भोपाल। काफी समय से बीमार चल रहे पद्मश्री कथाकार मंजूर एहतेशाम बीती रात इस फानी दुनिया को अलविदा कह गए। उन्हें करीब एक हफ्ते पहले कोरोना हो गया था। यह अजीब संयोग है कि ढेरों कहानियां रचने वाले मंजूर एहतेशाम की पहली कहानी का नाम 'रमजान में मौत' था और वो इसी पाक महीने में दुनिया से कूच कर गए। सोमवार दोपहर एक बजे उन्हें सुपुर्दे खाक किया जाएगा। उनकी पत्नी सरवर हुसैन का पिछले साल ही निधन हो गया था। दैनिक भास्कर के कला संवाददाता के रूप में कईं बार उनसे रूबरू होने का सौभाग्य मिला। उनकी जिंदगी और साहित्य की कुछ बातें कुछ अंश, आपके लिए खास तौर पर पेश कर रहा हूं।
वर्ष 1948 में भोपाल में जन्मे और आज़ाद भारत के अब तक के सारे उतार-चढ़ाव का गवाह बने अप्रतिम लेखक मंजूर एहतेशाम ने हिंदी समाज को कुछ विरल रचनाएं दी हैं। उपन्यास के तौर पर सूखा बरगद, दास्तान-ए-लापता, कुछ दिन और बशारत मंजिल इत्यादि को याद कर सकते हैं। अपनी सबसे प्रिय विधा- कहानी- से भी इन्होंने पाठकों के संसार को काफी समृद्ध किया है। किसी भी हिंदी के गंभीर पाठक के लिए इनका संग्रह तसबीह, तमाशा तथा अन्य कहानियाें से गुजरना ऐसी यात्रा है जिसे पाठक कभी भूलना नहीं चाहेगा। स्वर्गीय सत्येन कुमार के साथ मिलकर आपने ‘एक था बादशाह’ नाम से एक नाटक भी लिखा। इन सब के बावजूद आप तमाम साहित्यिक दाव-पेंच से एक ख़ास दूरी बनाए रखे रहे। शायद यही वजह है कि पाठकों को आपके निजी तेवर का इल्हाम नहीं है।
परिजन इंजीनियर बनाना चाहते हैं, पर वे लेखक बन गए
मंजूर एहतेशाम हमारे समय के अत्यंत महत्वपूर्ण कथाकार रहे। उनका जन्म 3 अप्रैल, 1948 को भोपाल में हुआ था। घरवाले चाहते थे कि वे इंजीनियर बनें, पर उन्हें बनना था लेखक। सो इंजीनियरिंग की पढ़ाई अधूरी छूट गई। पहले दवा बेचने का काम किया और फिर फ़र्नीचर बेचने लगे। बाद में इंटीरियर डेकोर का भी काम करने लगे। पर लेखन हर दौर में जारी रहा।
उनकी कहानियां चमत्कार की तरह बचे जीवन का आख्यान रचती हैं
पहली कहानी 'रमज़ान में मौत' साल 1973 में छपी, तो पहला उपन्यास 'कुछ दिन और' साल 1976 में प्रकाशित हुआ। लेखन के चलते वह वागीश्वरी पुरस्कार, पहल सम्मान और पद्मश्री से अलंकृत हो चुके हैं। इनकी पहली कहानी को यह नाम इनके दोस्त और जाने-माने साहित्यकार दुष्यंत कुमार ने दिया था। यह 1973 में प्रकाशित हुई थी।उनकी खासियत यह है कि उनकी रचनाएं किसी चमत्कार के लिए व्यग्र नहीं दिखतीं, बल्कि वे अनेक अन्तर्विरोधों और त्रासदियों के बावजूद 'चमत्कार की तरह बचे जीवन' का आख्यान रचती हैं।
उनकी कहानियों का निष्कर्ष व्यापक मनुष्यता रहा
