देश में ब्लैक फंगस के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। कई राज्यों ने इसे महामारी घोषित कर दिया है। वहीं, बिहार के पटना के बाद हरियाणा के हिसार में भी वाइट फंगस के मामले सामने आए हैं। ब्लैक और वाइट के बाद गाजियाबाद में यलो फंगस का मामला आने की भी बात कही जा रही है। इस बीच ये भी कहा जा रहा है कि देश में ऑक्सीजन शॉर्टेज होने पर कोरोना मरीजों को इंडस्ट्रीज को दी जाने वाली ऑक्सीजन दी गई इसकी वजह से भी फंगल इन्फेक्शन बढ़ा।
तो क्या ब्लैक और वाइट फंगस के अलावा भी फंगल इन्फेक्शन होते हैं? इनके होने की वजह क्या है? इनमें से कौन ज्यादा खतरनाक होता है? इनके लक्षण क्या हैं? इंडस्ट्रियल ऑक्सीजन का फंगल डिजीज में क्या रोल है? कोरोना मरीजों को ही क्यों फंगल डिजीज का खतरा ज्यादा है? और इनसे कैसे बचा जा सकता है? आइए जानते हैं...
आखिर कितने तरह के फंगल इन्फेक्शन होते हैं?
फंगल इन्फेक्शन कई तरह के होते हैं। इनमें से अधिकांश फंगल इन्फेक्शन पर्यावरण में मौजूद रहते हैं। इनसे ज्यादा खतरा भी नहीं होता। जैसे- फंगल नेल इन्फेक्शन, वजाइनल कैंडिडिआसिस, दाद, मुंह और गले में होने वाल कैंडिडा इन्फेक्शन सबसे आम फंगल इन्फेक्शन है। इसी तरह ट्रेमेला मेसेन्टेरिका या यलो फंगस भी एक आम जेली फंगस है। कई फंगल इन्फेक्शन कमजोर इम्युनिटी की वजह से होते हैं। इनमें से कुछ बहुत संक्रामक होते हैं तो कुछ बहुत जानलेवा। ब्लैक और वाइट फंगस भी कमजोर इम्युनिटी की वजह से होते हैं।
आखिर कितने तरह की फंगल डिजीज हैं जो हमारे कमजोर इम्यून सिस्टम की वजह से हो सकते हैं?
कमजोर इम्यून सिस्टम इन्फेक्शन से नहीं लड़ पाता है। HIV, कैंसर के मरीजों, जिन मरीजों का ऑर्गन ट्रांसप्लांट हुआ है और कुछ दवाओं की वजह से इन्फेक्शन का खतरा रहता है। कोरोना जिन लोगों को हो रहा है उनका भी इम्यून सिस्टम कमजोर हो जाता है। अगर किसी हाई डायबिटिक मरीज को कोरोना हो जाता है तो उसका इम्यून सिस्टम और ज्यादा कमजोर हो जाता है। ऐसे लोगों में फंगल इन्फेक्शन फैलने की आशंका और ज्यादा हो जाती है। दूसरा कोरोना मरीजों को स्टेरॉयड दिए जाते हैं। इससे मरीज की इम्युनिटी कम हो जाती है। इससे भी उनमें फंगल इंफेक्शन फैलने की आशंका ज्यादा हो जाती है।
अमेरिकी एजेंसी सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (CDC) के मुताबिक कमजोर इम्यून सिस्टम की वजह से मोटे तौर पर- एस्परजिलोसिस, सी नियोफॉर्म्स इन्फेक्शन, न्यूमोसिस्टिस निमोनिया, टैलारोमाइकोसिस, म्यूकरमाइकोसिस (ब्लैक फंगस) और कैंडिडिआसिस (वाइट फंगस) होते हैं।
ब्लैक फंगस और वाइट फंगस में कौन ज्यादा खतरनाक होता है?
हेमेटोलॉजिस्ट डॉक्टर वीके भारद्वाज कहते हैं कि अगर संक्रमण फैलने की दर के हिसाब से देखें तो वाइट फंगस ब्लैक फंगस से ज्यादा संक्रामक है। यानी, वाइट फंगस ज्यादा तेजी से फैलता है। लेकिन अगर मोटर्लिटी रेट के लिहाज से देखें तो ब्लैक फंगस बेहद जानलेवा है। इसके 54% मरीजों की मौत हो जाती है। कैंडिडिआसिस के कई प्रकार में इन्वेसिव कैंडिडा सबसे ज्यादा जानलेवा हैं। इसके करीब 25% मरीजों की मौत हो जाती है। अमेरिकी एजेंसी सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (CDC) की रिपोर्ट ये कहती है। CDC ने वाइट फंगस के एक प्रकार कैंडिडा औरिस को एक गंभीर खतरा कहा है। ये इन्फेक्शन अक्सर उन लोगों को होता है, जो अस्पताल में भर्ती रहे हैं।
क्या यलो फंगस भी बहुत खतरनाक होता है?
