श्याम मुंशी का उर्दू में संचालन सुनकर अभिनेता ओमपुरी उठे, उन्हें गले लगा लिया और कहा था कि आपकी जबान से उर्दू कितनी खूबसरत लगती है, जनाब आपकी जगह तो बंबई में है...

Posted By: Himmat Jaithwar
4/28/2021

भोपाल। जिंदगी की धूप-छाई डगर पार करते हुए अगला लम्हा कौन सा हमारे हिस्से आएगा ये जानना तो बहुत मुश्किल बात है। लेकिन कुछ लोग ऐसे होते हैं जो जिंदगी के इस रास्ते पर अपने कदमों को ऐसे निशान छोड़ जाते हैं। जिन्हें छूकर उनकी जिंदगी के अफसानों को और उनकी शख्सियत के पोशीदा रंगों को ठीक से पहचाना जा सकता है। श्याम मुंशी का किरदार भी कुछ ऐसा ही था। ये किसे मालूम था कि अपनी किताब 'सिर्फ नक्शे कदम रहे गए' का शीर्षक गढ़ते हुए एक दिन वो खुद इस शीर्षक के पर्याय बन जाएंगे। श्याम मुंशी की यादें भोपालवासियों के सीने में कुछ इसी तरह नक्शे कदम छोड़ती हुई आज भी धड़क रही हैं। ये सुर्खी आज भी देशभर में उनके कद्रदानों के लिए निश्चित रुप से एक आंसू की शक्ल के रुप में बाकी रह गई है। चिरायु अस्पताल भोपाल में कोरोना से जंग लड़ते हुए 78 वर्षीय श्याम मुंशी मंगलवार दिन में इसी फानी दुनिया को अलविदा कह गए। उनकी जाने से देशभर के संगीत, साहित्य और कला जगत में गम का माहौल है। श्याम मुंशी का अंतिम संस्कार कोविड के प्रोटोकाल के साथ बुधवार को किया जाएगा। साहित्यकार, संगीतसेवी, रंगकर्मी, इतिहासकार, लतीफ सारंग वाद्ययंत्र के इजादकर्ता, उर्दू, फारसी भाषाओं के जानकार श्याम मुंशी की जिंदगी और शख्सियत के कुछ रंगों को मैं राजेश गाबा (प्रिंस) दैनिक भास्कर के माध्यम से आपके सामने लेकर आ रहा हूं। मेरा उनसे रिश्ता लगभग 15 साल पुराना रहा। अक्सर उर्दू के शब्दों में खबर बनाते हुए कहीं अटकता तो वो मेरे लिए हमेशा दिन-रात कभी भी मौजूद रहे। उनको मैंने पाया गंगा-जमुनी तहजीब का नुमाइंदा। हमेशा शाही लिबास में और हंसते-मुस्कुराते छोटे-बड़े सभी से पूरे गर्मजोशी और अदब के साथ मिलते नजर आते थे। वे भोपाल के हर संगीत, साहित्य, नृत्य और नाट्य महफिल की शान होते थे एक सच्चे श्रोता और आलोचक के रुप में। चाहे कोई कलाकार, हो साहित्यकार सभी के साथ उसकी परेशानी में साथ खड़े रहते थे। कहते थे न मैं किसी मजहब का हूं न मैं प्रांत का। मैं तो इंसानियत का नुमाइंदा हूं। वह बंदा जो सबका है सब मेरे हैं। अनेकों बार भास्कर के लिए आर्टिकल और खबरों के लिए उन्होंने मेरा मार्गदर्शन दिया। चाहे वो संगीत, सिनेमा, साहित्य, नृत्य या रंगमंच हो। चाहे भोपाल का इतिहास वहां की रवायत और रिवायत, उर्दू अदब का जिक्र हो। उन्हें मैं गूगल बाबा कहता था अपनी प्रश्न पूछो और तुरंत हर विषय पर उत्तर मिलेगा। अब मेरे प्रश्न का उत्तर शायद ही कभी मिलेगा।

अभिनेता राजीव वर्मा अपने मित्र श्याम मुंशी के साथ
अभिनेता राजीव वर्मा अपने मित्र श्याम मुंशी के साथ

1.जब तीन घंटे श्याम भाई ने मुस्लिम ड्राइवर को समझाया कुरान शरीफ और रमजान का महत्व

