नई दिल्ली. तारीख थी 21 अक्टूबर 2010 और जगह देश की राजधानी दिल्ली का एलटीजी ऑडिटोरियम। इस ऑडिटोरियम में सैयद अली शाह गिलानी वामपंथी कार्यकर्ताओं के एक सम्मेलन को संबोधित कर रहे थे। इस सम्मेलन का विषय था- "आजादी-द ओनली वे'। हॉल में मंच पर अरुंधति रॉय, वरवारा राव और एसएआर गिलानी भी बैठे हुए थे और नारे गूंज रहे थे "हम क्या चाहते आजादी'। सैयद अली शाह गिलानी जम्मू-कश्मीर पर भारत के रवैये के खिलाफ थे।
सोमवार सुबह अचानक गिलानी ने अलगाववादी संगठन हुर्रियत कॉन्फ्रेंस से इस्तीफे की घोषणा कर दी। 47 सेकंड की एक ऑडियो क्लिप में 91 साल के गिलानी ने कहा कि उन्होंने संगठन के मौजूदा हालात को देखते हुए हुर्रियत से अलग होने का फैसला लिया है। बाद में दो पन्ने के एक लेटर में उन्होंने अपने अलगाववादी साथियों पर राजनीतिक भ्रष्टाचार और फाइनेंशियल गड़बड़ियां करने का आरोप लगाया। इसके साथ ही उन्होंने पाकिस्तान में हुर्रियत के अलगाववादियों पर भी मजहब को गलत तरीके से पेश करने और फैसले लेने से पहले उनसे सलाह न लेने का दोषी ठहराया।
हुर्रियत के पतन को राजनीतिक भ्रष्टाचार के परिणाम के तौर पर देखा जा रहा है, क्योंकि गिलानी इतने सालों से निर्दोष कश्मीरियों की मौत पर चुप रहे और हमेशा तहरीक (आंदोलन) पर अपने परिवार को वरीयता दी। गिलानी ने अपने बच्चों और पोतों के लिए सरकारी नौकरी सुरक्षित रखने की कोशिश की, जिसे उनके सबसे करीबी दोस्तों और साथियों ने विश्वासघात के रूप में देखा।
90 के दशक में गिलानी ने कट्टरपंथ का रास्ता अपनाया
गिलानी तीन बार जम्मू-कश्मीर विधानसभा में विधायक चुनकर आए। उन्होंने भारत के संविधान की शपथ ली थी। गिलानी के कट्टरपंथी बनने का रास्ता 90 के दशक में तब शुरू हुआ, जब घाटी से कश्मीरी पंडितों का पलायन हो रहा था। गिलानी पहले एक शिक्षक थे, लेकिन बाद में वो जमात की तरफ खींचते चले गए। 90 के दशक की शुरुआत से, गिलानी ने ये प्रचार करना शुरू कर दिया कि इस्लाम को हिंदू भारत से बचाने के लिए कश्मीर की आजादी जरूरी थी। इससे वो पाकिस्तान के करीब आते गए और धीरे-धीरे कश्मीर में भारत के खिलाफ जिहाद करने पर उतर आए।
गिलानी ने शुरू में निजाम-ए-मुस्तफा (पैगंबर का आदेश) का विचार कश्मीर में फैलाया, लेकिन बाद में यही विचार "गिलानी वाली आजादी' के रूप में बदल गया, जिसका मतलब था हिंसक रास्तों पर चलना। बाद में ये सब हाथ से निकलकर आतंकवाद बन गया और जिहादी मानसिकता खुद गिलानी से बड़ी हो गई।
2008 से 2010 तक और आखिरकार 2016 में भी, गिलानी ने बड़े पैमाने पर हिंसक विरोध प्रदर्शनों को उकसाने और जम्मू-कश्मीर में एक सांप्रदायिक विभाजन को भड़काने में कोई कसर नहीं छोड़ी। आज गिलानी खुद अलग-थलग पड़ गए हैं।
हुर्रियत अलगाववाद की कमर तोड़ने के लिए भारत सरकार ने अब चुप रहने का ही रास्ता चुन लिया है। हालांकि, सूत्रों से पता चलता है कि गिलानी को पाकिस्तान का समर्थन करने की अपनी मूर्खता का एहसास हो गया है।लोकल आबादी को खत्म करने के लिए पाकिस्तान सालों से कश्मीर में हथियारों और नशीली दवाओं का इस्तेमाल कर रहा है। सूत्र कहते हैं कि अब पाकिस्तान ने गिलानी को समझा दिया है कि वो अब उनके लिए उतने उपयोगी नहीं रह गए हैं।
क्या परिवार की वजह से हुर्रियत में दरार पड़ी?
