रथों के निर्माण के लिए 150 विश्वकर्मा सेवक 15-16 घंटे रोज करेंगे काम, ना घर जाएंगे, ना किसी से मिलेंगे

Posted By: Himmat Jaithwar
5/10/2020

भोपाल. उड़ीसा के पुरी में भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा की तैयारियां शुरू हो गई हैं। शुक्रवार को भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा के रथों का निर्माण शुरू हो गया है। 12 दिन देरी से शुरू हुए रथों को पूरा करने के लिए 150 विश्वकर्मा सेवक दिन में 15 से 16 घंटे काम करेंगे। रथखला में (जहां रथ बनाए जा रहे हैं।) सुबह 8 से रात 10 तक लगातार काम जारी रहेगा। इस दौरान ना तो ये किसी से मिलेंगे, ना ही अपने घर जाएंगे। जिस रथखला में रथ निर्माण का काम चल रहा है, वहां बाहरी लोगों का प्रवेश भी बंद कर दिया गया है। 

मंदिर समिति और रथ निर्माण से जुड़े लोगों के मुताबिक, रथ निर्माण के लिए सभी विश्वकर्मा सेवकों के काम निश्चित हैं, वे अपनी जिम्मेदारियों के हिसाब से काम में जुटे हुए हैं। रथ निर्माण शास्त्रोक्त तरीकों से किया जाता है। रथ निर्माण की विधि विश्वकर्मिया रथ निर्माण पद्धति, गृह कर्णिका और शिल्प सार संग्रह जैसे ग्रंथों में है, लेकिन विश्वकर्मा सेवक अपने पारंपरिक ज्ञान से ही इनका निर्माण करते हैं। ये परंपरा बरसों से चली आ रही है। श्री जगन्नाथ मंदिर प्रबंधन समिति के मुख्य प्रशासक डॉ. किशन कुमार के मुताबिक, सभी विश्वकर्मा सेवकों को मंदिर के रेस्टहाउस आदि में ठहराया गया है। सोशल डिस्टेंसिंग का ध्यान रखते हुए ही सारा काम किया जा रहा है।  

  • वसंत पंचमी से शुरू होता है रथ की लकड़ी का चुनाव

वैसे तो रथों का निर्माण अक्षय तृतीया से शुरू होता है लेकिन, इसकी प्रक्रिया वसंत पंचमी से शुरू हो जाती है। मंदिर समिति का एक दल वसंत पंचमी से ही रथ के लिए पेड़ों का चयन शुरू कर देता है। इस दल को महाराणा भी कहा जाता है। ये रथ निर्माण में पुरी से लगे हुए दसपल्ला जिले के जंगलों से ही ज्यादातर नारियल और नीम के पेड़ काटकर लाए जाते हैं। नारियर के तने लंबे होते हैं और इनकी लकड़ी हल्की होती है। पेड़ों को काटकर लाने की भी पूरी विधि निर्धारित है। उस जंगल के गांव की देवी की अनुमति के बाद ही लकड़ियां लाई जाती हैं। पहला पेड़ काटने के बाद पूजा होती है। फिर गांव के मंदिर में पूजा के बाद ही लकड़ियां पुरी लाई जाती हैं। 

स्कैच - गौतम चक्रवर्ती
  • अक्षय तृतीया पर होता है निर्माण शुरू

हालांकि, इस बार अक्षय तृतीया के 12 दिन बाद निर्माण शुरू हो पाया है लेकिन हर साल अक्षय तृतीया पर ही इसकी शुरुआत होती है। जिस दिन से रथ बनने शुरू होते हैं, उसी दिन से चंदन यात्रा भी शुरू होती है। कटे हुए तीन तनों को मंदिर परिसर में रखा जाता है। पंडित तनों को धोते हैं, मंत्रोच्चार के साथ पूजन होता है और भगवान जगन्नाथ पर चढ़ाई गई मालाएं इन पर डाली जाती हैं। मुख्य विश्वकर्मा इन तीनों तनों पर चावल और नारियल चढ़ाते हैं। इसके बाद एक छोटा सा यज्ञ होता है और फिर निर्माण के औपचारिक शुभारंभ के लिए चांदी की कुल्हाड़ी से तीनों लकड़ियों को सांकेतिक तौर पर काटा जाता है। 

भगवान जगन्नाथ का रथ बनाने वाले कारीगरों को विश्वकर्मा सेवक कहा जाता है। ये वंश परंपरा के अनुसार ही रथ निर्माण का कार्य करते आ रहे हैं। तीन रथों के लिए तीन मुख्य विश्वकर्मा नियुक्त होते हैं।
  • 8 तरह के कारीगर बनाते हैं रथ 