फिल्म-रंगमंच के जाने-माने अभिनेता और श्याम मुंशी के बेहद करीबी साथी राजीव वर्मा ने दैनिक भास्कर से खास बातचीत में बताया कि वक्त हमसे भोपाल की पहचान छीन रहा है। अभी दो दिन पहले मंजूर एहतेशाम चले गए और अब श्याम भाई। मैं नि:शब्द हूं। श्याम भाई और मैं एक ही मोहल्ले में पुराने भोपाल में रहते थे। हम लोग अक्सर 24 घंटे साथ रहते थे, 40 साल पहले की बात है। घूमना फिरना साथ में रहना हमारी दिनचर्या थी। जबकि वे उम्र में बड़े थे लेकिन वे मुझे मित्र की तरह चाहते थे। मेरी पर्सनालिटी का काफी हिस्सा उनका कर्जदार है। जब मैं थिएटर करते हुए मुंबई फिल्मों में एक्टिंग करने चला गया तब अक्सर मैं शूटिंग उर्दू के लफ्ज में अटकता तो उन्हें फोन लगाता। श्याम भाई उर्दू-फारसी के जानकार थे। कारण उनके पिता बहुत बड़े विद्वान थे। वे बहुत अच्छे रेसलर और एनसीसी कैडेट भी थे। वे घुड़सवारी और कुत्तों का भी शौक रखते थे। हमने साथ आकाशवाणी के लिए साथ में कई नाटक किए। उनके साथ मेरा अंतिम नाटक भोपाल में उर्दू में 'वक्त के कराहते रंग' था। इसमें मेन कैरेक्टर श्याम भाई थे। इसे मैं डायरेक्ट करता हूं। लगातार शोज किए। भारत भवन में जब इसका आखिरी शो किया तब वे कहने लगे राजीव मुझे हियरिंग प्रॉब्लम होने लगी है यार अब मैं नहीं करुंगा इसे। मुझे याद है जब हम इस नाटक के आखिरी शो को करने वाले थे। इसमें श्याम भाई मुस्लिम किरदार बनते थे। अभी महीनाभर बाकी था शो में। तब मैंने कहा कि श्याम भाई दाढ़ी रख लीजिए, मेकअप का खर्चा बच जाएगा। बोले तुम भी रखो मैं भी रखूंगा। मैंने कहा कि भई मैं डायरेक्टर हूं तो बोले होगे मैं भी एक्टर हूं। ऐसे कई बार हमारा हास-परिहास होता था। हमारा ग्रुप था जिसमें हम तीन दोस्त थे। मैं, श्याम भाई, फिल्म राइटर दिनेश राय दिन्नू भाई। मुझे एक और वाक्या याद आ रहा है कि एक मर्तबा हम इनके साथ मेरे बेटे शिलादित्य के एडमिशन के लिए इंदौर गए थे। ड्राइवर मुस्लिम था और उस वक्त रमजान भी चल रहा था। हम लेट हो गए। रात में लौटते वक्त ढाबे पर हमनें खाना खाया। देर रात हम डर रहे थे कि ड्राइवर को कहीं झपकी न लग जाए। इस डर से श्याम भाई ड्राइवर के बगल में बैठ गए और उसे कहीं कुरान शरीफ और हदीस के बारे में समझाया। रमजान में रोजे और नमाज की अहमियत समझाई। तीन घंटे तक वो उसके समझाते रहे और वो भी कान से सुनते हुए ड्राइव करता रहा और उसे झपकी नहीं लगी और हम सही सलामत घर पहुंचे और श्याम भाई की नॉलेज और जज्बे के कायल हो गए। श्याम भाई छड़े थे शादी नहीं करते थे। शायद इतनी विधाओं में पारंगत होना तो इस और ध्यान ही न गया हो। तब हमने कहा कि अब आपको शादी कर लेनी चाहिए उम्र हो चली है। बोले राजीव कौन मुझे समझेगा और मेरे कला-साहित्य से मोहब्बत को। तब मैं और मेरी पत्नी रीता ने भरतनाट्यम नृत्यांगना डॉ. लता सिंह मुंशी से मिलवाया। लता के साथ मैं एक नाटक कर चुका था जब वो कॉलेज में थी। मैं उन्हें जानता था। लता से मिलकर उनकी कला के प्रति गंभीरता को देखते हुए श्याम भाई मुतासिर हुए। दोनों के मन मिले और दोनों शादी के बंधन में बंध गए। श्याम भाई ने लता के करियर में खूब साथ दिया। लता को शिखर सम्मान मिलने तक की यात्रा में सच्चे साथी की तरह साथ दिया। अब ये खूबसूरत जोड़ी लता-श्याम टूट गई। अपने पीछे वो पत्नी लता सिंह मुंशी, बेटे यमन और बेटी आरोही को छोड़ गए। मेरे लिए जैसा मेरा भाई चला गया। यह कहते-कहते राजीव वर्मा जी की आंखें भर आई।

