पानी में डूब गए घर, किसी का हाईवे तो किसी का मंदिर बना सहारा, बिना नाव के अपने घर भी नहीं पहुंच पा रहे

Posted By: Himmat Jaithwar
7/19/2020

मधुबनी से सुपौल जाते वक्त हमें रास्ते में 60 साल की पानो देवी मिलीं। वो हाईवे के किनारे बैठी थीं और नीचे दिख रहे पानी की तरफ इशारा करके आसपास खड़े लोगों को कुछ बता रहीं थीं। हम वहां रुके और पूछा कि क्या हुआ, तो उन्होंने बताया कि सामने मेरा घर है, लेकिन पानी में आधा डूबा हुआ है, इसलिए सुबह से बेटे का इंतजार कर रही हूं ताकि घर जा सकूं।

बेटा कैसे ले जाएगा? बोलीं, उसने कर्जा लेकर अभी नाव खरीदी है, उसी से हम घर तक पहुंच पाते हैं। पंद्रह-बीस दिन से घर डूबा हुआ है। हर साल बारिश के मौसम में यही हाल होता है। घर में रखा सामान बचाने के लिए ऊपर लकड़ी की पटिया बांधी हैं, उस पर सब रखा है। 

यह महज बानगी है। बिहार के सुपौल, सहरसा, कटिहार, मधुबनी जिलों के सैकड़ों गांव इस वक्त बाढ़ की चपेट में हैं। कोसी नदी के उफान पर आने के बाद हर साल की तरह इस बार भी गांव में पानी घुस गया है। पानी ने कहीं घरों को डुबोया है, कहीं खेत डुबो दिए तो कहीं सड़क से आवागमन ही बंद कर दिया।

बाढ़ से जूझ रहे सहरसा जिले गांवों में जब हम पहुंचे तो पता चला कि जिन लोगों के घर पानी में डूबे हैं, उनमें से कुछ मंदिरों में रहने लगे हैं। कुछ ने हाईवे के किनारे डेरा लगा लिया तो कुछ का सहारा सरकारी स्कूल, आंगनबाड़ी बन रही हैं। हालात इतने खराब हो रहे हैं कि कई लोग पलायन के लिए मजबूर हो चुके हैं। 

सहरसा में आने वाली अरापट्टी पंचायत में नदी का पानी सड़क पर आने से कच्चा पुल ढह गया। अब ग्रामीण इधर से उधर नाव के जरिए जा रहे हैं। नाव भी सरकार नहीं चलवा रही बल्कि गांव के ही कुछ लोगों ने नाव खरीदी है और वो 10 रुपए से लेकर 100 रुपए तक में इधर से उधर लोगों को छोड़ते हैं। जहां पानी भरा है, उसके नीचे धान की रोपाई की जा चुकी है।

तमाम घर पानी के बीच में डूबे हुए हैं। सबसे बड़ी मुसीबत उन लोगों के लिए बन रही है, जो बीमार पड़ रहे हैं या जिन्हें काम धंधे के लिए एक गांव से दूसरे गांव में जाना पड़ता है। बाकि लोग तो गांव से निकल ही नहीं रहे क्योंकि नाव वाले को देने के लिए उनके पास पैसे नहीं हैं। 

हम भिलाई गांव में पहुंचे तो देखा कि लोग एक निर्माणधीन मंदिर में रह रहे हैं। मंदिर के बाहर ही खड़े राहुल रजक ने बताया कि, ये वो लोग हैं, जिनके घर में पंद्रह-बीस दिन पहले पानी भरा गया है। इसलिए कुछ मंदिर में आ गए हैं और कुछ मंदिर के पास बनी आंगनबाड़ी में रहने लगे। इनके घरों के आसपास जल-जमाव हो चुका है। पानी के निकलने का कहीं रास्ता नहीं है।

जिन लोगोंं के घर डूब गए ऐसे कई लोग या तो निमार्णधीन मंदिर में ठहर गए या सरकारी स्कूलों में डेरा जमाए हुए हैं।

