एक गांव जहां के सभी लोग काम करने जाते थे नेपाल, बॉर्डर सील हुआ तो सब हो गए बेरोजगार

Posted By: Himmat Jaithwar
7/12/2020

रक्सौल. बिहार के पूर्वी चम्पारण के रक्सौल में एक छोटा सा गांव पंटोका है। यह गांव भारत-नेपाल की सीमा से सटा हुआ है। यहां से आधा किमी की दूरी पर नेपाल है। एक ओर कदम रखो तो भारत और दूसरी तरफ रखो तो नेपाल लग जाता है।

पंटोका के 90 प्रतिशत से ज्यादा लोग कामकाज करने नेपाल के बीरगंज जाया करते थे। कोई वहां रिक्शा चलाता था। कोई मजदूरी करता था। किसी की दुकान थी तो कोई घर बनाने का काम करता था। नेपाल जाने के लिए इन लोगों से न कभी कोई कागजात मांगे गए और न ही कोई पूछताछ हुई।

यहां की बहन-बेटियां नेपाल में ब्याही हैं और नेपाल की कई बेटियों का ससुराल पंटोका है। सालों से इन लोगों को कभी यह महसूस ही नहीं हुआ कि भारत और नेपाल दो अलग-अलग देश हैं। ये मिनटों में पैदल चलकर भारत से नेपाल पहुंच जाया करते थे। आधे घंटे साइकिल चलाई तो बीरगंज में होते थे।

लेकिन पिछले कुछ महीनों में सबकुछ बदल चुका है। अब ये लोग नेपाल जाते हैं तो वहां इन्हें पुलिस डंडे मारती है। एसएसबी के जवान सीमा से आगे बढ़ने ही नहीं देते। पिछले एक महीने में ही कई ग्रामीणों के साथ सुरक्षा बलों ने मारपीट की है।

ग्रामीणों को लगता था कि पहले लॉकडाउन के चलते ऐसा हो रहा था, लेकिन अब नेपाल में बाजार-दुकान-दफ्तर सब खुल गया है और भारत में भी अनलॉक शुरू हो चुका है,  इसके बावजूद भारत-नेपाल सीमा नहीं खुली। पंटोका में रहने वाले भुनेसरा कहते हैं, ' कमाने-खाने बीरगंज जाते थे। चार महीने से नहीं जा पाए। घर में ही बैठे हैं। क्योंकि रक्सौल में करने के लिए कुछ है ही नहीं।'

सरजूराम कहते हैं, ‘नेपाल का आदमी तो बिना डर के भारत आ रहा है, लेकिन हम लोग नहीं जा पा रहे। वहां जाओ तो नेपाल फोर्स के जवान मारते हैं। अंदर नहीं घुसने देते। जबकि वहां के लोग हमारे यहां अंदर तक घुस आते हैं।'

सरजूराम के मुताबिक, पंटोका का कोई आदमी नेपाल में ट्रांसपोर्ट का काम करता था। कोई दिहाड़ी पर जाता था। कोई रिक्शा चलाता था। सबके पास करने के लिए कुछ न कुछ था। कई लोग फैक्ट्री में काम करते थे। लॉकडाउन लगने के बाद से सब बंद है। अब दोनों देशों के बीच तनातनी चल रही है तो क्या पता पहले की तरह बॉर्डर कब खुलेगी।

अब नेपाल के लोग नहीं चाहते, हम उनके साथ काम करें

बच्चासा पिछले तीन महीनों से अपनी दुकान नहीं खोल पाए हैं। कहते हैं अब तो सामान भी खराब हो गया होगा।

पंटोका के ही बच्चासा ने बताया कि, ‘मेरी नेपाल में किराने की दुकान है। पंटोका से महज आधा किमी दूर है। लेकिन चार महीने से दुकान भी नहीं खोल पाया। उसमें रखा बहुत सा सामान खराब हो गया होगा। इमरजेंसी में भी हमें कोई वहां घुसने नहीं दे रहा। जबकि उनके लोग चोरी-छुपे आ रहे हैं और कपड़ा-किराना यहां से लेकर जा रहे हैं।'

बच्चासा कहते हैं कि, भारत और नेपाल दो अलग-अलग देश हैं ऐसा हमें कभी लगा ही नहीं। न कभी कोई जांच हुई, न पड़ताल। कोई कागज कभी नहीं लगा। बस साइकिल उठाई और पहुंच गए नेपाल। अपनी जिंदगी में पहली दफा ऐसा देख रहे हैं कि बॉर्डर सील है और यहां-वहां से आने-जाने पर रोक है। संतोषी देवी कहती हैं कि, पहले दिन में एक भी आदमी गांव में नहीं होता था लेकिन अब सब दिनभर सड़क पर घूमते रहते हैं।

दुर्गाप्रसाद कहते हैं, हमारे नेपाल न जाने से वहां के कारीगर खुश हैं। उनकी डिमांड बढ़ गई।

