निचले भागों का और फिर नदी के किनारे चलते हुए हिमालय तक का अन्वेषण भ्रमण उन्होंने किया, जो आज भी बहुत चुनौतीपूर्ण कार्य है। 






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