समानता जरूरी: यह नहीं चल सकता कि न्यूज प्रोड्यूसर सारा खर्च उठाएं और गूगल-फेसबुक मुनाफे की मलाई मार जाएं

Posted By: Himmat Jaithwar
4/23/2020

मार्क ट्वेन के टॉम सौयर को याद कीजिए जो गर्मी के तपते दिन में अपने दोस्तों से चारदीवारी की पेंटिंग कराता है और उन्हें उनके श्रम का पारिश्रमिक देने से भाग जाता है। भारतीय मीडिया कंपनियां भी फेसबुक और गूगल को लेकर इसी तरह की स्थिति में हैं। ये डिजिटल प्लेटफॉर्म्स समाचार सामग्री को और ज्यादा लोगों तक पहुंच के लिए कृतज्ञता की मांग करते हैं और जब अच्छी खासी लागत से तैयार हुई सामग्री के लिए राजस्व को साझा करने की बात आती है तो ये बहरे हो जाते हैं। गूगल और फेसबुक को न्यूज गेदरिंग के लिए निवेश करने की जरूरत नहीं पड़ती लेकिन ये इनके जरिए विज्ञापनों के रूप में राजस्व पाते हैं और पत्रकारिता के लिए मामूली रकम अदाकर खुद करीब खरबों डॉलर कमाते हैं। केंद्र को इस तरह की लूट का उसी तरह संज्ञान लेना चाहिए जैसे ऑस्ट्रेलिया ने गूगल और फेसबुक को लोकल मीडिया कंपनियों के साथ ऑनलाइन ऐडवर्टाइजमेंट रेवेन्यू को साझा करने के लिए मजबूर करके लिया है।

कोविड-19 की वजह से ऐडवर्टाइजमेंट रेवेन्यू धराशायी हुआ है, इसलिए अधिकारियों को तत्काल डिजिटल प्लेटफॉर्मों और न्यूज आउटलेट्स के बीच इस स्पष्ट असंतुलन की समस्या को देखना चाहिए। न्यूज आउटलेट्स उच्च गुणवत्ता की सामग्री को प्रकाशित करने के लिए न्यूज गेदरिंग ऑपरेशंस में बड़े पैमाने पर मानव और वित्तीय संसाधनों का निवेश करते हैं। उनकी सामग्री फैक्ट चेक्ड होती हैं और प्रासंगिकता, संक्षिप्तता और स्टाइल के लिए बड़े ही करीने से एडिट की गई होती हैं। प्राकृतिक आपदाओं, सांप्रदायिक दंगों और कोविड-19 जैसी हेल्थ इमर्जेंसी के वक्त पत्रकार खुद को गंभीर जोखिम में डालकर नागरिकों के लिए सही सूचनाएं लाते हैं।

अगर गूगल और फेसबुक न्यूजपेपर इंडस्ट्री को बर्बाद करने में कामयाब हो गए तो यह लोकतंत्र, लोक व्यवस्था या आजीविका के लिए अच्छी खबर नहीं होगी। जनहित के लिए पत्रकारिता एक स्वतंत्र आउटलेट प्रदान करता है। इसके अलावा यह देश और नागरिकों को सोशल मीडिया की वजह से फैलने वाली उन गलत सूचनाओं से भी बचाता है जो अविश्वास, भय और उन्माद पैदा करती हैं। डिजिटल प्लेटफॉर्म एक तरफ तो न्यूज से पैसे बना रहे हैं और दूसरी तरफ फेक न्यूज और गलत सूचनाओं के व्यापक प्रसार के प्रति जवाबदेही से भी भाग रहे हैं।

बहुराष्ट्रीय उपस्थिति वाले डिजिटल प्लेटफॉर्म्स को रास्ते पर लाने के लिए सख्त बातचीत की जरूरत है। इन्हें रेवेन्यू शेयरिंग के लिए बाध्य करने के स्पेन और फ्रांस सरकार के शुरुआती मॉडल नाकाम हो चुके हैं। जिस तरह से फ्रांस और ऑस्ट्रेलिया के प्रतिस्पर्धा नियामकों ने किया है, उसी तरह भारत भी इन डिजिटल प्लेटफॉर्म्स को क्षतिपूर्ति के मुद्दे पर न्यूज प्रोड्यूसर्स के साथ बातचीत के आदेश देकर शुरुआत कर सकता है। ऑस्ट्रेलिया ने इन डिजिटल प्लेटफॉर्म्स को रेवेन्यू शेयरिंग के लिए बाध्य किया, लेकिन यह स्वैच्छिक था लिहाजा इस दिशा में कुछ खास प्रगति नहीं हुई और 
कोरोना वायरस की वजह से कई दर्जन न्यूजरूम बंद हो गए। अब ऑस्ट्रेलिया तत्काल कानूनी रास्ता अपनाने जा रहा है। आज बराबरी की जरूरत है जहां बहुराष्ट्रीय डिजिटल प्लेटफॉर्म अपने एकाधिकारवादी रवैये से बाहर निकलें। फेसबुक और गूगल ने 2018-19 में अपने ऑनलाइन ऐड रेवेन्यू का करीब 70 प्रतिशत (11,500 करोड़ रुपये) भारत से कमाए थे। 2022 में यह मार्केट बढ़कर 28,000 करोड़ रुपये का हो जाएगा। भारत सरकार को इस डिजिटल उपनिवेशवाद को रोकना होगा जहां भारतीयों के पसीने और परिश्रम की कमाई देश से बाहर जा रही है जबकि स्थानीय समुदाय और कारोबार बर्बाद हो गए हैं।



Log In Your Account