वनशंकरी मंदिर भारत के कर्नाटक के बागलकोट जिले में बादामी गांव के पास मौजूद है। मंदिर को बनशंकरी या वनशंकरी कहा जाता है क्योंकि ये तिलकारण्य जंगल में है। ये मंदिर तकरीबन 1300 साल पुराना है। यहां हर साल शाकंभरी प्राकट्योत्सव पर कई तरह की शाक-सब्जियों से देवी की विशेष पूजा की जाती है।
7वीं शताब्दी में बना मंदिर
देवी शाकंभरी यानी वनशंकरी मंदिर 7वीं शताब्दी के बादामी चालुक्य राजाओं ने बनवाया था। वो देवी बनशंकरी को अपने कुल देवी के रूप में पूजते थे। लेकिन धीरे-धीरे ये मंदिर टूटता गया। वर्तमान में मौजूद मंदिर को मराठा सरदार परशुराम आगले ने 1750 में बनवाया था। कहा जाता है कि ये मूल मंदिर चालुक्यों के शासनकाल से पहले ही मौजूद था।
मंदिर के सामने दीप स्तंभ को द्रविड़ शैली में बनाया गया था। लेकिन टूटने के बाद फिर उसे विजयनगर स्थापत्य शैली में बनाया गया है। मंदिर के चारो तरफ ऊंची दीवारें हैं। मंदिर परिसर में एक मुख्य मंडप और एक अर्ध मंडप है। जो कि गर्भगृह के सामने बना है। साथ ही एक मीनार भी है।
काले पत्थर से बनी मूर्ति
मंदिर के गर्भगृह में देवी शाकंभरी की काले पत्थर से बनी मूर्ति है। इसमें देवी शेर पर सवार हैं। देवी पैरों के नीचे राक्षस बना हुआ है। देवी की आठ भुजाएं हैं। जिनमें त्रिशूल, डमरू, कपालपात्र (इंसान की खोपड़ी से बना कप), घण्टा (युद्ध की घंटी), वैदिक शास्त्र और खड्ग-खट्टा (तलवार और ढाल) हैं। ये चालुक्यों की कुलदेवी थीं। खासतौर से देवांगा बुनकर समुदाय देवी शाकंभरी में विशेष श्रद्धा रखते हैं। साथ ही देवी वनशंकरीकुछ ब्राह्मणों की भी कुल देवता हैं।
रथयात्रा की परंपरा
पौष महीने की पूर्णिमा जो कि आमतौर पर जनवरी में आती है। इस दिन देवी शाकंभरी का प्राकट्योत्सव मनाया जाता है और रथयात्रा निकाली जाती है। जो कि गांव की गलियों से गुजरते हुए फिर मंदिर लौटती है। इसके बाद कई तरह की शाक सब्जियों और वनस्पतियों से देवी की पूजा की जाती है।
वनस्पति की देवी: वनशंकरी या शाकंभरी
मंदिर में शाकंभरी देवी की पूजा की जाती है। जो माता पार्वती का ही रूप है। देवी पार्वती ने शिवजी को पाने के लिए जब जंगल में रहकर तपस्या की थी तब उन्होंने कच्ची शाक-सब्जियां और पत्ते खाए थे। इसलिए उन्हें शाकंभरी कहा गया। ये देवी दुर्गा की ही शक्ति है। इनका जिक्र देवी भागवत महापुराण में है।
स्कंद और पद्म पुराण में बताया गया है कि राक्षस दुर्गमासुर ने लोगों को लगातार परेशान किया था। उसने औषधियों और वनस्पतियों को तहस-नहस कर प्रकृति को नुकसान भी पहुंचाया। इसके बाद दुर्गमासुर से रक्षा के लिए देवताओं ने हिमालय पर्वत की शिवालिक पहाडियों मे देवी दुर्गा की आराधना की। तब देवी प्रकट हुईं और राक्षस को मारा। इसके बाद देवी ने सौ नैत्रों से बारीश की और धरती पर औषधियां, वनस्पतियां और शाक-सब्जियों से भर दिया। इसलिए देवी को शताक्षी और शाकम्भरी भी कहा जाता है।
मंदिर के आसपास जंगलों में नारियल के पेड़ और सुपारी के पौधे हैं। इसलिए ये भी कहा जाता है कि गंभीर अकाल के दौरान, देवी ने लोगों को जिंदा रहने के लिए सब्जियां और भोजन दिया था। इस तरह देवताओं ने देवी को शाकंभरी नाम दिया।