रूमी जाफरी श्याम मुंशी के साथ अपने छोटे भाई जामी जाफरी की शादी के फंक्शन में।
रूमी जाफरी श्याम मुंशी के साथ अपने छोटे भाई जामी जाफरी की शादी के फंक्शन में।

2.उनकी शादी और मेरा रिसेप्शन एक ही दिन था, हम दोनों नहीं अटैंड कर सके एक-दूसरे का फंक्शन
जाने-माने फिल्म राइटर-डायरेक्टर रुमी जाफरी ने मुझे फोन करके पूछा कि प्रिंस भाई कह दो कि श्याम भाई की मौत की यह खबर झूठी है। प्लीज कह दो भाई। मैं विश्वास नहीं कर सकता। आप मीडिया से हो आपके पास पुख्ता और सही जानकारी होती है। जब मैंने कहा कि भाई ये सच है श्याम भाई नहीं रहे। तब रुमी जाफरी की आंखे भर आई। उन्होंने कहा कि मैं अभी बात नहीं कर सकता। बाद में जब मैंने कुछ घंटे बाद लगाया तब उन्होंने बताया कि भोपाल से मैं मुंबई जब आया-आया ही था तब हरिहरन भाई ने हमें अपने घर दादर खाने पर बुलाया था। मैं, श्याम भाई, लेखक फजल ताबिश उनके घर पर बैठे। फिर म्यूजिक की महफिल जमी थी रात भर।
फ्लैशबैक में सब याद आ रहा है। 1989 जब मेरा अपैंडिक्स बस्ट हो गया था और पीलिया हो गया था। तब मैं मुंबई से भोपाल आ गया। तब अभिनेता अन्नू कपूर भाई और ओमपुरी भाई मुझे भोपाल देखने आए थे। दोनों मेरे घर में रुके। उसी रात एक अच्छी खबर आई कि ओमपुरी जी को पद्मश्री एनाउंस हुआ। उस रात मेरे घर की छत पर जश्न मना। अन्नू भाई ने गाना पेश किया। उस महफिल की निजामत (संचालन) श्याम मुंशी ने की थी। वो फोटो एलबम में देखकर यादें ताजा हो गई। उसमें श्याम भाई कुर्ता पजामा और ब्लैक शॉल पहने हुए दिख रहे हैं। जब श्याम भाई ने उर्दू में उस कार्यक्रम का संचालन किया तो ओमपुरी साहब उठे, श्याम भाई को गले लगा लिया और कहा था कि आपकी जबान से उर्दू कितनी खूबसरत लगती है। आपकी जगह तो बंबई में है। बंबई को आप जैसे शख्सियत की जरुरत है।
उन्हें भोपाल के सारे कल्चर को लेकर चलते थे। वो मौके और दस्तूर के हिसाब से कपड़े पहनते थे। शेरवानी, चूड़ीदार पजामा। उनके दादा मुंशी जी नवाब भोपाल को फारसी पढ़ाते थे।
एक अजीब इत्तेफाक है उनसे जुड़ा हुआ कि जब मेरी शादी हुई तो मेरा एक रिसेप्शन भोपाल में भी हुआ। जिस दिन मेरा रिसेप्शन था उसी दिन श्याम भाई की शादी थी। मैं अपने बड़े भाई श्याम मुंशी की शादी में शामिल नहीं हो पाया और वो मेरे रिसेप्शन में शिरकत नहीं कर पाए।

सुप्रसिद्ध पार्श्व गायक और गजल गायक हरिहरन, श्याम मुंशी, लता मुंशी, आरोही मुंशी और यमन मुंशी के साथ
सुप्रसिद्ध पार्श्व गायक और गजल गायक हरिहरन, श्याम मुंशी, लता मुंशी, आरोही मुंशी और यमन मुंशी के साथ

