नई दिल्ली. कोरोना से प्रभावित दुनिया के तमाम देशों की तुलना में भारत में अब तक इस महामारी के प्रभाव काफी हद तक नियंत्रित है। एक तरफ जहां वे विकसित देश भी इस महामारी से हांफते नजर आ रहे हैं जिनकी स्वास्थ्य सेवाएं पूरी दुनिया में अव्वल हैं, वहीं दूसरी तरफ भारत ने अपनी सीमित संसाधनों वाली स्वास्थ्य व्यवस्था के बावजूद भी महामारी को विकराल होने से रोके रखा है। हमारे डॉक्टर ‘कोरोना वॉरियर्स’ बनकर पूरी ताकत झोंके हुए हैं। लेकिन हमारी पूरी स्वास्थ्य व्यवस्था कोरोना से निपटने में इस कदर खप रही है कि अन्य गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं से पीड़ित लोगों के लिए मुश्किलें बढ़ने लगी हैं। ऐसे लोगों की संख्या बहुत ज्यादा है, जिनके लिए उनके मौजूदा रोग ही कोरोना से ज्यादा जानलेवा हैं। इससे होने वाला नुकसान कोरोना से होने वाले संभावित नुकसान से भी बड़ा हो सकता है। आपबीती ऐसे ही कुछ लोगों की -
मृत्युंजय तिवारी की उम्र 71 साल है। वे पूर्व सैनिक हैं और बिहार के भभुआ में रहते हैं। सेना में रहते हुए वे 1971 का भारत-पाक युद्ध भी लड़ चुके हैं और सालों तक कश्मीर घाटी में आतंकियों से लोहा भी लेते रहे हैं। लेकिन उनके जीवन पर ऐसा संकट कभी सेना में रहते हुए भी नहीं आया था जैसा इन दिनों स्वास्थ्य व्यवस्था के चरमराने से आ खड़ा हुआ है।
बीती आठ तारीख को मृत्युंजय अपने घर के बाहर टहल रहे थे, तभी एक बाइक सवार ने उन्हें टक्कर मारकर गंभीर रूप से घायल कर दिया। परिजन तुरंत ही उन्हें जिला अस्पताल लेकर पहुंचे। अस्पताल प्रशासन ने डॉक्टरों और संसाधनों की कमी का हवाला देते हुए उन्हें बनारस के ट्रॉमा सेंटर जाने को कहा। बीएचयू का यह ट्रॉमा सेंटर बिहार-उत्तर प्रदेश बॉर्डर के इस इलाके के सबसे बड़े अस्पतालों में से एक है।
मृत्युंजय के बेटे प्रमोद तिवारी बताते हैं, ‘ट्रॉमा सेंटर वालों ने पिता जी का प्राथमिक उपचार और एक्स-रे जैसी कुछ जांच तो की लेकिन फिर भर्ती करने और इलाज करने में असमर्थता जता दी। उन्होंने कहा कि कोरोना के चलते इस वक्त यहां इनका इलाज होना मुमकिन नहीं है।’
फिर मृत्युंजय के परिजन उन्हें लेकर हैरिटेज हॉस्पिटल पहुंचे। ये बनारस का एक बड़ा प्राइवेट हॉस्पिटल है। प्रमोद कहते हैं, ‘पिता जी के साथ मेरी माताजी और चाचा हॉस्पिटल गए थे। वहां उनसे पूछा गया कि क्या उनमें से कोई हाल-फिलहाल में विदेश से तो नहीं लौटा है? चाचा पिछले महीने विदेश से लौटे थे।’
प्रमोद आगे कहते हैं, ‘चाचा ने अस्पताल प्रशासन को बताया कि वे विदेश से लौटे हैं, लेकिन इसकी जानकारी स्थानीय प्रशासन को भी है और वे 20 दिनों तक क्वारैंटाइन भी रह चुके हैं। उन्होंने यह भी बताया कि इस पूरे दौरान उन्हें कोरोना के कोई लक्षण नहीं रहे हैं। लेकिन विदेश की बात सुनते ही अस्पताल प्रशासन ने पिता जी को एडमिट करने से साफ इनकार कर दिया। वे लोग चाचा से उनका पासपोर्ट मांगने लगे।