जैसे-जैसे कोसी का उफान बढ़ेगा, और बारिश होगी, वैसे-वैसे इनका खतरा भी और तेजी से बढ़ता चला जाएगा। अरापट्टी के कृष्ण देव सिंह ने बताया कि, कई बार तो रात में इतना तेज पानी आता है कि कुछ ही घंटों में पूरे के पूरे घर डूब जाते हैं इसलिए इस बार शुरूआत में जैसे ही पानी बढ़ा प्रभावित लोगों ने अपने घर छोड़ दिए। बहुत सारे लोग अब रहने के लिए हाईवे के किनारे चले गए हैं, क्योंकि वहां ऊंचाई ज्यादा है।

बहुत से लोग गांव में ही इधर-उधर झोपड़ी बनाकर रह रहे हैं। ये लोग अपने घरों को हमेशा के लिए इसलिए भी नहीं छोड़ सकते क्योंकि इनकी रोजी-रोटी की व्यवस्था यहीं से होती है। नदी के किनारे ही खेती करते हैं और यहीं रहते हैं। अरापट्टी में रोड भी कुछ सालों पहले बनी थी लेकिन अब पूरी खत्म हो गई, क्योंकि सही मटेरियल डाला ही नहीं गया।

ग्रामीणों का कहना है कि सरकार से कोई मदद नहीं मिलती। अब तो हर माह राशन लाना भी मुश्किल हो गया है।

अभी यहां से आगे के गांव में जाना है तो नाव से जाना पड़ेगा। नदी के उस तरफ जिनके घर हैं, वो भी नाव से ही जाते हैं। हालात ऐसे हैं कि किसी की तबियत खराब हो जाए तो उसे हॉस्पिटल पहुंचाना भी मुश्किल हो जाए, क्योंकि घर तक न तो चार पहिया वाहन आ सकता है और न ही दोपहिया। पहले नाव से मरीज को इस तरह लाते हैं, फिर गाड़ी में बिठाया जा सकता है। 

पिछले 36 सालों से कोसी पर अध्ययन कर रहे पेशे से इंजीनियर दिनेश कुमार मिश्र कहते हैं, '1950 से 1963 के बीच कोसी के दोनों ओर तटबंध बनाए गए। इसका मकसद कोसी के पानी को फैलने से रोकना है। यह तटबंध पश्चिम में 126 किमी और पूर्व में 125 किमी तक बने हुए हैं। सरकारी रिकॉर्ड के हिसाब से इन तटबंधों के अंदर 304 गांव आते हैं, लेकिन वास्तविकता में 380 गांव पड़ते हैं।

जब यह तटबंध बन रहे थे, तब तत्कालीन पीएम जवाहरलाल नेहरू और राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद बिहार आए थे। सरकार की घोषणा की थी कि तटबंध के अंदर जो भी गांव आ रहे हैं, उनका सभी का पुनर्वास बाहर किया जाएगा। उन्हें रहने के लिए घर बनाकर दिया जाएगा। खेती के लिए जमीन दी जाएगी।

नौकरी-धंधे की व्यवस्था भी की जाएगी लेकिन पिछले 57 सालों में यह घोषणाएं सिर्फ कागजों पर ही हैं कुछ लोगों को घर मिले हैं, लेकिन जमीन तो उनकी तटबंध पर ही है, इसलिए वो खेती करने के लिए वहीं रहने पर मजबूर हैं।' 

इस तरह से कई घर आधे पानी में डूब चुके हैं। ग्रामीणों के पास घर छोड़ने के अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं बचा।

कोसी की धाराएं लगातार बदलती हैं। पिछले करीब 60 सालों में यह 160 किमी घूम गई और सहरसा, दरभंगा तक आ गई। कभी किसी गांव को काटती है तो कभी किसी को। कभी जल-जमाव करती है तो कभी घर-खेत सब बहाकर ले जाती है। दोनों तटबंधों के बीच में 1 लाख 20 हजार हेक्टेयर जमीन पड़ती है। विडंबना ये है कि तटबंधों के बीच में आने वाले गांवों की सही जानकारी किसी को नहीं है।