3.मेरा दोस्त लीजेंड था, है और रहेगा...
श्याम मुंशी के दोस्त और जाने-माने पार्श्व गायक हरिहरन ने कहा कि मैं नि:शब्द हूं। मेरे दोस्त, गाइड, म्यूजिक, लिटरेचर, हिस्ट्री, ड्रामा का एक्सपर्ट मस्तमौला इंसान को भी कोरोना ने हमसे छीन लिया। बस और कितने अपने जाएंगे। वह लीजेंड था और है और रहेगा। उनके जैसी वर्सेटाइल पर्सनालिटी, हंबल इंसान मैंने दुनिया में नहीं देखा। वो सभी को प्यार करने वाला और सभी उसको प्यार करने वाले थे। वो जात-पात, मजहब और राजनीति से परे थे। बहुत ही अलबेला था, क्या कहूं उसके बारे में मैं बहुत दुखी हूं। बहुत से अपने जा रहे हैं, लेकिन यह तो मेरे भाई से बढ़कर था। अब नहीं हो रहा बर्दाश्त। यह कहते हुए उनका गला भर आया।

श्याम मुंशी सिरेमिक आर्टिस्ट निर्मला शर्मा का सम्मान करते हुए, साथ में पत्नी डॉ. लता मुंशी और वरिष्ठ उद्घोषक विनय उपाध्याय।
श्याम मुंशी सिरेमिक आर्टिस्ट निर्मला शर्मा का सम्मान करते हुए, साथ में पत्नी डॉ. लता मुंशी और वरिष्ठ उद्घोषक विनय उपाध्याय।

4. वे भोपाल की संस्कृति का चलता-फिरता संदर्भकोष थे
वरिष्ठ उद्घोषक और कला समीक्षक विनय उपाध्याय ने बताया कि श्याम मुंशी का भोपाल में रहना हम सबके समय में भोपाल की रिवायत या तहजीब के नुमाइंदे के रुप में देखते हैं। वो विलक्षण स्मृति से भरे हुए थे। वो यूं तो हिंदु समुदाय से आते थे। उनके पास उर्दू और फारसी के संस्कार थे। उनके साहित्य में ये सब झलकता था। वो दो आब के लेखक थे। उनकी शख्सियत में दो धाराएं मिलती हुई नजर आती हैं। वो संगीत के गहरे रसिक थे। वे सारंगी नवाज अब्दुल लतीफ खां के शार्गिद थे। वे संगीत के बहुत अच्छे सुनकार और जानकार थे। उनका दोस्ताना नाता चित्रकार, साहित्यकार, नर्तक, अभिनेता से भी था। मैं उद्घोषक के रुप में जब भी भारत भवन में संचालन करता। तब किसी कलाकार को अंत में बुके देना होता था। तब वो हस्ती के रुप में वो दर्शक दीर्घा में नजर आते थे। मुझे एक वाक्या याद है कि उन्हें गलत बात बर्दाश्त नहीं होती थी। एक बार भारत भवन में सारंगी पर अपनी प्रस्तुति देने नामी सारंगी वादक पद्मविभूषण पंडित रामनारायण जी आए थे। कार्यक्रम के बीच में वादन के साथ पंडित जी ने श्रोताओं से सारंगी पर जो बात की। वो श्याम भाई को पसंद नहीं आई। वो उससे इत्तेफाक नहीं रखते थे। वे बीच में उठकर पंडित जी को इस बात के लिए टोकना चाहते थे। लेकिन सब के निवेदन करने पर बैठे। लेकिन घर पहुंचकर उन्होंने कई अखबारों में फोन करके अपनी आपत्ति दर्ज कराई। वे ऐसे साहसी कलारसिक थे। उनके सामने बड़े-बड़े कलाकार भी परफॉर्म करने से इसलिए घबराते थे कि वो संगीत में जीते थे। वे भोपाल की संस्कृति का चलता-फिरता संदर्भकोष थे।

5. वे मेरे पापा को जानते थे, खूब बातें बताई पापा से जुड़ी
अभिनेता अन्नू कपूर की बहन फिल्म राइटर-डायरेक्टर सीमा कपूर ने बताया कि मेरा श्याम जी से मिलना पहली बार इंदौर में ओमपुरी साहब की याद में थिएटर फेस्टिवल में हुआ था। तब वे अपनी पत्नी लता मुंशी, रंगकर्मी रीता और राजीव वर्मा के साथ आए थे। वहां राजीव वर्मा के नाटक का मंचन किया गया था। तब श्याम जी ने बातचीत में बताया था कि वे मेरे पापा मदनलाल कपूर और मां शबनम को जानते थे। वे मेरे भाई रंजीत कपूर और अन्नू कपूर को जानते हैं। उन्होंने बताया था कि मेरे पापा की थिएटर कंपनी में वे जाते थे। वहीं उनकी मुलाकात शकीला बानो से हुई थी। उन्होंने कई दिलचस्प बातें हुईं। फिर दूसरी बार फिल्ममेकर रुमी जाफरी के छोटे भाई जामी जाफरी की शादी में उनसे दोबारा मिलना हुआ। मैंने सोचा था कि इस बार भोपाल जाऊंगी तो मिलूंगी खूब बात करुंगी। लेकिन ये अब नहीं हो सकता।
अदब की दुनिया की अनोखी शख्सियत नहीं रही

