नौकरी 24 घंटे की, पगार दिहाड़ी मजदूर से भी कम; काम गर्भवती महिलाओं का ख्याल रखने से लेकर लोगों को अस्पताल पहुंचाने का

Posted By: Himmat Jaithwar
8/22/2020

आशा दीदी, यानी सरकारी हेल्थ सिस्टम की सबसे मजबूत सिपाही। केंद्र सरकार और राज्य की स्वास्थ्य योजनाओं को देशभर के गांव में लागू करवाने वाली बहादुर औरतें और कोरोना वॉरियर्स। ये सभी नाम और सम्मान समय-समय पर उन आशा वर्कर्स को मिलते रहे हैं जो देशभर में काम कर रही हैं। इनके सहारे ही सरकारी हेल्थ सिस्टम का एक बड़ा हिस्सा गांवों तक पहुंच पाता है।

इस कोरोना काल में आशा वर्करों की जिम्मेदारी बढ़ी है। उनका काम बढ़ा है, लेकिन इन सब के बावजूद भी उन्हें अपनी मांगों को लेकर दो दिनों की हड़ताल करनी पड़ी। वो भी देशव्यापी। 7 अगस्त से लेकर 9 अगस्त तक देशभर की आशा कार्यकर्ता हड़ताल पर रहीं।

सवाल उठता है कि आखिर इन आशा वर्कर्स की ऐसी कौन सी मांग है जिसे सरकार मान नहीं रही और जिसके चलते उन्हें कोरोना के बीच दो दिन की हड़ताल करनी पड़ी? इस सवाल के जवाब में मध्यप्रदेश आशा उषा सहयोगी एकता यूनियन की महासचिव और खुद एक आशा वर्कर के तौर पर काम कर रहीं ममता राठौर कहती हैं, 'हम इज्जत से जीने का अधिकार मांग रहे हैं। हम हर वो काम करते हैं जो हमें दिया जाता है। सर्वे करने से लेकर गर्भवती महिलाओं को अस्पताल पहुंचाने तक। अभी कोरोना है तो गांव में घर-घर जा कर आशा बहनें ही सर्वे कर रही हैं। कहने को तो हमें सबसे अहम बताया जाता है, लेकिन मानदेय के अलाव कुछ नहीं मिला आज तक।'

फिलहाल देशभर में सक्रिय आशा वर्कर्स को केंद्र सरकार की तरफ से हर महीने 2100 रुपए बतौर मानदेय मिलता है।
फिलहाल देशभर में सक्रिय आशा वर्कर्स को केंद्र सरकार की तरफ से हर महीने 2100 रुपए बतौर मानदेय मिलता है।

यहां आशा का मतलब है- एक्रेडिटेड सोशल हेल्थ एक्टिविस्ट यानी मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता। राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन ने वर्ष 2005 में आशा कार्यकर्ताओं का पद बनाया। आशा का काम स्थानीय स्वास्थ्य केंद्र के माध्यम से महिलाओं और बच्चों को स्वास्थ्य संबंधी सेवाएं मुहैया करना है। राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनएचआरएम) के सितंबर 2018 के आंकड़ों के मुताबिक, भारत में आशा वर्कर्स की कुल संख्या करीब 10 लाख 31 हजार 751 है।

आशा वर्कर घर-घर जाकर हेल्थ की जांच करती हैं और लोगों को स्वास्थ्य सुविधा मुहैया कराती हैं। कोरोना से जंग में इन्होंने अहम भूमिका निभाई है।
आशा वर्कर घर-घर जाकर हेल्थ की जांच करती हैं और लोगों को स्वास्थ्य सुविधा मुहैया कराती हैं। कोरोना से जंग में इन्होंने अहम भूमिका निभाई है।

फिलहाल देशभर में सक्रिय आशा वर्कर्स को केंद्र सरकार की तरफ से हर महीने 2100 रुपए बतौर मानदेय मिलता है। इसके अलावा अलग-अलग राज्यों ने इनके लिए अलग से मानदेय तय किया है। जैसे, केरल में 7500 रुपए, तेलंगाना में 6000 रुपए और कर्नाटक में 5000 रुपए हर महीने मानदेय मिलता है।

