कोरोनावायरस के खिलाफ वैक्सीन अप्रूव हो जाए और बन भी जाए तो भी दुनिया की 7 अरब आबादी तक उन्हें पहुंचाना आसान नहीं होगा। यह एक बहुत बड़ी चुनौती होगी, जिसे पूरा करने के लिए 110 टन क्षमता वाले जम्बो जेट्स के 8000 फेरों की जरूरत होगी। 14 अरब डोज लोगों तक पहुंचाने का यह मिशन दो साल चलेगा। वैक्सीन की डिलीवरी के लिए सिर्फ विमानों की जरूरत नहीं होगी, बल्कि कार, बस, ट्रक और यहां तक कि मोटरसाइकिल, साइकिल की भी मदद लेनी पडे़गी। कुछ इलाकों में तो पैदल ही यह वैक्सीन लेकर जाना होगा।
इंटरनेशनल एयर ट्रांसपोर्ट एसोसिएशन (IATA) ने सोशल मीडिया पोस्ट में बताया कि 110 टन क्षमता वाले बोइंग-747 विमानों को 8,000 चक्कर लगाने होंगे, तब वैक्सीन सब तक पहुंच सकेगी। इसके अलावा टेम्परेचर कंट्रोल और अन्य जरूरतों का भी विशेष ध्यान रखना होगा। खासकर फाइजर के वैक्सीन के लिए, जिसे UK और US के साथ-साथ यूरोपीय संघ के अन्य देशों में सबसे पहले अप्रूवल मिलने की उम्मीद है। इसे 6 महीने तक सेफ और इफेक्टिव रखने के लिए -70 डिग्री सेल्सियस तापमान में रखने की जरूरत होगी। IATA के चीफ एलेक्जांद्रे डी जुनियाक का कहना है कि ‘यह दुनिया की सबसे बड़ी और सबसे जटिल लॉजिस्टिक एक्सरसाइज रहने वाली है। पूरी दुनिया की नजरें अब हम पर हैं।’
लुफ्थांसा ने अप्रैल में शुरू कर दी थी तैयारी
ब्लूमबर्ग की एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के सबसे बड़े कार्गो कैरियर्स में से एक लुफ्थांसा ने अप्रैल में ही वैक्सीन डिलीवरी की योजना पर काम शुरू कर दिया था। 20 लोगों का टास्क फोर्स बनाया ताकि मॉडर्ना, फाइजर या एस्ट्राजेनेका के वैक्सीन को दुनिया के कोने-कोने तक पहुंचाया जा सके। टास्क फोर्स के सामने सवाल थे कि एयरलाइन के 15 बोइंग 777 और MD-11 मालवाहक जहाजों में जगह कैसे बनाई जाए? 25% क्षमता के साथ उड़ान भर रहे पैसेंजर विमानों के बेड़े में क्या बदलाव किया जाए?
लुफ्थांसा में इस टास्क फोर्स के प्रमुख थॉर्टन ब्रॉन का कहना है, 'हमारे सामने सवाल यह है कि क्षमता को बढ़ाएं कैसे?' वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन (WHO) में इम्युनाइजेशन चीफ कैथरीन ओ'ब्रायन ने पिछले हफ्ते कहा था कि वैक्सीन डिलीवर करना माउंट एवरेस्ट की चढ़ाई करने से भी मुश्किल काम है। महीनों की मेहनत के बाद वैक्सीन बना लेना यानी सिर्फ एवरेस्ट के बेस कैम्प तक पहुंचना ही है।
यह 5 चुनौतियां रहेंगी लॉजिस्टिक्स में
1. कार्गो क्षमताः इस समय 2,000 मालवाहक विमानों का इस्तेमाल हो रहा है। दुनिया में जितने भी माल की आवाजाही हवा से होती है, उसका आधा माल ये ही लाते-ले जाते हैं। बचा हुआ माल 22,000 रेगुलर विमानों से जाता है। मालवाहक विमान तो काम कर रहे हैं, पर इन रेगुलर विमानों के न चलने से एयर-कार्गो वॉल्यूम इस साल काफी नीचे आ गया है।
2. डीप फ्रीजः फाइजर-बायोएनटेक के वैक्सीन को -70 डिग्री सेल्सियस पर ट्रांसपोर्ट करना होगा। यह अंटार्कटिका की सर्दियों के तापमान से भी कम है। कंपनियों ने GPS-इनेबल्ड थर्मल सेंसर का इस्तेमाल करने की योजना बनाई है ताकि वैक्सीन शिपमेंट की लोकेशन और तापमान को ट्रैक कर सकें। जमीन पर वैक्सीन को अल्ट्रा-लो टेम्परेचर के फ्रीजर्स में रखना होगा, तब इनका इस्तेमाल 6 माह तक किया जा सकेगा। फिलहाल तो किसी भी एयरक्राफ्ट में वस्तु को इतना ठंडा रखने की व्यवस्था नहीं है।
3. स्टोरेजः वैक्सीन को स्टोर करने की चुनौती भी बहुत बड़ी है। बड़े महानगरों में ही डीप-फ्रीज क्षमता है। यूनाइटेड पार्सल सर्विसेस के पास कुल 600 डीप फ्रीजर हैं जहां 80 डिग्री सेल्सियस से कम तापमान पर वैक्सीन के 48,000 डोज स्टोर किए जा सकते हैं। फेडएक्स कॉर्प ने अपने कोल्ड-चेन नेटवर्क में फ्रीजर्स और रेफ्रिजरेटेड ट्रक्स की संख्या बढ़ाई है।
4. गरीबों तक वैक्सीन पहुंचानाः मैन्युफैक्चरिंग यूनिट से किसी बड़े अस्पताल या शहर में वैक्सीन डोज पहुंचाना आसान है। पर विकासशील और गरीब देशों में यह काम बहुत मुश्किल होगा। गांवों और छोटे शहरों में इंफ्रास्ट्रक्चर न के बराबर है। यूनिसेफ ने नवंबर में ही 40 कैरियर्स को दुनिया के 92 सबसे गरीब देशों तक वैक्सीन पहुंचाने की योजना बनाकर देने को कहा है। एजेंसी की कोशिश दुनिया की 70% आबादी को वैक्सीन कवरेज में लाना है।
5. अनस्टेबल वैक्सीनः दुनिया के सबसे बड़े वैक्सीन मेकर सीरम इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया के CEO अदार पूनावाला कहते हैं कि आपके पास हर जगह डीप-फ्रीजर नहीं हैं। यह फ्रोजन वैक्सीन बहुत ही अनस्टेबल है। डेवलपर्स को उन्हें स्टेबलाइज करने पर काम करना होगा। सीरम इंस्टिट्यूट ने पांच डेवलपर्स से करार किया है। एस्ट्राजेनेका के 4 करोड़ वैक्सीन बना चुका है। जल्द ही कंपनी नोवावैक्स के वैक्सीन को बनाने का काम भी शुरू कर देगी।