पीरियड्स आने पर घर में नहीं रह सकतीं, पहले टूटे-फूटे कुर्माघर में रहना होता था, अब उसकी रंगत बदल गई

Posted By: Himmat Jaithwar
5/30/2021

नागपुर। जिस होम आइसोलेशन से आप और हम कुछ ही दिनों में परेशान हो गए, कुछ उसी तरह का आइसोलेशन महाराष्ट्र के फासीतोला गांव की महिलाएं पीढ़ियों से झेल रही हैं। गढ़चिरौली जिले के इस गांव में पीढ़ियों से एक प्रथा चली आ रही है, जिसमें महिलाओं को पीरियड्स (मासिक धर्म) के दौरान अपने घर में रहने की इजाजत नहीं होती।

पीरियड्स खत्म होने तक, वे गांव में ही उनके लिए तय किए गए स्थान पर रहती हैं। हर उम्र की महिलाओं को यह नियम मानना ही होता है।

अपने घर नहीं, कुर्माघर में रहती हैं
इस प्रथा को कुर्मा कहा जाता है और पीरियड्स के दौरान जिस टूटे-फूटे कमरे में महिलाएं रहती हैं, उस जगह को कुर्माघर कहते हैं। सालों से इस प्रथा को निभाते आ रही गांव की महिलाओं को अब बड़ा सुकून मिला है। उनके टूटे-फूटे, कच्चे कुर्माघर को नया बना दिया गया है। कुछ दिनों पहले तक कुर्माघर में न बिजली थी, न शौचालय था। नहाने नदी के किनारे जाना होता था या कुर्माघर की दीवार के आड़ में नहाना होता था।

गांव की सरपंच और एमए स्टूडेंट 26 साल की सुनंदा तुलावी कहती हैं, 'परीक्षाओं के वक्त भी यदि पीरियड्स आ जाएं तब भी हमें कुर्माघर में ही रुकना होता है। कुछ दिनों पहले तक वहां बिजली भी नहीं थी, इसलिए कई बार हमारी परीक्षा भी बिगड़ गई।'

वे कहती हैं, 'कई बार कुर्माघर में अकेले भी रहना पड़ता है, यदि किसी अन्य महिला को माहवारी न हो तो। हालांकि ऐसे में रात में हम किसी न किसी लड़की को साथ में बुला लेते हैं क्योंकि अकेले वक्त भी नहीं बीतता और डर भी लगता है। खास बात ये है कि इस दौरान महिलाएं खेत में काम करने तो जा सकती हैं लेकिन अपने घर में नहीं जा सकतीं। किसी से मेल-मुलाकात नहीं कर सकतीं।'

महिलाओं के लिए राहत की बात ये है कि, अब मुंबई के दो एनजीओ खेरवाड़ी सोशल वेलफेयर एसोसिएशन और मुकुल माधव फाउंडेशन ने मिलकर इस कुर्माघर को पूरी तरह से बदल दिया है।


नया कमरा, शौचालय, बेड मिला
नया कमरा बनाया है। शौचालय बनाया है। सोने के लिए बेड, रजाई-गद्दे हैं। सोलर एनर्जी वाली बिजली है। पंखे भी लग गए हैं। इससे महिलाओं को बड़ा सुकून मिला है। इस प्रोजेक्ट के कोर्डिनेटर अमोल थवारे कहते हैं, 'कुर्माघर की दीवारें बनाने के लिए हमने यूज्ड प्लास्टिक का इस्तेमाल किया है और उसके ऊपर आरसीसी से दीवार बनाई है। इसका मकसद पर्यावरण को अच्छा रखना भी है। संस्था अभी तक चार गांव में पक्के सर्व-सुविधायुक्त कुर्माघर बना चुकी है औ छह गांवों में काम जारी है।'

क्या महिलाएं इस प्रथा से खुश हैं? इस सवाल के जवाब में सुनंदा कहती हैं, 'हमारे खुश होने या न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि यह प्रथा पीढ़ियों से चली आ रही है और सब इसे मानते आए हैं, इसलिए हम लोग भी मान रहे हैं। किसी ने आज तक इसके विरोध में बात करने की भी हिम्मत नहीं की। इसका एक मकसद ये भी होता है कि, मासिक धर्म के दौरान हमें कोई काम नहीं करना होता और पांच दिनों तक आराम में रहते हैं।'

कुर्माघर में अभी एक साथ दस से बारह महिलाएं रुक सकती हैं। आठ बेड यहां लगाए गए हैं। इन मॉडर्न रेस्टिंग हाउस को बनाने के लिए भी ग्रामीणों से मदद ली जाती है। महिलाओं में इनके बनने से काफी खुशी है।


कई गांवों में यह प्रथा, अधिकतर में आदिवासी आबादी
सिर्फ फासीतोला ही नहीं बल्कि गढ़चिरौली जिले में आने वाले कई गांव जैसे सीताटोली, इरंडी, परसवाड़ी, काकड़वेली, मेंडा आदि में भी यह प्रथा सालों से निभाई जा रही है।

पीरियड्स में महिलाएं यहां सफाई का ध्यान भी नहीं रख पातीं। कई महुआ के पत्तों का पैड के रूप में इस्तेमाल करती हैं, जिससे संक्रमण और बीमारियों का शिकार हो जाती हैं। गंदगी में पांच दिनों तक रहने के चलते कई महिलाओं को सांप भी काट चुका है, जिससे उनकी मौत हो गई।



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