मंजूर एहतेशाम मध्यवर्गीय भारतीय समाज के द्वन्द्वात्मक यथार्थ को उल्लेखनीय शिल्प में अभिव्यक्त करने वाले कथाकार हैं। परिचित यथार्थ के अदेखे कोनों-अंतरों को अपनी रचनाशीलता से अदूभुत कहानी में बदल देते हैं। मध्यवर्गीय मुस्लिम समाज मंजूर एहतेशाम की कहानियों में अपनी समूची चिंता, चेतना और प्रमाणिकता के साथ प्रकट होता रहा है। स्थानीयता उनके कथानक का स्वभाव है और व्यापक मनुष्यता उनका निष्कर्ष है। यही वजह है कि ‘दास्तान-ए-लापता’, 'कुछ दिन और', 'सूखा बरगद', 'बशारत मंजिल', 'पहर ढलते' जैसे चर्चित उपन्यासों और कथा संकलन 'तसबीह', 'तमाशा तथा अन्य कहानियां' से वह हमारे समाज का बेहतर चित्र खींचते हैं।
मंजूर कहते थे, समाज की कुछ बुराइयां शाश्वत हैं... इन पर लिखी कहानियां पुरानी नहीं होतीं
मंजूर एहतेशाम से भोपाल में कई दफा मुखातिब होने और उनका इंटरव्यू करने का सौभाग्य मिला। दैनिक भास्कर को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने 40 साल पहले लिखी कहानी को आज भी प्रासंगिक बताया था। उनके मुताबिक समाज की कुछ बुराइयां शाश्वत हैं, अगर उसे ध्यान में रखकर कहानी लिखी जाए, तो वह कभी पुरानी नहीं होती। जैसे प्रेमचंद की कहानियों आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। उन्होंने कहा कि "समाज में फैले सांप्रदायिकता को कुछ लोग बनाए रखना चाहते हैं। उन लोगों की वजह से यह खत्म नहीं होता और हमेशा नई शक्ल में हमारे सामने आ जाता है। उस दौर में भी प्यार पर बवाल होता था। अंतर इतना है कि तब "लव जिहाद' जैसे नाम नहीं थे। मेरी कहानियां इन्ही समस्याओं को दिखाती है।'
सीरियल लिखने के ऑफर पर कहा, अभी किताबें ही लिखूंगा
उन्होंने कहा था कि उनके पास टीवी सीरियल्स को लिखने के लिए ऑफर भी आते हैं, लेकिन वह अभी किताबें ही लिखना चाहेंगे। फिल्म इंडस्ट्री उनकी कहानियों पर फिल्म बना सकती है, लेकिन इसके लिए कहानी की आत्मा के साथ छेड़खानी न करने की शर्त भी होगी।
1960 में मध्यप्रदेश के तत्कालीन शिक्षा मंत्री डॉ. शंकरदयाल शर्मा के हाथों पुरस्कार ग्रहण करते हुए।
मंजूर एहतेशाम ने अपने दोस्तों साहित्यकार दुष्यंत कुमार, गुलशेर अहमद शानी और सत्येन कुमार के साथ बीते लम्हों को याद करते हुए बताया था कि आज मेरे तीनों ही दोस्त मेरे साथ नहीं हैं। लेकिन, हम चारों एक-दूसरे की प्रेरणा थे, हौसला अफजाई करते थे ऐसा मार्गदर्शन आज के साहित्यकारों को नहीं मिल पाता। मैंने अपनी पहला उपन्यास कुछ दिन और शानी को और दूसरा उपन्यास सूखा बरगद सत्येन को समर्पित किया। ये विडंबना है कि मैं दुष्यंत को अपनी कोई कृति समर्पित नहीं कर पाया।
पहली कहानी को नाम दिया था दुष्यंत कुमार ने
एहतेशाम ने दुष्यंत कुमार से पहली मुलाकात का जिक्र करते हुए बताया- भोपाल के दोस्त सत्येन कुमार से अकसर किताबों के बारे में बात हुआ करती थी। बिना इस जानकारी के कि उनकी भी किताब छप चुकी है। उन्होंने ही अपने दोस्तों शानी और दुष्यंत कुमार से मिलवाया था। भेंट होने के बाद परिस्थितियां कुछ ऐसी बनीं कि सत्येन ने मुझे कहानी लिखने को प्रेरित किया। दुष्यंत, शानी और सत्येन तीनों को ही मेरी लिखी कहानी पसंद आई और इसे प्रकाशित करने की बात हुई। इसके बाद दुष्यंत कुमार ने 1973 में मेरी पहली कहानी को नाम दिया- रमजान में मौत।