सरकार कहती है इसमें 304 गांव आते हैं। पुनर्वास विभाग कहता है 285 गांव आते हैं और सालों से कोसी पर काम कर रहे दिनेश मिश्रा कहते हैं इसमें 380 गांव आते हैं। 2001 की आबादी के हिसाब से यहां 9 लाख 88 हजार लोग रहते थे। अभी कोई सही आंकड़ा सामने नहीं लाया गया है। 

बहुत से पीड़ितों ने हाईवे के किनारे इस तरह से तिरपाल बांधे हैं। पानी भराने के बाद से ये लोग यहीं रह रहे हैं।

तटबंध बनने के पहले कोई जगह सीमित नहीं थी, इसलिए पानी इधर-उधर फैल जाता था। पानी के साथ मिट्टी भी फैलती थी, लेकिन तटबंध बनने के बाद पानी अब इधर-उधर नहीं फैलता। इससे मिट्टी भी बीच में ही रह जाती है और एक ही जगह जम रही है। पानी के दबाव के चलते कई बार तटबंध टूट चुके हैं, जिससे जानमाल का भारी नुकसान हुआ है।

1963, 1968, 1971, 1980, 1984, 1987 और 2008 में तटबंध टूटने के हादसे हो चुके हैं। 2008 में जब तटबंध टूटा था तो भारी तबाही आई थी और लाखों लोग इससे प्रभावित हुए थे। तटबंधों की ऊंचाई बढ़ाना भी अब सरकार की मजबूरी हो गई है, क्योंकि नीचे गाद जमा हो रही है। कोसी की बाढ़ के चलते सहरसा, मधुबनी, सुपौल जिले तो बुरी तरह चपेट में आते हैं। खगड़िया और कटिहार को भी यह तबाह करती है। 

बाढ़ के पानी से सड़कें बीच में से इस तरह से टूट चुकी हैं। लोगों की आवाजाही लगभग बंद सी हो गई है।

कोसी हिमालय से बहती है और नेपाल से होते हुए भारत में आती है। कुछ हिस्सा इसका तिब्बत में भी है। वैसे इसका अधिकांश हिस्सा नेपाल में ही है। वहां कैचमेंट एरिया 54 हजार वर्ग किलोमीटर का है, तो भारत में यह करीब 14 हजार किमी का है। यह नेपाल के लिए भी आफत है। डीके मिश्रा के मुताबिक, सरकार खुद को बचाने के लिए यह कह देती है कि नेपाल ने पानी छोड़ा इसलिए बिहार डूब रहा है। यह सिर्फ खुद को बचाने वाला स्टेटमेंट है।

नेपाल ऊंचाई पर है और बिहार नीचे है। पानी अपनी दिशा खुद तय करता है। वहां पानी बढ़ने पर यहां बहकर आना एकदम स्वाभाविक है। हमें यह सोचना चाहिए कि यहां आने वाले पानी से होने वाली तबाही से हम कैसे बच सकते हैं। अब बिहार में 73 लाख हेक्टेयर जमीन बाढ़ प्रभावित हो चुकी है। कोसी की विनाश लीला लगातार बढ़ रही है, लेकिन सरकारें इसे कंट्रोल करने में अभी तक पूरी तरह से फेल साबित हुई हैं। 

कोसी नवनिर्माण मंच के अध्यक्ष इंद्रनारायण सिंह के मुताबिक, सरकार ने कोसी को कंट्रोल करने के लिए दोनों तरह तटबंध बना दिए, लेकिन पानी का दायर लगातार कम किया गया। जो नदी पहले 15 किमी के दायरे में बहती थी तो अब कहीं 8 तो कहीं 9 किमी के दायरे में बह रही है। गांवों को बचाने के लिए जगह-जगह सुरक्षा बांध बनाए गए हैं, लेकिन पानी का ज्यादा दबाव होने पर यह भी टूट जाते हैं।

