गुरुकुल परंपरा समाप्त हुई लेकिन गुरु का महत्व आज भी जीवन में उतना ही है

Posted By: Himmat Jaithwar
7/5/2020

डॉ. प्रणव पण्ड्या. आषाढ़ पूर्णिमा को गुरु पूर्णिमा के रूप में मनाने की परंपरा इस देश में प्राचीन काल से चली आ रही है। इसे व्यास पूर्णिमा भी कहते हैं। इस देश की गुरु-शिष्य परंपरा गौरवमीय परंपरा रही है। चाणक्य-चन्द्रगुप्त, समर्थगुरु रामदास-शिवाजी, स्वामी रामकृष्ण परमहंस-विवेकानन्द, स्वामी विरजानंद-दयानंद सरस्वती गुरु-शिष्य परंपरा के अनूठे उदाहरण हैं।

संत कबीर दास जी ने महात्मा रामानन्द जी के चरण स्पर्श को ही आधार मानकर उन्हें अपना गुरु मान लिया था। महाभारत के एक पात्र एकलव्य को उच्चकोटि का साधक माना जाता है। गुरु-शिष्य परम्परा भारत में ही नहीं, प्राचीन यूनान में भी प्रचलित थी। सुकरात-प्लेटो, प्लेटो-अरस्तु, अरस्तु-सिकन्दर गुरु-शिष्य की परम्परा में काफी विख्यात हैं। सिख धर्म ने गुरु के प्रति समर्पण की मिसाल रखी हैं।
उपनिषद् में मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, गुरुदेवो भव कहकर गुरु का महत्त्व माता-पिता के तुल्य बताया है। प्राचीन काल में आध्यात्मिक एवं लौकिक ज्ञान की प्राप्ति के लिए विद्यार्थी को गुरुकुल भेजने की परम्परा थी। कालक्रम से इस परम्परा का लोप होता गया, फिर भी गुरु की महत्ता इस देश में विद्यमान है। किसी जमाने में प्रत्येक व्यक्ति को गुरु से मार्गदर्शन लेना अनिवार्य था और जो बिना गुरु के होता था, उसकी निगुरा कहकर सामाजिक भत्र्सना होती थी।
विद्या एवं उच्चस्तरीय ज्ञान के क्षेत्र के अतिरिक्त मानवीय चेतना को जाग्रत एवं झंकृत कर भावभरे आदर्शमय मानवीय जीवन के लिए गुरु का मार्गदर्शन एवं संरक्षण आवश्यक है। यह कार्य सद्गुरु द्वारा ही सम्पन्न होता है। आध्यात्मिक उन्नति के लिए समर्थ गुरु के शरणागत होना अनिवार्य है।
धार्मिक दृष्टि से गुरु को ब्रह्मा, विष्णु, महेश एवं परब्रह्म कहा जाता है। गुरु-शिष्य को जीवन-लक्ष्य तथा परमात्म-सृष्टि के उद्देश्य से अवगत कराता है एवं दोनों का सामंजस्य करा देता है। परमात्म-सृष्टि क्या है, उसका प्रयोजन क्या है, उस मार्ग का अनुगमन कैसे हो, यह गुरु-प्रदत्त ज्ञान से ही संभव है। गुरु के प्रति श्रद्धा-निष्ठा से ही शिष्य गुरु की कृपा का पात्र बनता है। शिष्य को निखारने में ही गुरु की संतुष्टि व आत्म-तृप्ति होती है।
स्वामी दयानंद सरस्वती अपने गुरु स्वामी विरजानन्द से वेद ज्ञान प्राप्त करने के उपरांत एक थाली लौंग लेकर उन्हें गुरू दक्षिणा देने के लिए उपस्थित हुए। स्वामी विरजानन्द जी ने उन्हें वेद प्रचार-प्रसार का आदेश दिया। दयानन्द सरस्वती इसे स्वीकार कर जीवन पर्यन्त वेदों की शिक्षा का ज्ञान भारवासियों को देते रहे।
वर्तमान काल में योग्य, दृढ़-चरित्र, विचारवान्, ब्रह्मवेत्ता गुरु मिलना प्राचीन काल की तरह संभव नहीं है। फिर भी प्रयास करने से ऐसे ब्रह्मवेत्ता आज भी उपलब्ध हो सकते हैं। पं. श्रीराम शर्मा आचार्य इसी श्रेणी के गुरु हैं, जिन्होंने अपने अनगिनत शिष्यों का सही मार्गदर्शन कर उन्हें परमार्थ के कठिन मार्ग पर सुगमता से चलाया है।

लाखों गया गुजरा जीवन व्यतीत करने वालों को अमृत पान कराया है। जीवन भर जिस स्नेह व आत्मीयता को उन्होंने बाँटा है, उससे लाखों परिजनों की जीवन धारा बदली है तथा अध्यात्म के शुष्क होते हुए पथ पर हरियाली लायी है। विचार की महत्ता को जनमानस में बोध कराया है एवं अपने तप से सोई हुई राष्ट्र की कुण्डलिनी को जगाया है।
वे माता-पिता धन्य हैं, वे कुल-गोत्र धन्य हैं, वह धरती धन्य है, जहाँ गुरु के प्रति नमन, वन्दन होता है। आदि शंकराचार्य ने गुरु को गायत्री का प्रतिरूप बताया है, जिसके वचनामृत संसार की संगति से उत्पन्न विषों का हनन करने में समर्थ हैं।



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