एक साहित्यिक कार्यक्रम में साहित्यकार मंजूर एहतेशाम, साहित्यकार राजेश जोशी, साहित्यकार देवीशरण और श्याम मुंशी (टोपी पहने हुए)
एक साहित्यिक कार्यक्रम में साहित्यकार मंजूर एहतेशाम, साहित्यकार राजेश जोशी, साहित्यकार देवीशरण और श्याम मुंशी (टोपी पहने हुए)

6. उनके जीवनानुभव विविध रंगी और व्यापक थे

श्याम मुंशी के दोस्त और साहित्यकार राजेश जोशी ने बताया कि श्याम मुंशी नहीं रहे। अदब की दुनिया की अनोखी शख्सियत हिंदी और उर्दू पर समान अधिकार रखने वाले श्याम मुंशी की साहित्य, संगीत और नाटक जैसी तमाम रचनात्मक विधाओं में गहरी दिलचस्पी और सक्रिय आवाजाही रही। आकर्षक व्यक्तित्व के धनी श्याम भाई भोपाल के लोक इतिहास के गहरे जानकार थे। उनके जीवनानुभव विविधरंगी और व्यापक थे। उन्होंने रंगमंच और रेडियो के लिए काम किया, कहानियां लिखीं। वे जनवादी लेखक संघ मध्यप्रदेश की उर्दू समिति के अध्यक्ष थे।

श्याम मुंशी जी के गुरु सारंगी नवाज उस्ताद अब्दुल लतीफ खां।
श्याम मुंशी जी के गुरु सारंगी नवाज उस्ताद अब्दुल लतीफ खां।

7. जब श्याम भाई ने अपने उस्ताद को समर्पित साज लतीफ सारंग बनाया, संतूर वादक पं. शिव कुमार शर्मा ने कहा था यह दुर्लभ वाद्य यंत्र बहुत ही सुरीला है
श्याम मुंशी के करीबी तबला नवाज और उनके गुरु सारंगीवादक उस्ताद अब्दुल लतीफ खां साहब के बेटे तबलानवाज उस्ताद नफीस अहमद खां ने बताया मेरा रिश्ता सन 1962 में मेरे पापा उस्ताद अब्दुल लतीफ खां साहब के पास सितार और सरोद सीखने आए। उनके घरवालों ने मेरे अब्बा से कहा कि म्यूजिक में आएगा तो कुछ लहजा सीखेगा। सन् 1966 में गंडाबंध शिष्य बने। वे संगीत के गुणी होने के साथ साहित्य के भी जानकार थे। वे हर दुख-सुख में हमारे साथ रहे। श्याम जी ने दुनिया की सबसे छोटी सारंगी अपने हाथो से बनाकर एक अजूबा दुनिया को दिया जिसका नाम लतीफ़ सारंग रख अपने उस्ताद के नाम समर्पित किया। आप ने एक और सारंगी बनाई जिसका नाम दिया हंसा बेला रखा। दुर्लभ वाद्ययंत्र लतीफ सारंग का उद्घाटन करने पद्मश्री संतूर वादक पं. शिव कुमार शर्मा जी आए थे। तब अब्बा ने उस यंत्र को बजाया तो पं. शिव कुमार शर्मा जी ने कहा था कि क्या दुर्लभ और सुरीला वाद्य है। उतना ही मीठा बजाया लतीफ खां साहब ने। भोपाल में सबसे पहले गुरु पूर्णिमा सम्मान समारोह की शुरुआत 1982 में भोपाल में श्याम जी ने ही की थी। वे अपने गुरु लतीफ खां साहब को पिता की तरह मानते थे और खां साहब भी उन्हें बेटे की तरह प्यार देते थे। श्याम जी जैसी शख्सियत बहुत कम है इस जमाने में।