वहां पिताजी स्ट्रेचर पर थे, पैर की हड्डी कई जगह से टूट चुकी थी लेकिन अस्पताल प्रशासन उन्हें ऐसा ही छोड़कर चाचा के पासपोर्ट पर बहस कर रहा था। चाचा ने कहा भी कि वे पासपोर्ट ले आएंगे लेकिन 90 किलोमीटर दूर से पासपोर्ट लाने या मंगाने में समय लगेगा लेकिन अस्पताल नहीं माना।’
आखिरकार एक अन्य प्राइवेट हॉस्पिटल मृत्युंजय तिवारी को भर्ती करने को तैयार हुआ, जहां वे अब भी आईसीयू में संघर्ष कर रहे हैं। इस हॉस्पिटल में दाखिल करने के कुछ घंटों के भीतर ही करीब 25 हजार रुपए की दवाएं और सात हजार रुपए आईसीयू चार्ज वो चुका चुके हैं।
इसके अलावा आम दिनों में डॉक्टर विजिट की जो फीस एक हजार रुपए तक होती है, वो इन दिनों पांच से दस हजार रुपए ली जा रही है और इसके बाद भी पक्का नहीं है कि डॉक्टर आए ही। प्रमोद बताते हैं, 'पिताजी का स्वास्थ्य बीमा है लेकिन वो भी अब किसी काम का नहीं क्योंकि ये अस्पताल बीमा कंपनी के पैनल में नहीं है। हैरिटेज हॉस्पिटल पैनल में था तो उसने पिताजी को भर्ती ही नहीं किया।'
बीएचयू ट्रॉमा सेंटर में ही आम दिनों में करीब सात-आठ हजार मरीज रोज आते हैं। ये सभी वो लोग होते हैं, जो अलग-अलग जिलों से हताश होकर यहां सही ईलाज मिल पाने की उम्मीद में पहुंचते हैं। यानी लगभग सभी गम्भीर मामले आते हैं।
मध्य प्रदेश के स्वास्थ्य विभाग से जुड़े एक अधिकारी नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, ‘कोरोना से लड़ने के लिए पूरे देश में स्वास्थ्य विभाग युद्ध स्तर पर काम कर रहा है। लेकिन बावजूद इसके महामारी के चलते वे लोग परेशानी में आ गए हैं जो अन्य गंभीर बीमारियों से ग्रसित हैं। प्राइवेट क्लिनिक बंद पड़े हैं, दवाओं की आपूर्ति नहीं हो रही है और हृदय रोग से लेकर कैन्सर जैसी गम्भीर बीमारियों तक पर इस वक्त ध्यान देने के लिए कोई व्यवस्था नहीं है।'
इलाहाबाद में रहने वाले सुनीत मिश्र के पिता को ब्लड कैंसर है और पिछले तीन साल से उनका इलाज चल रहा है। सुनीत बताते हैं, ‘डॉक्टर ने पिता जी को जो दवा नियमित खाने को कहा है वो आम दिनों में भी बाजार में नहीं मिलती। अस्पताल ने ही हमें एक एजेंट का नम्बर दिया था, जिससे वो दवा हमें मिलती है। करीब आठ हजार रुपए में सिर्फ 21 दिनों की दवा आती है।'
सुनीत आगे कहते हैं, ‘इस बार एजेंट ने हमें कहा कि दवा इलाहबाद में नहीं है लखनऊ से लेनी होगी। मेरा भाई बाइक से लखनऊ गया, लेकिन वहां जाकर पता चला कि दवा वहां भी खत्म हो चुकी है। ये भी नहीं पता कि दवा कब आएगी।'
दिल्ली के लाजपत नगर में रहने वाले लोकेश बहल का 6 साल का बेटा आरव बीती 1 तारीख को घर पर खेलते हुए गिर पड़ा जिसके चलते उसके सिर में चोट आई। आस-पास के तमाम क्लिनिक और डिस्पेंसरी बंद थे। एक क्लिनिक खुली थी, वहां मौजूद डॉक्टर ने लोकेश से सात सौ रुपए फीस के लिए और दवा लिखने के साथ उन्हें किसी अन्य हॉस्पिटल जाकर बच्चे को टांके लगवाने को कह दिया। फिर लोकेश अपने बेटे को लेकर मूलचंद हॉस्पिटल गए। यहां सिर्फ दो टांके लगवाने के लिए उन्हें 4,150 रुपए चुकाने पड़े।