गाजीपुर बॉर्डर पर इक्का-दुक्का किसान ही नजर आते हैं; वे कहते हैं- आज हम कोरोना से डरेंगे तो कल हमारे बच्चे भूखे मरेंगे

Posted By: Himmat Jaithwar
5/26/2021

नई दिल्ली। तीन कृषि कानूनों के खिलाफ किसान आंदोलन के अब 6 महीने पूरे हो चुके हैं। गाजीपुर बॉर्डर पर किसानों का जो मंच आंदोलन का केंद्र बना हुआ था अब खाली है। यहां इक्का-दुक्का किसान ही नजर आते हैं। पहले यहां दिन भर किसान गीत बजाते ट्रैक्टर घुमाते थे जिनके पीछे युवा नारेबाजी करते चलते थे। अब लगभग सन्नाटा सा है।

लंगर अभी भी चल रहे हैं, लेकिन खाने वालों में आसपास रहने वाले प्रवासी मजदूर की संख्या आंदोलनकारी किसानों से कहीं ज्यादा हैं। सरसरी निगाह डालने पर लगता है कि किसान आंदोलन अब कमजोर हो चुका है। लेकिन, यहां मौजूद किसानों से बात करने पर राय बदलने लगती है।

26 नवंबर 2020 को पंजाब और हरियाणा से चले किसानों के जत्थे दिल्ली पहुंचे थे। तब किसानों ने दो दिन के दिल्ली मार्च का आह्वान किया था, लेकिन, रास्ते में हरियाणा सरकार ने सड़कें खोद दीं। पुलिस ने पानी की बौछार की, लाठियां बरसाईं। तमाम रुकावटों का सामना करते हुए किसान दिल्ली पहुंचे और यहीं डट गए। तब से कई बार मौसम बदल चुका है। दिल्ली की कड़कड़ाती ठंड हो या तपती गर्मी या अभी कुछ दिन पहले हुई तूफानी बारिश। किसानों ने सब कुछ सहा, लेकिन अपने तंबू नहीं उखाड़े।

गाजीपुर बॉर्डर पर किसान इस समय मानसून की तैयारी कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश के पीलीभीत से आए सरबजीत सिंह अपने कैंप पर तारपोलिन डाल रहे हैं। वे कहते हैं, 'जब तक तीनों कानून रद्द नहीं होंगे, हम वापस नहीं जाएंगे। अब हम बारिश की तैयारी कर रहे हैं। सर्दी और गर्मी के बाद हमें बारिश भी यहीं देखनी है।' सरबजीत सिंह के टेंट पर अब तक डेढ़ लाख रुपए खर्च हो चुके हैं। वे कहते हैं, 'हमारे गांव में करीब डेढ़ सौ परिवार रहते हैं, हर परिवार ने आंदोलन के लिए पैसे दिए हैं।'

किसान कहते हैं कि सरकार को लगता है कि वह हमें नजरअंदाज करके हमारे मुद्दों को दबा सकती है, लेकिन सच यह है कि ये आंदोलन देशभर में और मजबूत हो रहा है।'
किसान कहते हैं कि सरकार को लगता है कि वह हमें नजरअंदाज करके हमारे मुद्दों को दबा सकती है, लेकिन सच यह है कि ये आंदोलन देशभर में और मजबूत हो रहा है।'

काला दिवस मना रहे किसान
इस आंदोलन को 26 मई को छह महीने पूरे हो गए। इस मौके पर किसान काला दिवस भी मना रहे हैं। इसके लिए गाजीपुर बॉर्डर पर खास तैयारियां की गईं। किसानों का एक समूह प्रधानमंत्री मोदी के पुतले की शवयात्रा निकालने की तैयारी कर रहा है।

मोदी का पुतला बना रहे कंचनलाल कहते हैं, 'सरकार का रवैया किसानों के प्रति फासीवादी हो गया है। हम यहां छह महीने से पड़े हैं, लेकिन सरकार को कोई परवाह नहीं है। फासीवादी सरकार को लगता है कि वह हमें नजरअंदाज करके हमारे मुद्दों को दबा सकती है लेकिन हकीकत में यह आंदोलन देशभर में और मजबूत हो रहा है।'

ज्यादातर किसानों को कोरोना की परवाह नहीं है
भारत इस समय विनाशकारी कोरोना लहर का सामना कर रहा है। देशभर में तीन लाख से अधिक लोगों की अब तक मौत हो चुकी है। देश के कई हिस्सों में सख्त लॉकडाउन लागू है, लेकिन, आंदोलन स्थल पर इसका कोई असर नहीं हैं। यहां न सोशल डिस्टेंसिंग का पालन किया जा रहा है और ना ही कोविड नियमों का। हालांकि, यहां एंबुलेंस तैनात की गई हैं और हॉस्पिटल बेड लगाए गए हैं। इसके अलावा यहां नियमित फॉगिंग भी की जा रही है। कुछ किसान मॉस्क लगाए भी नजर आते हैं।

