सिंघु बार्डर के दो तरफ दो दुनिया हैं, यह बॉर्डर युद्ध का मैदान न बने, इ​सलिए सिखों की मिसली फौज बीच में खड़ी

Posted By: Himmat Jaithwar
12/8/2020

नई दिल्ली। सिंघु बॉर्डर जिसकी पहचान हरियाणा और दिल्ली के बीच एक टोल नाके की थी, अब भारत में किसान आंदोलनों के इतिहास में दर्ज हो गया है। इसके एक तरफ दिल्ली पुलिस, ITBP, CRPF, CISF, BSF, RAF के जवान मुस्तैद खड़े हैं। उनके हाथों में ऑटोमैटिक बंदूकें हैं, सिर पर हेलमेट हैं और बॉडी पर आर्मगार्ड्स हैं। दूसरी तरफ हरियाणा, पंजाब और देश के दूसरे हिस्सों से आए किसान हैं जिन्होंने नेशनल हाईवे 44 पर डेरा डाल दिया है।

तीन कृषि कानूनों के खिलाफ शुरू हुए किसान आंदोलन को अब 12 दिन हो चुके हैं। हर बीतते दिन के साथ एक तरफ सुरक्षाबलों की तादाद बढ़ती गई है तो दूसरी तरफ किसानों की। बॉर्डर से दिल्ली की तरफ करीब एक किलोमीटर तक सिर्फ सुरक्षाबल ही नजर आते हैं।

सिंघु बॉर्डर के दोनों तरफ दो दुनिया हैं। एक सत्ता की, सरकार की दुनिया जिसके पास ताकत है, हथियार हैं, जवान हैं। दूसरी तरफ जनता की, देश की दुनिया, जहां आम लोग हैं जो 'अपने हक' मांग रहे हैं। और बीच में कंटीली तारों, भारी सीमेंट के स्लैब और रेत से भरे ट्रकों की दीवार है।

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बाॅर्डर के दो तरफ दो अलग-अलग सरकारें भी हैं। एक दिल्ली सरकार और एक हरियाणा सरकार। दिल्ली सरकार ने अपनी ओर अस्थाई टॉयलेट की एक लंबी कतार खड़ी की है। ये टॉयलेट साफ हैं और यहां इक्का-दुक्का लोग ही आ रहे हैं। दिल्ली सरकार किसानों के साथ खड़े होने का कोई मौका नहीं छोड़ रही है।

दूसरी तरफ हरियाणा सरकार है। अधिकतर किसान हरियाणा की जमीन पर ही बैठे हैं। इस सरकार ने किसानों को दिल्ली पहुंचने से रोकने की हर संभव कोशिश की। भारी पुलिस लगाई, बैरिकेड लगाए, सड़कें खोद दीं, किसानों पर पानी की बौछारें की। जो कुछ बस में था वह किया, लेकिन किसानों को दिल्ली पहुंचने से नहीं रोक पाई। यह विडंबना ही है कि हरियाणा की जमीन पर बैठे किसान शौच करने के लिए दिल्ली आ रहे हैं, क्योंकि उस तरफ उनके लिए कोई इंतजाम नहीं हैं।

मजदूरों के भूखे बच्चों के लिए आंदोलन स्थल एक मेला है और वे चाहते हैं कि यह मेला यू हीं चलता रहे।
मजदूरों के भूखे बच्चों के लिए आंदोलन स्थल एक मेला है और वे चाहते हैं कि यह मेला यू हीं चलता रहे।

बॉर्डर के दाईं और बाईं तरफ दो गांव भी हैं। एक तरफ सिंघु गांव और दूसरी तरफ कुंडली। यहां पास ही नरेला औद्योगिक क्षेत्र भी है और मजदूरों की बस्तियां भी। मजदूरों के भूखे बच्चों के लिए आंदोलन स्थल एक मेला है और वे चाहते हैं कि ये मेला यू हीं चलता रहे।

दिसंबर की सर्दी में बस शर्ट पहने इन बच्चों के चेहरों पर चौड़ी मुस्कानें हैं। वे कहीं चाय पी रहे हैं, कहीं दूध और कहीं लंगर छक रहे हैं। बीते दस-बारह दिनों में उन्होंने इतना खा-पी लिया है जितना महीने भर में उन्हें नहीं मिलता है।