गिलानी के इस फैसले से उस जॉइंट रेसिस्टेंस लीडरशिप को भी झटका लगा है, जो उन्होंने कुछ साल पहले मीरवाइज उमर फारूक और यासीन मलिक के साथ मिलकर बनाई थी। यासीन मलिक दिल्ली की तिहाड़ जेल में है और मीरवाइज उमर फारुक हाउस अरेस्ट हैं। कोई भी अलगाववादी नेता इस पर कुछ भी कहने से बच रहा है।
क्योंकि, गिलानी के अचानक इस्तीफे के कारणों पर बहस जारी है और अब ध्यान हुर्रियत के भीतरी नेतृत्व संकट की ओर जाता है। गिलानी की जगह कौन होगा? इस पर अभी कुछ तय नहीं है। हालांकि, सालों से पत्थरबाजी का काम कर रहे मसरत आलम को गिलानी के विकल्प के तौर पर देखा जा रहा है, लेकिन वो अभी तिहाड़ जेल में है। उसके अलावा अशरफ सहराई का नाम भी चर्चा में है।
हुर्रियत के नेता नईम खान ने गिलानी पर लगाया था आरोप
हुर्रियत में भीतरी दरार कोई नया मामला नहीं है। मई 2017 में एक पत्रकार को नईम खान और अहसान डार के बीच हुई बातचीत का एक ऑडियो मिला था। इस बातचीत में हुर्रियत के नेता नईम खान ने हिजबुल मुजाहिदीन के फाउंडर अहसान डार से कहा था कि जब हवाला फंडिंग के मामले में एनआईए ने उनके घर पर छापा मारा था, तब गिलानी ने उनकी कोई मदद नहीं की थी। बातचीत में नईम खान ने तो ये तक कहा था कि अगर गिलानी की मौत हो जाती है, तो उनके जनाजे में उनके परिवार के अलावा और कोई भी कश्मीरी शामिल नहीं होगा।
ऑडियो क्लिप में नईम खान को ये कहते हुए भी सुना गया था कि गिलानी ने उन्हें बलि का बकरा बनाया। हालांकि, उसके बाद भी वो एनआईए की जांच में अडंगा लगाते रहे। नईम ने कहा था, "ये कैसी तहरीक (आंदोलन) है? उधर कश्मीर में मेजर गोगोई को भारतीय सेना सम्मानित करती है और यहां हमें डिमोरलाइज्ड किया जाता है। जब मुझे उनकी सबसे ज्यादा जरूरत थी, तब उन्होंने (गिलानी ने) मुझे छोड़ दिया।'
नईम ने कहा था कि गिलानी का एक ही मकसद है कि जब तक वो जिंदा हैं, तब तक वही लीडर रहेंगे और उनकी मौत के बाद उनके परिवार का कोई व्यक्ति लीडर बनना चाहिए। अल्ताफ फंटोश न सिर्फ गिलानी के दामाद हैं, बल्कि हुर्रियत की एग्जीक्यूटिव काउंसिल के सदस्य भी हैं।
मार्च 2013 में मैंने दक्षिण दिल्ली में मालवीय नगर में स्थित खिरकी एक्सटेंशन हाउस में गिलानी का इंटरव्यू लिया। ये वही जगह थी, जहां गिलानी सालों से पाकिस्तानी उच्च आयुक्त से मिलते थे और उनसे पैसा भी लेते थे। गिलानी ने उस समय भी पाकिस्तानी आतंकवादियों और निर्दोष कश्मीरियों की हत्या से जुड़े ज्यादातर सवालों का जवाब देने से इनकार कर दिया।
जब गिलानी से पाकिस्तानी आतंकी हाफिज सईद और यासीन मलिक के एक ही मंच साझा करने पर सवाल किया गया, तो उन्होंने हंसते हुए कहा, "ये मेरे लिए अप्रासंगिक सवाल है और मुझे इसका जवाब देने की जरूरत नहीं है।' इसके बाद जब गिलानी से हिजबुल मुजाहिदीन और उसके चीफ कमांडर सैयद सलाहुद्दीन के बारे में पूछा गया तो गिलानी ने कहा, "अगर कश्मीर में आतंकवाद और गन कल्चर आता है, तो इसका जिम्मेदार भारत सरकार है।'
ईडी ने गिलानी पर 14.4 लाख रुपए का जुर्माना लगाया था