आंदोलन में शामिल कई किसानों का कहना है कि उन्हें कोरोना की कोई परवाह नहीं हैं। किसान कुलवंत सिंह कहते हैं, 'कोरोना कहां है, यहां कोई कोरोना नहीं हैं। कोरोना सिर्फ उन लोगों के लिए है जिन्हें डर लगता है। हम कोरोना के डर से अपना आंदोलन खत्म नहीं करेंगे। यदि यहां कोरोना होता तो अब तक तो आधे किसान मर गए होते।'

26 मई को किसान आंदोलन के 6 महीने पूरे हो गए। इसे मौके पर किसान देशभर में काला दिवस मना रहे हैं।
26 मई को किसान आंदोलन के 6 महीने पूरे हो गए। इसे मौके पर किसान देशभर में काला दिवस मना रहे हैं।

कुलवंत सवाल करते हैं, 'यदि कोरोना है ही तो फिर हरिद्वार में कुंभ क्यों हुआ और पश्चिम बंगाल के चुनाव की रैलियों में इतनी भीड़ क्यों जुटी? सरकार कोरोना की आड़ में आंदोलन को कमजोर करना चाहती है, हम यह बात अच्छी तरह समझते हैं।' मास्क के सवाल पर कुलवंत कहते हैं, 'मैंने ढाटा बांध रखा है, लेकिन मैं कोरोना की बहुत परवाह नहीं करता हूं। अगर हम आज कोरोना से डरेंगे तो कल हमारे बच्चे भूखे मरेंगे।'

ज्यादातर किसानों की राय कुलवंत सिंह जैसी ही है। हालांकि, किसान नेता मानते हैं कि कोविड महामारी का असर आंदोलन पर हुआ है और आंदोलन स्थलों से भीड़ कम करनी पड़ी है। कीर्ति किसान यूनियन से जुड़े राजिंदर सिंह दीपसिंहवाला कहते हैं, 'अगर कोविड महामारी ना आई होती तो हमारा आंदोलन इन दिनों थोड़ा और तेज होता। जब कोविड की पहली लहर थी, उसके दौरान भी किसान आंदोलन हुआ और अब दूसरी लहर के दौरान भी आंदोलन हो रहा है। यह बात जरूर है कि अगर ये दूसरी लहर न होती तो आंदोलन बहुत तेज होता।'

केंद्र सरकार ने किसान संगठनों से आंदोलन समाप्त करने और काला दिवस न मनाने की अपील भी की है, लेकिन किसान संगठनों ने इसे खारिज कर दिया है। किसान संगठनों पर आरोप लग रहा है कि वे किसानों की जान की परवाह नहीं कर रहे हैं।

किसानों की आय बढ़ेगी तो बीमारियां खत्म हो जाएंगी
राजिंदर सिंह दीपसिंहवाला इन आरोपों को खारिज करते हुए कहते हैं, 'कोरोना के खिलाफ और दूसरी महामारियों के खिलाफ लड़ाई के लिए इस आंदोलन का चलना बहुत जरूरी है। यूरोप में मीजल्स और टीबी संक्रमण से लाखों मौतें होती थीं। इन बीमारियों की दवाई आने से पहले ही मौतें खत्म होने की कगार पर पहुंच गईं थीं। इसकी वजह थी कि औद्योगिक क्रांति के बाद लोगों को बेहतर खुराक मिलने लगी थी। बेहतर खुराक से लोगों की सेहत अच्छी हुई थी। ऐसे में आने वाले दिनों में और बीमारियों से बचना है तो कृषि कानून रद्द कराने होंगे। इससे किसानों की आय बढ़ेगी और देश की एक बड़ी आबादी की खुराक बेहतर होगी।'

पिछले साल सरकार ने किसानों को रोकने के लिए दिल्ली की सरहदों पर कई लेवल की बैरिकेडिंग लगा रखी थी, सड़कों को खोद दिया था।
पिछले साल सरकार ने किसानों को रोकने के लिए दिल्ली की सरहदों पर कई लेवल की बैरिकेडिंग लगा रखी थी, सड़कों को खोद दिया था।

किसानों और केंद्र सरकार के बीच हुई कई दौर की वार्ता अब टूट चुकी है। आखिरी बार किसानों और सरकार के बीच जनवरी में वार्ता में हुई थी। फिर 26 जनवरी की हिंसा हुई और उसके बाद से किसानों और सरकार के बीच कोई सीधी बातचीत नहीं हुई है।

किसान आंदोलन अब मीडिया की सुर्खियों से भी बाहर हो गया है। नेशनल मीडिया से तो पूरी तरह नदारद ही है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या आंदोलन की धार अब कम हो गई है। सवाल ये भी है कि क्या छह महीने बाद भी आंदोलन वहीं खड़ा है जहां से शुरू हुआ था?