डॉक्टर्स का कहना है कि यलो फंगस से घबराने की कोई जरूरत नहीं है। इस तरह के फंगस पर्यावरण में पहले से ही मौजूद रहे हैं। इससे जान का खतरा भी नहीं होता है। उनके मुताबिक वाइट, यलो व अन्य तरह के फंगस का कोई खास नुकसान नहीं होता है। ये पहले भी होते आए हैं।
क्या इंडस्ट्रियल ऑक्सीजन यूज करने से देश में फंगल इन्फेक्शन फैला?
डॉक्टरों के मुताबिक फंगस मिट्टी, खराब हो रहे ऑर्गेनिक पदार्थों और पुरानी चीजों में पाया जाता है। ऑक्सीजन सिलेंडर के अंदर अगर दूषित पानी होता है तो इससे भी फंगल इन्फेक्शन का खतरा रहता है। जिन लोगों की इम्युनिटी कमजोर होती है उन्हें इसका खतरा ज्यादा होता है। इसकी वजह से कई डॉक्टर इस आशंका को नकार नहीं रहे हैं।
वाइट फंगस के क्या लक्षण हैं?
कैंडिडा नाम के फंगस से होने वाले फंगल इन्फेक्शन को कैंडिडिआसिस (वाइट फंगस) कहते हैं। ये आम तौर पर स्किन और शरीर के अंदर जैसे- मुंह, गले, वजाइना में बिना कोई समस्या पैदा किए पाए जाते हैं। जब ये बहुत तेजी से फैलना शुरू हो जाते हैं या शरीर के इंटरनल ऑर्गन्स जैसे किडनी, हार्ट और ब्रेन में पहुंच जाते हैं तब घातक रूप ले लेते हैं। बुखार आना, ठंड लगना इसके सबसे आम लक्षण हैं। इसके अलावा शरीर के किस हिस्से में ये फंगस है उसके हिसाब से इसके लक्षण निर्भर करते हैं।
ब्लैक फंगस के लक्षण क्या हैं?
शरीर के किस हिस्से में इंफेक्शन है, उस पर इसके लक्षण निर्भर करते हैं। चेहरे का एक तरफ से सूज जाना, सिरदर्द होना, नाक बंद होना, उल्टी आना, बुखार आना, चेस्ट पेन होना, साइनस कंजेशन, मुंह के ऊपर हिस्से या नाक में काले घाव होना जो बहुत ही तेजी से गंभीर हो जाते हैं। डॉक्टर भारद्वाज बताते हैं कि फंगस जब ब्लैक पिगमेंट प्रोड्यूस करता है तो उसे ब्लैक फंगस कहते हैं। जब फंगस पिगमेंट नहीं प्रोड्यूस करता तो वो वाइट हो जाता है। इसे कैंडिडा कहते हैं जो लोकल तौर पर वाइट फंगस कहा जा रहा है।
कोरोना मरीजों को ही क्यों फंगल डिजीज का खतरा ज्यादा है?
जिन लोगों को पहले से कैंसर, डायबिटीज जैसी बीमारियां होती हैं या जो लंबे समय से स्टेरॉयड ले रहे होते हैं उनकी इम्युनिटी वीक होती है। कोरोना होने पर ये और कम हो जाती है। ऐसे में इस तरह के मरीजों को फंगल डिजीज होने का खतरा बढ़ जाता है। जो कोरोना मरीज ऑक्सीजन सपोर्ट पर होते हैं उन्हें भी ब्लैक और वाइट फंगस होने का खतरा रहता है।
इनसे बचने के लिए क्या करना चाहिए
फंगल इन्फेक्शन हाइजीन से ज्यादा जुड़े हैं। चाहे ब्लैक हो या वाइट। ब्लैक फंगस से बचने के लिए डॉक्टर कंस्ट्रक्शन साइट से दूर रहने, डस्ट वाले एरिया में नहीं जाने, गार्डनिंग या खेती करते वक्त फुल स्लीव्स से ग्लव्ज पहनने, मास्क पहनने, उन जगहों पर जाने से बचने की सलाह देते हैं जहां पानी का लीकेज हो, जहां ड्रेनेज का पानी इकट्ठा होता हो।
इसी तरह वाइट फंगस ज्यादातर उन्हें होता है जो लंबे समय तक अस्पताल में भर्ती रहते हैं। इस दौरान अगर हाइजीन का खयाल नहीं रखा जाता तो इस फंगस के इंटरनल बॉडी पार्ट में जाने का खतरा रहता है। इससे बचने के लिए जो मरीज ऑक्सीजन या वेंटिलेटर पर हैं, उनके ऑक्सीजन या वेंटिलेटर उपकरण विशेषकर ट्यूब आदि जीवाणु मुक्त होने चाहिए। ऑक्सीजन सिलेंडर ह्यूमिडिफायर में स्ट्रेलाइज वाटर का प्रयोग करना चाहिए। जो ऑक्सीजन मरीज के फेफड़े में जाए, वह फंगस से मुक्त हो। वैसे मरीजों का रैपिड एंटीजन और RT-PCR टेस्ट निगेटिव हो और जिनके HRCT में कोरोना जैसे लक्षण हों। उनका रैपिड एंटीबॉडी टेस्ट कराना चाहिए। साथ ही बलगम के फंगस कल्चर की जांच भी करानी चाहिए।