भगवान जगन्नाथ का रथ बनाने का काम आमतौर पर पुश्तैनी काम जैसा ही है। इन कलाकारों के पूर्वज भी यही करते रहे हैं। इस कारण रथ निर्माण में इन लोगों की विशेष योग्यता है। इन्हें बिना किसी किताबी ज्ञान के परंपराओं के आधार पर ही रथ निर्माण की बारीकियां पता हैं। रथ निर्माण में 8 तरह के अलग-अलग कला के जानकार होते हैं। इनके अलग-अलग नाम भी होते हैं। 

गुणकार- ये रथ के आकार के मुताबिक लकड़ियों की साइज तय करते हैं। 
पहि महाराणा- रथ के पहियों से जुड़ा काम इनका होता है। 
कमर कंट नायक/ओझा महाराणा- रथ में कील से लेकर एंगल तक लोहे के जो काम होते हैं वो इनके सुपुर्द होते हैं। 
चंदाकार- इनका काम रथों के अलग-अलग बन रहे हिस्सों को असेंबल करने का होता है। 
रूपकार और मूर्तिकार- रथ में लगने वाली लकड़ियों को काटने का काम इनका होता है। 
चित्रकार- रथ पर रंग-रोगन से लेकर चित्रकारी तक का सारा काम इनके जिम्मे होता है। 
सुचिकार/ दरजी सेवक- रथ की सजावट के लिए कपड़ों के सिलने और डिजाइन का काम इनका होता है। 
रथ भोई- ये मूलतः कारीगरों के सहायक और मजदूर होते हैं। 

रथ निर्माण के लिए जो रथखला तैयार की जाती है, उसमें नारियल के पत्तों और बांस से छत तैयार की जाती है। इस विशेष पंडाल में किसी भी बाहरी व्यक्ति का प्रवेश बंद है। 
  • 200 फीट लंबी रथखला में हो रहा है काम 

रथ निर्माण के लिए मंदिर परिसर में ही अलग से लगभग 200 फीट लंबा एक पंडाल बनाया गया है। यहीं रथ का निर्माण चल रहा है। ये पांडाल नारियल के पत्तों और बांस से बनता है। रथ निर्माण की सारी सामग्री और लकड़ियां यहीं रखी जाती हैं। नारियल के पेड़ों की ऊंची लकड़ियों को यहीं पर रख के बेस, शिखर, पहिए और आसंदी के नाप के मुताबिक काटा जाता है। सारे हिस्से अलग-अलग बनते हैं और एक टीम होती है जो इनको एक जगह इकट्ठा करके जोड़ती है। इनकी फिटिंग का काम करती है। इस सभी कामों के लिए अलग-अलग टीमें होती हैं। 

  • कैसे होते हैं रथ यात्रा में निकलने वाले रथ 

भगवान जगन्नाथ का रथ- इसके कई नाम हैं जैसे- गरुड़ध्वज, कपिध्वज, नंदीघोष आदि। 16 पहियों वाला ये रथ 13 मीटर ऊंचा होता है। रथ के घोड़ों का नाम शंख, बलाहक, श्वेत एवं हरिदाश्व है। ये सफेद रंग के होते है। सारथी का नाम दारुक है। रथ पर हनुमानजी और नरसिंह भगवान का प्रतीक होता है। रथ पर रक्षा का प्रतीक सुदर्शन स्तंभ भी होता है। इस रथ के रक्षक गरुड़ हैं। रथ की ध्वजा त्रिलोक्यवाहिनी कहलाती है। रथ की रस्सी को शंखचूड़ कहते हैं। इसे सजाने में लगभग 1100 मीटर कपड़ा लगता है। 
  

बलभद्र का रथ- इनके रथ का नाम तालध्वज है। रथ पर महादेवजी का प्रतीक होता है। इसके रक्षक वासुदेव और सारथी मातलि हैं। रथ के ध्वज को उनानी कहते हैं। त्रिब्रा, घोरा, दीर्घशर्मा व स्वर्णनावा इसके अश्व हैं। यह 13.2 मीटर ऊंचा और 14 पहियों का होता है। लाल, हरे रंग के कपड़े व लकड़ी के 763 टुकड़ों से बना होता है। रथ के घोड़े नीले रंग के होते हैं। 

सुभद्रा का रथ- इनके रथ का नाम देवदलन है। रथ पर देवी दुर्गा का प्रतीक मढ़ा जाता है। इसकी रक्षक जयदुर्गा व सारथी अर्जुन हैं। रथ का ध्वज नदंबिक कहलाता है। रोचिक, मोचिक, जीता व अपराजिता इसके अश्व होते हैं। इसे खींचने वाली रस्सी को स्वर्णचूड़ा कहते हैं। ये 12.9 मीटर ऊंचा और 12 पहियों वाला रथ लाल, काले कपड़े के साथ लकड़ी के 593 टुकड़ों से बनता है। रथ के घोड़े कॉफी कलर के होते हैं।



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