दुर्गाप्रसाद कुशवाह के मुताबिक, अब नेपाल के लोग भी नहीं चाहते कि हम उनके साथ काम करें। क्योंकि हमारे नहीं जाने से उन्हें ज्यादा मजदूरी मिलने लगी है। दुर्गाप्रसाद कहते हैं, बिहारी सबसे अच्छे कारीगर होते हैं। बीरगंज में नेपाली हमारे हेल्पर होते थे और हम कारीगर। हमें आठ सौ रुपया रोज मिलता था और उन्हें चार सौ रुपया।

अब हम नहीं जा रहे तो उनकी डिमांड बढ़ गई। उन्हें छ सौ रुपया मिलने लगा। हेल्पर थे तो थोड़ा बहुत काम सीख गए थे। इसलिए अब वो लोग भी नहीं चाहते कि हम वहां जाएं। वो लोग चाहते हैं कि दोनों देशों में लड़ाई और बढ़े और सरकार हमें नेपाल में न घुसने दे।

आठ साल का बेटा नेपाल में फंसा है, ला नहीं पा रहे

रामबाबू ने अपने बच्चे को लाने के लिए कई जतन कर लिए लेकिन अब तक ला नहीं पाए।

पंटोका के रामबाबू की परेशानी थोड़ी अलग है। उनका आठ साल का बच्चा पिछले चार महीने से नेपाल में फंसा है, लेकिन वो उसे पंटोका नहीं ला पा रहे। रामबाबू कहते हैं, मेरी नेपाल में ससुराल की तरफ की रिश्तेदारी है, वहीं बच्चा गया था। फिर लॉकडाउन लग गया तो वो वहीं फंसा रह गया।

अब जब नेपाल और भारत दोनों में ही लॉकडाउन खुल रहा है तब भी मैं अपने बच्चे को नहीं ला पा रहा क्योंकि बॉर्डर सील है। एक बार लेने निकला भी था लेकिन सीमा पर तैनात जवानों ने डंडा मारकर भगा दिया। रामबाबू के मुताबिक, नेपाल के लोग हर रोज सब्जी-किराना खरीदने भारत आ जाते हैं। लेकिन हम लोग यहां से नहीं जा पाते।

वे कहते हैं नेपाली या तो खेत से आते हैं या फिर सुरक्षा जवानों को पैसे देकर अंदर घुस जाते हैं। हमारे पास जवानों को देने के लिए पैसे नहीं हैं इसलिए हम उधर नहीं जा पा रहे। अब रामबाबू को बॉर्डर खुलने का इंतजार है, ताकि वो अपने आठ साल के बच्चे को अपने गांव ला सकें।

शादी करने लड़की अकेली आई, परिवार को आने नहीं दिया

पंटोका के लवकुश की नेपाल की संगीता से अप्रैल में शादी होना तय थी। फिर लॉकडाउन लग गया और बॉर्डर सील हो गई। लवकुश ने बताया कि जून में लॉकडाउन खुलने के बाद हमने शादी की तारीख तय की लेकिन नेपाल से लड़की के किसी भी रिश्तेदार को भारत नहीं आने दिया गया। पूरे परिवार को छोड़कर लड़की अकेली ही रक्सौल आ गई।

फिर ग्रामीणों ने दोनों की शादी करवा दी। इसमें लड़के का तो पूरा परिवार था लेकिन लड़की तरफ से कोई नहीं था। शादी के बाद से अभी तक लड़की नेपाल नहीं जा सकी है और उसके परिवार का भी कोई भारत नहीं आया है। दोनों को ही बॉर्डर खुलने का इंतजार है, ताकि पहले की तरह ये वहां जा सकें और वो लोग यहां आ सकें।

पत्नी का आखिरी बार चेहरा भी नहीं देख सके

देवशरण अपनी पत्नी का आखिरी दफा चेहरा भी नहीं देख पाए। उनकी पत्नी और बच्चा दोनों ही नहीं रहे।

देवशरण की पत्नी नेपाली की थीं। डिलीवरी होने वाली थी तो देवशरण पत्नी को उसके मां-बाप के पास ही छोड़ आए थे। डिलीवरी के दौरान ही उसकी तबीयत बिगड़ गई। शरीर में खून की कमी हो गई। डॉक्टर्स ने कहा कि, इसको बचा पाना मुश्किल है। उसके परिवार ने तुरंत देवशरण को इस बारे में बताया और नेपाल बुलाया। तमाम कोशिशों के बाद भी देवशरण को बॉर्डर से एंट्री नहीं मिल पाई।

उसने बताया कि मेरी पत्नी जिंदगी-मौत के बीच झूल रही है तो जवानों ने कहा कि अभी नेपाल के साथ टेंशन चल रही है, तुम वहां नहीं जा सकते। पत्नी ने बच्चे को जन्म तो दिया लेकिन न मां जिंदा बची और न ही बच्चा। परिवार ने दोनों का अंतिम संस्कार कर दिया। देवशरण पत्नी का आखिरी बार चेहरा भी नहीं देख पाया। कहता है, मैंने कभी नहीं सोचा था कि भारत और नेपाल के बीच ऐसे हालात बनेंगे।



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