भोपाल। मध्यप्रदेश और खास कर भोपाल की साहित्यिक-सामाजिक बिरादरी के अत्यंत सक्रिय कवि-संपादक महेंद्र गगन का आज सुबह निधन हो गया। 4 अक्टूबर 1953 को जन्में महेंद्र गगन तीन दशक से अधिक समय से पाक्षिक 'पहले-पहल' का संपादन-प्रकाशन कर रहे थे।
उन्होंने अनेक महत्वपूर्ण पुस्तकों को प्रकाशित भी किया था। उनके दो कविता संग्रह भी प्रकाशित थे। पत्रकारिता और कविता के लिए वे पुरस्कृत भी किये गये थे। साहित्य और संगीत में गहरी दिलचस्पी रखने वाले महेंद्र भाई यारबाज थे। विविध राजनीतिक विचारों वाले लोगों से उनकी नजदीकी दोस्ती थी। वे शुरुआत से ही जनवादी लेखक संघ के साथ रहे। जनवादी लेखक संघ मध्यप्रदेश के अध्यक्ष राजेश जोशी और सचिव मनोज कुलकर्णी अपने आत्मीय कवि साथी को विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित की है।
महेंद्र गगन के मित्र कवि ध्रुव शुक्ल ने बताया कि 'मिट्टी जो कम पड़ गयी'- महेन्द्र गगन की पहली कविता की किताब का नाम मैंने ही रखा था। इस कोरोना काल में उससे बिछुड़ते हुए मन में बसी रह गयीं उसकी कुछ कविता पंक्तियाँ मुझे उसकी आहट-सी सुनायी पड़ रही हैं। महेन्द्र मेरा पहला दोस्त हुआ जब 1981 में भोपाल आकर मुझे संस्कृति विभाग से जुड़ने का अवसर मिला। राजनेता अर्जुन सिंह और कवि-संस्कृतिकर्मी अशोक वाजपेयी के आह्वान पर देश के हृदयप्रदेश में भोपाल शहर भारत के साहित्य और कलाओं की राजधानी के रूप में गढ़ा जा रहा था।
महेन्द्र गगन ने इस आंदोलन से केवल व्यावसायिक नहीं, रचनात्मक संबंध भी बनाये और अपने आपको ढाला लेखकों-कलाकारों के बीच महेन्द्र गगन की आत्मीयता अलग पहचानी जाती रही। चित्रकार जगदीश स्वामीनाथन, रंगकर्मी ब.व. कारंत और अशोक वाजपेयी का वह स्नेहपात्र बना। उसी समय उसने साहित्य-संस्कृति को समर्पित 'पहले पहल' अखबार के प्रकाशन की योजना बनायी। यह नामकरण भी मेरे जिम्मे आया। अखबार का विमोचन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह और पत्रकार राहुल बारपुते ने रवीन्द्र भवन में किया। राहुल जी ने उस समय कहा कि संस्कृति पर केंद्रित अखबार आज के विचार शून्य राजनीतिक समय में निकालना कठिन होगा। पर महेन्द्र गगन ने ज़िद ठानकर करीब चालीस साल तक अपने अखबार में साहित्य और संस्कृति को भरपूर जगह दी।
रामचरितमनस पर आधारित मेरी 'जल सत्याग्रह' प्रवचनमाला का वह प्रायोजक भी बना। मेरी अनेक लघु पुस्तकों को यथासमय महेन्द्र ने प्रकाशित किया और उनका प्रसार भी। जब मैं साठ बरस का होने लगा तो उसी की आत्मीय पहल पर मेरे 'षष्टि प्रवेश' की एक यादगार पुस्तक छपी। उसकी भूमिका महेन्द्र गगन ने ही लिखी है। उसके साथ मारिशस और गोवा द्वीप की यात्रायें कभी बिसरायी नहीं जा सकतीं। हम दोनों एक-दूसरे को इतना पहचानते लगे कि असहमति के बावजूद हमारी मैत्री कभी नहीं टूटी। महेन्द्र की आत्मीयता के विस्तार में केवल मुझे ही नहीं, मेरे परिवार के लोगों को भी जगह मिली। भोपाल शहर के साहित्य,पत्रकारिता और कला के क्षेत्र में महेन्द्र की उपस्थिति हर कोई महसूस करता रहा है। वह अक्सर किसी का लिखा एक शेर दुहराता था इतने हिस्सों में बंट गया हूं मैं, मेरे हिस्से में कुछ रहा ही नहीं। वह अपने आपको संकोचवश छिपाता बहुत था। कविताएं लिखता तो मुझे संकोच से सुनाता। जिन कविताओं को मैं पसंद नहीं करता वह उन्हें छिपा देता। सार्वजनिक कविता पाठ में भी वह संकोची ही बना रहा। पर उसके अनेक मित्रों ने उसकी कवि-संभावना को अत्यंत आदर दिया।
मैं उससे बिछुड़ने की व्यथा का भार कैसे उठा पाऊंगा। महेन्द्र गगन की कविता को याद करते हुए सोच रहा हूं कि मेरी स्मृति के पास कौन-सा अनुभव और कौन-सा शब्द है जो मेरे मन के आकाश से महेन्द्र गगन को ओझल नहीं होने दे रहा।