भगवान सूर्य की पूजा और व्रत का विधान वैदिक काल से ही है। लेकिन पौराणिक ग्रंथों के मुताबिक त्रेतायुग में श्रीराम और द्वापर में श्रीकृष्ण के बेटे सांब ने भगवान सूर्य की उपासना की थी। ग्रंथों में बताई सूर्य उपासना के पीछे मान्यता है कि भगवान भास्कर की पूजा और व्रत करने से रोग खत्म होते हैं। ताकत बढ़ती है, रक्षा होती है। साथ ही संतान सुख भी मिलता है।
वैदिक काल: कार्तिक शुक्ल सप्तमी के दिन सूर्य को संतान प्राप्ति
सूर्य के तेज को संज्ञा और अस्त को छाया और दोनों को सूर्य की पत्नियां बताया गया है। संज्ञा, विश्वकर्मा की पुत्री थीं। वह सूर्य के ताप को बर्दाश्त नहीं कर पाती थीं। उन्होंने छाया नामक अपना प्रतिरूप रचा और खुद तपस्या करने कुरू प्रदेश चली गईं। सूर्य को जब इसका पता चला तो वह संज्ञा की खोज में निकले। संज्ञा, उन्हें सप्तमी तिथि के दिन प्राप्त हुईं। इसी तिथि को सूर्य को दिव्य रूप मिला तथा संतानें भी प्राप्त हुईं। इसीलिए सप्तमी तिथि भगवान भास्कर को प्रिय है।
मान्यता: सूर्य उपासना मिलता है संतान सुख मिलता है
त्रेतायुग: इक्ष्वाकु वंशज भगवान राम ने की थी सूर्योपासना
ब्रह्मा के पुत्र मरीचि हुए। मरीचि के पुत्र ऋषि कश्यप। ऋषि कश्यप का विवाह अदिति से हुआ। अदिति की तपस्या से प्रसन्न सूर्य ने सुषुम्ना नाम की किरण से अदिति के गर्भ में प्रवेश किया। अदिति के गर्भ से जन्मे सूर्य के अंश को विवस्वान कहा गया। इन्हीं की संतान वैवस्वत मनु हुए। शनि, यम, यमुना और कर्ण सूर्य की संतान हैं। भगवान राम वैवस्वत मनु के पुत्र इच्छवाकु कुल में जन्मे। कहा जाता है कि अपने कुल पुरुष की प्रसन्नता के लिए भगवान राम छठ व्रत किया करते थे।
मान्यता: सूर्य उपासना से होती रक्षा और मिलती है ताकत
द्वापर युग: सांब ने कुष्ठ से मुक्ति के लिए किया था कठोर तप
भगवान कृष्ण और जाम्बवती के पुत्र सांब अत्यंत सुंदर थे। उनके सौंदर्य के कारण भगवान की सोलह हजार एक सौ रानियों के मन में कुछ विकृति पैदा हो गई। भगवान को जब नारदजी से यह बात पता चली तो उन्होंने साम्ब को श्राप दे दिया। श्राप का जिक्र रुद्रावतार दुर्वासा मुनि, महर्षि गर्ग से जुड़े ग्रंथों में भी किया गया है। सभी में साम्ब को कुष्ठ का श्राप देने की कथा हैं। साम्ब ने चंद्रभागा (चिनाब) नदी के तट पर कठिन सूर्योपासना की। इससे उनका कुष्ठ रोग दूर हो गया। उन्होंने 12 अर्क स्थलों का निर्माण कराया।