तिलक नगर की रहने वाली रूपिंदर कौर ने अपनी गली में दो बार चालीस-चालीस हजार रुपए जुटाए हैं। इन पैसों का सामान खरीदकर वे आंदोलन स्थल पर बांटने आई हैं। वे बोरी खोलती ही हैं कि भीड़ उन्हें घेर लेती है। इस भीड़ में अधिकतर लोग आसपास के मजदूर हैं।

दो बुजुर्ग महिलाएं अपने नाती-पोतों के साथ आई हैं। एक कहती है, 'हम यहां रोज आते हैं, खाना मिलता है, जितना मर्जी खाओ, पेट भरकर खाओ, कोई नहीं रोकता, जो सामान मिलता है घर ले जाते हैं।' वे अपनी बात पूरी भी नहीं कर पातीं की दूसरी कहती है, 'उधर चलो, वहां कुछ बढ़िया मिल रहा है।'

किसानों के ट्रैक्टर ट्रॉली अब उनका घर बन गए हैं। इनकी लंबी कतार वहां तक जाती हैं जहां तक पैदल चलकर पहुंचना संभव नहीं है। ट्रॉलियों के बीच में तिरपाल डालकर आंगन बना लिए गए हैं, यहीं रसोई भी सजी हैं जिनमें सामान की कोई कमी नहीं हैं। खाने-पीने का सामान इतना है कि रखने की जगह कम पड़ जाती है।

हरियाणा से आए एक किसान कहते हैं, 'सरकार अगर पीछे हटती है तो इसमें उसकी भलाई ज्यादा है, हमने सरकार को विचार करने के लिए इतना टाइम दे दिया है, और भी दे देंगे।
हरियाणा से आए एक किसान कहते हैं, 'सरकार अगर पीछे हटती है तो इसमें उसकी भलाई ज्यादा है, हमने सरकार को विचार करने के लिए इतना टाइम दे दिया है, और भी दे देंगे।

जगह-जगह किसान छोटे-छोटे समूहों में बैठे हैं। हरियाणा से आए एक समूह में हुक्का गुड़गुड़ा रहे एक बुजुर्ग किसान कहते हैं, 'सरकार अगर पीछे हटती है तो उसमें उसकी भलाई ज्यादा है, हमने सरकार को विचार करने के लिए इतना टाइम दे दिया है और भी दे देंगे। नहीं मानी तो हमारे हाथ में लट्ठ तो है ही। डंडा-सोंटा सब चलेगा। हम सरकार को बनाना जानते हैं तो तोड़ना भी जानते हैं।'

बुधवार को सरकार के साथ एक और दौर की बातचीत होनी है। इससे पहले न ही किसानों ने पीछे हटने का कोई संकेत दिया है और न ही सरकार ने। ऐसे में सिंघु बाॅर्डर, टिकरी बाॅर्डर और दिल्ली के ऐसे ही दूसरे बाॅर्डर कब 'युद्ध का मैदान बन जाएं' कोई कुछ नहीं कह सकता।

ऐसा न हो इसके लिए सिखों की मिसली फौज बीच में खड़ी है। ये अपने साथ घोड़े और बाज भी लाए हैं। एक मिसली सैनिक कहता है, 'यह धर्म की लड़ाई नहीं है। यह सच की लड़ाई है, हक की लड़ाई है। एक राजा है प्रजा का, जब राजा चोर हो जाए तो पब्लिक को तो सड़क पर आना ही है। यहां जज भी हैं, वकील भी हैं और जवान भी हैं। वे सच और झूठ के बीच का फर्क समझते हैं।'

वे कहते हैं, 'किसान भी हमारे हैं, ये जवान भी हमारे हैं, सरकार भी हमारी है। नुकसान हमारा ही होना है। यह लड़ाई का मौसम नहीं है। यह सच और हक की बात करने का मौसम हैं। सच और हक पर बात होगी तो यह मसला सुलझ जाएगा।



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