आंदोलन की वजह से BJP को हो रहा नुकसान: किसान संगठन
किसान नेता मानते हैं कि आंदोलन की मांग भले ही पूरी ना हुई हो लेकिन आंदोलन ने बहुत कुछ हासिल कर लिया है। राजिंदर सिंह दीपसिंहवाला कहते हैं, 'सरकार ने तीनों कानून निलंबित कर दिया। ये आंदोलन का हासिल है। बीते सात सालों में कोई आंदोलन इस सरकार के सामने इतना लंबा नहीं चल पाया है, लेकिन ये चल रहा है। सबसे बड़ी बात ये है कि आंदोलन ने अब BJP को राजनीतिक नुकसान पहुंचाना शुरू कर दिया है। पंजाब से BJP चली गई है। हरियाणा में कमजोर हो गई है। बंगाल में BJP हार गई है। यूपी के पंचायत चुनावों में BJP की छवि को भारी नुकसान हुआ है।'

राजिंदर सिंह कहते हैं, 'ये आंदोलन अब BJP को खत्म कर रहा है। गांव-गांव तक ये आंदोलन पहुंच गया है। जहां BJP बहुत मजबूत थी वहां अब उसकी बुरी हालत हो रही है। इस आंदोलन ने देश कि राजनीति और समाज पर गहरा प्रभाव डाला है। ये अब तीन कृषि कानूनों को रद्द कराने से बहुत आगे बढ़ चुका है।' आंदोलन में शामिल किसानों से जब भी पूछा जाता है वो कब तक यहां रुकेंगे, सब एक ही जवाब देते हैं, 'जब तक सरकार तीन कृषि कानूनों को रद्द नहीं करेगी।'

आंदोलनस्थल पर मौजूद किसान अब बारिश से बचने की तैयारी कर रहे हैं। वे तिरपाल और प्लास्टिक से अपने ठिकाने को कवर कर रहे हैं।
आंदोलनस्थल पर मौजूद किसान अब बारिश से बचने की तैयारी कर रहे हैं। वे तिरपाल और प्लास्टिक से अपने ठिकाने को कवर कर रहे हैं।

लेकिन,अब किसानों का जवाब बदल गया है। गाजीपुर बॉर्डर पर जब ये सवाल हमने फिर से पूछा तो किसानों का कहना था, 'यदि ये सरकार नहीं मानती है तो हम सरकार बदलने का इंतजार करेंगे लेकिन यहां से जाएंगे नहीं। अब चाहे अगली सरकार के आने तक आंदोलन चलाने पडे़, हम यहां डटे रहेंगे।'

दिल्ली मेरठ एक्सप्रेस गाजीपुर बॉर्डर पर किसान आंदोलन की वजह से पूरी तरह बंद था। अब इस पर एक तरफ से आवाजाही शुरू हो गई है। लेकिन किसानों और सरकार के बीच बातचीत का हाइवे अभी भी बंद है। क्या किसान सरकार से वार्ता करेंगे, इस पर राजिंदर कहते हैं, 'हम बातचीत करने के लिए हमेशा तैयार हैं। सरकार को हमारी शर्तें भी पता हैं।'

आंदोलन के अलावा हमारे पास कोई विकल्प भी नहीं
कुछ दिन पहले ही किसानों के संगठन संयुक्त किसान मोर्चा ने केंद्र सरकार को पत्र लिखकर बातचीत फिर से शुरू करने का आह्वान किया था। हालांकि सरकार की तरफ से अभी कोई जवाब किसानों को नहीं मिला है। सवाल ये भी उठ रहा है कि क्या ये अब किसानों को वापस लौट जाना चाहिए। आंदोलन में शामिल कई किसान कहते हैं कि ये प्रदर्शन करने और सड़कों पर रहने का सही समय नहीं है, लेकिन किसानों के पास इसके अलावा और कोई विकल्प नहीं हैं।

74 वर्षीय किसान नंबरदार मथुरा से आंदोलन में शामिल होने आए हैं। वो कहते हैं, 'ये तो सरकार को सोचना चाहिए कि वो किसानों की जान को खतरे में क्यों डाल रही है। क्यों उन्हें इन हालात में सड़क पर रहने को मजबूर कर रही है। यदि सरकार को हमारी जान की इतनी ही परवाह है तो वो हमारी मांगे मान ले, हम खुशी-खुशी अपने घरों को लौट जाएंगे। वहीं कंचनलाल कहते हैं, 'किसान इस आंदोलन में अपना सबकुछ झोंक चुके हैं। बहुत से लोगों ने अपनी जान गंवाई हैं। अब हम या जीतकर जाएंगे, या फिर यहीं मर जाएंगे। लेकिन, हारकर नहीं लौटेंगे।'



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