8. वे गये क़ल और नये क़ल के बीच का पुख्तापुल थे
श्याम मुंशी की शख्सियत को अपने कैमरे में उतारने वाले सीनियर फोटोग्राफर और उनके दोस्त रजा मावल ने बताया कि ऊंचा कद छोटी चमकदार आंखें जो दुनिया देखती नहीं पढ़ती हैं.... , चाल ऐसी की फौज के अफसर कोई , शीरी जुबान , शीन काफ दुरुस्त।गज़ब का रंग, काली शेरवानी , चूड़ीदार पायजामा, फर की टोपी। खुशनुमा खुशबूदार आमद, चाक - चोबंद, फिट-फाट, हाथ में छड़ी और चमकदार जूते । ऐसा एक वाहीद शख्स जो हर फन - ओ - अदब के जलसे में आप को दिखाई दे, बल्कि ये कहना ज़्यादा मुनासिब होगा की हर महफिल की रौनक.... ये अज़िमो - ओ - शान शख्सियत जनाब श्याम मुंशी थे। मैं पिछले 34 वर्षो से श्याम भाई के संपर्क में रहा। श्याम मुंशी या यु कहू मुकम्मिल बर्रू - काट भूपाली जनाब श्याम मुंशी साहब भोपाल के एक ऐसे परिवार से ताल्लुख रखते हैं जिनका इतिहास भोपाल में 250 वर्षों से रहा हैं। जहांफ़ारसी, अरबी, उर्दू, संस्कृत और हिंदी के एक से एक इल्म्दार स्कालर इस परिवार ने भोपाल को दिए हैं। मुझे ये लिखने में कोई अतिश्योक्ति नहीं की इतनी भाषाओ के आलिम फ़ाज़िल, तहजीब - ओ - अदब, साहित्य और संगीत की गंगोत्री अगर भोपाल में निकलती हैं तो वो हैं श्याम भाई का घर, जिसकी गंगा के विशाल पाट के उन घाटों पर शहर सहित सूबे तक ने ख़ूब डूबकिया लगाई और इल्म हासिल किया हैं।
20 मई 1943 को भोपाल में जन्मे श्याम मुंशी जब पांच वर्ष के हुए तब तालीम की इब्तिदा आप के दादा मुंशी मोहनलाल साहब ने फ़ारसी क़ायदे से कराईं। घर की तालीम के बाद नागपुर के सेंट् जोन्स स्कूल में और महू में हुई आगे की तालीम भोपाल के हमीदिया कॉलेज से मुक्कमिल की। श्याम भाई के वालिद मुंशी सुन्दरलाल साहब मरहूम कम्युनिस्ट पार्टी की बुनियाद रखने वालो में से एक और जंगे आज़ादी के सिपाही थे। भोपाली उम्रदराज़ बताते हैं श्याम मुंशी में अपने वालिद की हूबहू छवि हैं और वही उनके आदर्श और प्रेरणास्रोत हैं। श्याम मुंशी अभी तक दर्जनों क़िताबे लिख़ चुके हैं जिसमे प्रमुख ‘सारंगी के हमसफ़र‘ ‘सारंगी का दर्द’ ‘हिन्दुस्तानी संगीत में तवायफों का योगदान’ और भोपाल पर लिखी इनकी क़िताब ‘सिर्फ़ नक़्शे क़दम रह गए’ एक अनूठी और अभूतपूर्व क़िताब हैं।
श्याम भाई के अजीबोगरीब शौक रहे जिनका आपस में दूर दूर तक कोई लेनादेना नहीं हैं जैसे घुड़सवारी, अच्छी नस्लों के कुत्तें पालना , बागवानी, खेतीबाड़ी, कभी रेडिमेड कपड़ो की दुकान तो कभी जिम चलाना और तो और जनाब उम्दा मोटर मैकेनिक और पहलवानी का भी शौक रखते हैं। किसी ने क्या ख़ूब लिखा हैं - श्याम मुंशी भोपाल की उन शख्सियतओ में से हैं जिन्हें सम्भाल के रखा जाना बेहद ज़रूरी हैं क्योंकि वे गये क़ल और नये क़ल के बीच का पुख्तापुल हैं जिनके ना होने की सूरत में इस तरफ़ की अतृप्त लहरों की प्यास उस तरफ़ के बह चुके पानी के लिये सदियों पुकारती रहेंगी और गए वक़्त की तरह गया पानी भी दोबारा किस्मत में नहीं होगा।



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