इस साल तीन जून को आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगन मोहन ने ऐलान किया है कि राज्य में काम करने वालीं आशा कार्यकर्ताओं को अब 10 हजार रुपए मिलेंगे। पहले यह रकम सिर्फ 3000 रुपए थी, जिसे अब तीन गुना से भी ज्यादा बढ़ा दिया गया है।

7 अगस्त से लेकर 9 अगस्त तक देशभर की आशा कार्यकर्ता अपनी मांगों को लेकर हड़ताल पर रहीं। इनकी शिकायत है कि इन्हें दिहाड़ी मजदूरों से भी कम वेतन मिलता है।
7 अगस्त से लेकर 9 अगस्त तक देशभर की आशा कार्यकर्ता अपनी मांगों को लेकर हड़ताल पर रहीं। इनकी शिकायत है कि इन्हें दिहाड़ी मजदूरों से भी कम वेतन मिलता है।

ज्यादातर हिंदी राज्यों में आज भी आशा कार्यकर्ताओं को लगभग दो हजार रुपए और सरकारी अस्पताल में डिलेवरी करवाने पर कमीशन देने का प्रावधान है। कोरोना की वजह से आशा वर्कर्स का काम तो बढ़ा, लेकिन उन्हें मिलने वाले मानदेय में कोई बदलाव नहीं हुआ। इसी वजह से इस महामारी के बीच देशभर की आशा कार्यकर्ताओं को दो दिन की हड़ताल करनी पड़ी।

पुष्पा सिंह दिल्ली-गुरुग्राम बॉर्डर के पास आयानगर इलाके में रहती हैं और साल 2008 से बतौर आशा कार्यकर्ता इलाके में काम कर रहीं हैं। पुष्पा का मानना है कि आशा वर्कर्स काम तो 24 घंटे का करती हैं, लेकिन पैसा एक दिहाड़ी मजदूर से भी कम मिलता है।

वो कहती हैं, 'हड़ताल करना किसे अच्छा लगता है? किसी को नहीं अच्छा लगता। मजबूरी में ही करना पड़ता है। हम हर तरह का काम करते हैं। सर्वे का फॉर्म भरवाने, गर्भवती महिलाओं और नवजात बच्चों का ख्याल रखने से लेकर जरूरतमंदों को अस्पताल पहुंचाने तक का। इसके बदले हमें मिलता क्या है? दो-तीन हजार रुपए। इससे कैसे चलेगा हमारा परिवार? हमारे भी तो बच्चे हैं? उनका भी तो पालन करना है हमें।'

ज्यादातर हिंदी राज्यों में आज भी आशा कार्यकर्ताओं को लगभग दो हजार रुपए और सरकारी अस्पताल में डिलेवरी करवाने पर कमीशन देने का प्रावधान है।
ज्यादातर हिंदी राज्यों में आज भी आशा कार्यकर्ताओं को लगभग दो हजार रुपए और सरकारी अस्पताल में डिलेवरी करवाने पर कमीशन देने का प्रावधान है।

ये सवाल और मुसीबत अकेले पुष्पा सिंह की नहीं हैं। ये कहानी हर उस महिला की है जो बतौर आशा वर्कर देशभर के गांवों और छोटे कस्बों में काम कर रही हैं। इस हड़ताल को लेकर एक अच्छी खबर महाराष्ट्र से आई है, जहां की लगभग 70 हजार आशा वर्कर्स ने सरकार से मिले आश्वासन के बाद हड़ताल के दौरान काला मास्क और काली पट्टी लगाकर काम किया।

ये कोई पहली बार नहीं है जब देश की आशा वर्कर्स हड़ताल कर रहीं हैं। पिछले दस सालों से इनका संघर्ष चल रहा है। देशभर की आशा कार्यकताएं अपनी मांगों को लेकर कई बार राजधानी दिल्ली भी आ चुकी हैं। हां, कोरोना महामारी के बढ़ते प्रकोप के बीच इनका हड़ताल पर जाना सरकार और सिस्टम पर कई गंभीर सवाल खड़े करता है?



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