जोधपुर। देश के पूर्व गृह मंत्री सरदार बूटासिंह नहीं रहे। वे जालोर-सिरोही से चार बार सांसद रहे। पंजाब से आकर राजस्थान में निहायत नए क्षेत्र में अपने लिए राजनीतिक आधार तैयार करना सिर्फ बूटासिंह जैसा कद्दावर नेता के ही बूते की बात थी। बूटा ने एक बार यहां अपना खूटा गाढ़ा तो फिर यहीं के होकर रह गए। जालोर को अपना दूसरा घर मानने वाले बूटासिंह की वर्ष 1989 में जालोर से हार पूरे देश में चर्चित रही थी। भाजपा के कद्दावर नेता भैरोसिंह शेखावत ने अपनी बेहतरीन चुनावी रणनीति के दम पर जालोर से बूटा का खूटा उखाड़ फेंका। यह दीगर बात है कि अगले चुनाव में बूटासिंह एक बार फिर आ जमे।
बूटासिंह पंजाब के प्रभावशाली दलित नेता रहे। वे रोपड़ से वर्ष 1967 से लगातार चुनाव जीतते आ रहे थे। वर्ष 1984 के लोकसभा चुनाव से पहले ऑपरेशन ब्ल्यू स्टार व तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद पंजाब की फिजा पूरी तरह से बदल चुकी थी। पंजाब में चुनाव के हालात नहीं थे। ऐसे में बूटासिंह अपने लिए नया स्थान तलाश रहे थे। उनकी तलाश राजस्थान के जालोर-सिरोही संसदीय क्षेत्र में आकर पूरी हुई। 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति लहर पर सवार होकर बूटासिंह लोकसभा में पहुंच गए। वे पहले कृषि और बाद में गृह मंत्री बनाए गए। उस दौर में बूटासिंह की पूरे देश में तूती बोलती थी।
शेखावत ने खेला दांव
वर्ष 1989 के लोकसभा चुनाव से पहले उजागर हुए बोफोर्स घोटाले को लेकर फिजा पूरी तरह से बदल चुकी थी। इसके बावजूद बूटासिंह छाए हुए थे। उनके जैसे मजबूत प्रत्याशी के सामने भाजपा-जनता दल गठबंधन को मजबूत प्रत्याशी नहीं मिल पा रहा था। भैरोसिंह शेखावत ने कुछ अलग ही ठान रखा था। उन्होंने उदयपुर में पार्टी के नेता कैलाश मेघवाल को आगे किया। मेघवाल जालोर में बूटासिंह के सामने चुनाव लड़ने के इच्छुक नहीं थे। क्योकि हार तय थी। लेकिन शेखावत नहीं माने और उन्हें भेज दिया जालोर नामांकन दाखिल करने।
और बदल गई हवा
बेमन से चुनाव लड़ रहे मेघवाल के सामने बूटासिंह की जीत तय मानी जा रही थी। शुरुआत में कोई चुनाव विश्लेषक उन्हें टक्कर तक में मानने को तैयार नहीं था। इसके बाद शेखावत ने मोर्चा संभाला। उन्होंने नारा दिया बूटा को वापस पंजाब भेज, राजस्थानी को अपना प्रतिनिधि चुन लोकसभा में भेजो। शेखावत की कुछ चुनावी सभाओं के बाद फिजा पूरी तरह से बदल गई। चुनाव लड़ने और जीतने के तरीकों में माहिर बूटासिंह भी समझ चुके थे कि उनका खूटा उखड़ सकता है। उन्होंने पूरा दम लगा दिया मतदाताओं को रिझाने के लिए। पूरे देश के मीडिया की निगाह जालोर पर थी। कमजोर प्रत्याशी माने जाने वाले मेघवाल पहले बराबरी की टक्कर में आए और मतदान से पहले उनके पक्ष में हवा बहना शुरू हो गई। नतीजा देख लोग चौंक उठे। बूटा का खूटा उखड़ चुका था।
नहीं छोड़ा जालोर
वर्ष 1989 की करारी हार को बूटासिंह कभी भूल नहीं पाए। व्यक्तिगत चर्चा में वे अकसर इसका जिक्र किए बगैर नहीं रहते। हार से निराश होने के बजाय बूटासिंह ने जालोर को अपनी कर्मस्थली बनाया और लगातार जुटे रहे। यही कारण रहा कि वे यहां से इसके बाद तीन बार सांसद चुने गए। यह बूटा सिंह जैसे व्यक्तित्व का ही कमाल था कि बिलकुल अनजानी जगह पहुंच उन्होंने अपने लिए राजनीतिक आधार तैयार कर लिया।