एक गांव से दूसरे गांव में पहुंचने के लिए अब ग्रामीणों के पास सिर्फ नाव का ही सहारा है।

हमारे पूर्वजों ने तो बांध बनाने का विरोध किया था। उन्होंने कहा था कि, कोसी जहां बहती है उसे बहने दीजिए लेकिन तब सरकार ने कहा कि जो लोग बीच में फंसे हैं, उन्हें रहने के लिए नई जगह देंगे। खेती के लिए जमीन देंगे। जिसकी आस में गरीब आज तक बैठे हैं। 

बांध से हमारा गांव 6 किमी की दूरी पर है। गांव में आने-जाने के लिए हमें चार नदियों को पार करना पड़ता है। चारों जगह नाव से इधर से उधर जाते हैं। सरकार ने तो नाव तक की व्यवस्था नहीं की। अपने घर तक पहुंचने के लिए ही लोगों को पैसा देना पड़ता है। नाव नहीं होती तो घंटों फंसे ही रहते हैं। बोरहा, नवाबाखर, मौजा, सिसौनी, घोघररिया, कमलपुर, बेरिया, बसबिट्टी, डगमारा गांव बाढ़ की समस्या से जूझ रहे हैं। सहरसा के तेलवा, हाटी, सितुहर  सहित तमाम गांव भी बाढ़ के पानी की चपेट में हैं।

तटबंध के बाहर जो पानी है वो या तो बारिश के जल-जमाव का है या फिर तटबंध से हुए सीपेज का है। इस पानी की निकलने का कोई रास्ता नहीं। या तो यह आसमान में उड़ेगा या फिर जमीन में रिस जाएगा। यदि बारिश आते रही तो महीनों तक ग्रामीणों को इस समस्या से दो चार होना पड़ेगा। बाढ़ आने पर सिर्फ इंसानों को ही दिक्कत नहीं होती बल्कि मवेशी भी मारे जाते हैं। लोग राशन लेने नहीं जा पाते। जानवर भूख के चलते मर जाते हैं क्योंकि घास-भूसा ही नहीं मिल पाता। कई घरों में चूल्हे नहीं जल पा रहे। 

बहुत से ग्रामीणों के पास में राशन भी नहीं होता। जैसे-तैसे गुजारा चला रहे हैं।

सरकार ने कोसी विकास प्राधिकार बनाया, लेकिन यह कागजों तक की सीमित है। आपदा में जो रिलीफ मिलना चाहिए वो मिल ही नहीं पाता। हजारों-लाखों लोग भूखे रहते हैं। इनके भोजन का कोई इंतजाम नहीं है। बाढ़ के चलते फंसने वाले लोगों को निकालने की कोई व्यवस्था नहीं है। तटबंध के बीच में जो लोग फंसे हैं, उन्हें न जमीन के बदले जमीन मिली और न ही घर के बदले घर मिला। गिने-चुने लोगों को ही फायदा मिल पाया।

अब जिसकी जमीन बीच में फंसी है, यदि वो दूर जाकर रहने लगेगा तो खेती कैसे करेगा। कमाएगा-खाएगा कैसे। हर साल बहुत धरना प्रदर्शन होते हैं, तब जाकर सरकारी सहायता कुछ लोगों को मिल पाती है। गाद जमने से नदी का तल हर साल ऊंचा होते जा रहा है। तटबंधों की ऊंचाई भी बढ़ाई गई लेकिन इससे कब तक बिहार को बचाया जा सकेगा।

जब पानी का दबाव बढ़ेगा, तब तटबंध टूटेंगे और फिर बिहार डूबेगा। सरकार तो नेपाल में बांध बनाने की बात भी कहती है लेकिन मौजूदा हालात में तो हमारे लोग भी वहां आना-जाना नहीं कर पा रहे फिर वहां बांध बनना तो बड़ी दूर की बात है। 



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