6 साल बाद मार्च 2019 में इनकम टैक्स डिपार्टमेंट ने गिलानी के खिरकी एक्सटेंशन निवास को सील कर दिया, क्योंकि वो 1996-97 से 2001-02 तक का टैक्स भरने में नाकाम रहा था। इसके साथ ही गिलानी पर उसकी प्रॉपर्टी को ट्रांसफर करने से भी रोक दिया गया। इससे पहले ईडी ने गिलानी पर 2002 में अवैध तरीके से 10 लाख रुपए कमाने और 10 हजार डॉलर की हेराफेरी करने के आरोप में 14.4 लाख रुपए का जुर्माना भी लगाया था।
गिलानी की वजह से ही कश्मीरी युवा पत्थरबाज बनने पर मजबूर हुए
पिछले कुछ सालों में गिलानी की कई आतंकवादियों के साथ तस्वीरें सोशल मीडिया पर सामने आई हैं। पाकिस्तान के नेताओं के साथ भी गिलानी की बातचीत किसी से छुपी नहीं है। गिलानी की वजह से ही कश्मीरी युवा पत्थरबाज बनने या आत्मघाती हमलावर बनने पर मजबूर हुए हैं।
एनआईए और जम्मू-कश्मीर पुलिस समेत कई भारतीय एजेंसियों ने अपनी जांच में ये भी पाया है कि गिलानी और उनके अलगाववादी साथियों ने कश्मीरी युवाओं को हायर एजुकेशन के लिए पाकिस्तान का वीजा दिलाने के लिए पाकिस्तानी हाई कमिश्नर से सिफारिश की थी। ये वही युवा थे, जिन्हें हायर एजुकेशन की आड़ में पाकिस्तान की आईएसआई हथियार चलाने की ट्रेनिंग देती थी और बाद में ये युवा कश्मीर में सुरक्षाबलों के एनकाउंटर में मारे गए।
इतना ही नहीं, पाकिस्तान के आतंकवादियों के चंगुल से बचकर आए लोगों के माता-पिता के प्रति गिलानी ने कभी कोई सहानुभूति नहीं जताई। इसके बजाय गिलानी ने युवाओं को आतंक के आत्मघाती रास्ते पर धकेलना चुना।
जैसे-जैसे गिलानी राजनीति की गुमनामी में ढलते गए, वैसे-वैसे उनके साथी अलगाववादियों के पास सिर्फ दो ही रास्ते रह गए। पहला कि वो भी गिलानी की तरह ही पाकिस्तान की कठपुतली बनकर रह जाएं या फिर जम्मू-कश्मीर के विकास और भविष्य में यहां के युवाओं को मौका दें। गिलानी का इस्तीफा उन लोगों के लिए एक मौका है, जो कट्टरपंथ पर एजुकेशन को, एनकाउंटर पर सिनेमा को और गन कल्चर पर क्रिएटिव आर्ट्स को तरजीह देते हैं।
सरकार को हुर्रियत पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए
घाटी में एक इंटरनल इकोसिस्टम बना है, जो अलगाववाद और आतंकवाद को फलने-फूलने देता है। बीमारी का इलाज करने की बजाय, उसके लक्षणों को ठीक करना चाहिए। अभी के लिए सरकार हुर्रियत को अपनी मौत मरने का विकल्प चुनने दे सकती है, लेकिन उसे इस्लामी संगठन पर प्रतिबंध लगाने से नहीं कतराना चाहिए, जिसने घाटी में सिर्फ जिहादी विचारधारा को बढ़ावा दिया।
गिलानी भले ही अगस्त 2019 में जम्मू-कश्मीर से आर्टिकल 370 हटने के बाद हुए विरोध प्रदर्शन या आंदोलन के लिए अपने अलगाववादियों की विफलता की जिम्मेदारी लेने से भाग सकते हैं, लेकिन लोग न ही कश्मीरियों की हत्या को आसानी से न भूल सकते हैं और न ही उन्हें माफ कर सकते हैं।
कश्मीर की सड़कों पर इस्लामिक कट्टरपंथी के खून और पाकिस्तान के छद्म युद्ध पर चुप्पी ने कश्मीर में एक पूरी पीढ़ी को बर्बाद कर दिया। हजारों मांओं ने अपने बच्चों को खो दिया है और आजादी की इस नासमझी लड़ाई में हजारों बच्चे अनाथ हो गए। कश्मीर में आतंकवाद के मरने वाले हर मासूम की कब्र पर सैयद अली शाह गिलानी का नाम हत्यारे के रूप में लिखा जाएगा।