भारत में कोरोना मरीजों की संख्या लगातार बढ़ रही है। गंभीर लक्षण भी पहले के मुकाबले ज्यादा मरीजों में दिख रहे हैं। इसी वजह से न केवल नए केसेस में बल्कि मौतों में भी आंकड़े अपने ही पुराने रिकॉर्ड तोड़ते जा रहे हैं। कोरोना मरीजों में मौत की सबसे बड़ी वजह बन रही है ऑक्सीजन की कमी। तकरीबन हर राज्य से ऑक्सीजन की कमी और उसकी वजह से हो रही मौतों की खबरें आ रही हैं।
देश का प्रत्येक शहर ही कोरोना के मरीजों के लिए ऑक्सीजन की कमी से जूझ रहा है। बड़े उद्योगों से ऑक्सीजन ली जा रही है। बाहर से भी बुलवाई जा रही है। अमेरिका से ऑक्सीजन कंसंट्रेटर बुलवाए हैं। कई लोगों के लिए यह हैरानी वाला है। पहली लहर में तो ऐसा नहीं दिखा, अब ऐसा क्यों हो रहा है, आइए समझते हैं?
प्रयागराज में एक कोरोना पॉजिटिव मरीज को ऑक्सीजन सपोर्ट के साथ स्वरूप रानी नेहरू हॉस्पिटल में ले जाते हुए।
कोरोना मरीजों के इलाज के लिए क्यों जरूरी है ऑक्सीजन?
- इस बार कोरोना वायरस ज्यादा घातक बनकर उभरा है। कोरोना वायरस की वजह से कोविड-19 निमोनिया और हाइपोक्जेमिया (Hypoxemia) हो रहा है। हाइपोक्जेमिया को सरल शब्दों में समझें तो खून में ऑक्सीजन की कमी है। कोविड-19 निमोनिया की यह सबसे गंभीर स्थिति है और ज्यादातर मौतों का कारण भी यही बन रहा है।
- कोरोना इन्फेक्शन का इलाज करने के लिए कुछ एंटीवायरल दवाएं प्रभावी साबित हो रही हैं, पर गंभीर निमोनिया में बिना ऑक्सीजन सपोर्ट से हाइपोक्जेमिया से राहत नहीं मिल सकती। जब ऑक्सीजन सपोर्ट दिया जाता है तो इन्फेक्शन को कम करने और फेफड़ों को ठीक होने के लिए वक्त मिलता है। इससे कोरोना से इन्फेक्टेड ज्यादातर लोगों के लिए ऑक्सीजन जीवनरक्षक साबित हो रही है।
कानपुर में ऑक्सीजन सपोर्ट पर मेटाडोर में एक कोरोना वायरस पॉजिटिव महिला हॉस्पिटल में भर्ती होने का इंतजार करते हुए।
मरीजों के लिए ऑक्सीजन जुटाने में किस तरह की दिक्कतें आ रही हैं?
- ब्रिटिश अखबार गार्जियन की एक रिपोर्ट कहती है कि यह संकट सिर्फ भारत का नहीं बल्कि तकरीबन हर कम और मध्यम आय समूह के देश का है। वहां महामारी से पहले भी निमोनिया जानलेवा था, पर ऑक्सीजन की कमी को दूर करने के लिए उतने उपाय नहीं किए गए, जितने जरूरी थे।
- भारत में भी ऑक्सीजन की कमी की तरफ हमेशा अनदेखी ही हुई है। इसका सबसे बड़ा नुकसान हुआ है गरीबों को, जो पूरी तरह सरकारी अस्पतालों और उसमें मिलने वाली सुविधाओं पर निर्भर हैं। इसके मुकाबले में प्राइवेट अस्पतालों की स्थिति थोड़ी ठीक है, क्योंकि उन्होंने ऑक्सीजन सप्लाई के लिए पर्याप्त इंतजाम किए हैं।
ऑक्सीजन सिस्टम के लिए किन उपकरणों की जरूरत होती है?
- अस्पतालों में ऑक्सीजन सिस्टम में लगने वाले उपकरणों में पल्स ऑक्सीमीटर, ऑक्सीजन के स्रोत, ऑक्सीजन सपोर्ट के अन्य टेक्निकल उपकरण, ऑक्सीजन एनालाइजर और बिजली कनेक्शन चाहिए। प्रशिक्षित स्टाफ, ऑक्सीजन ट्रांसपोर्ट के लिए सिलेंडर जैसी अन्य चीजों की जरूरत भी होती है। पर इतना जुटाना भी कई सरकारी अस्पतालों के लिए मुश्किल का सौदा रहा है।
- पल्स ऑक्सीमीटर: यह एक छोटा-सा उपकरण है जो अंगुली पर लगाते ही बताता है कि खून में ऑक्सीजन का स्तर कितना है। इससे ही पता चलता है कि मरीज को हाइपोक्जेमिया है या नहीं।
- ऑक्सीजन का स्रोतः ऑक्सीजन के स्रोत के तौर पर कंसंट्रेटर, जनरेटर इस्तेमाल होते हैं। यहीं से अस्पतालों में मरीजों को ऑक्सीजन उपलब्ध होती है।
- एनालाइजर: मरीजों को मिलने वाली ऑक्सीजन शुद्ध होना चाहिए। यह जांचने का काम एनालाइजर करता है।
क्या भारत में पर्याप्त ऑक्सीजन का उत्पादन हो रहा है?
- हां। भारत में 7,000 मीट्रिक टन ऑक्सीजन का उत्पादन रोज होता है। पर इसका अधिकांश हिस्सा इंडस्ट्रीज को जाता है। अब मेडिकल इमरजेंसी को देखते हुए इंडस्ट्रीज ने अपना ऑक्सीजन भी मेडिकल इस्तेमाल के लिए देना शुरू कर दिया है।
- पर समस्या है परिवहन और स्टोरेज की। भारत के पास 1,224 क्रायोजेनिक ऑक्सीजन टैंकर हैं, जिनकी कुल क्षमता 16,732 मीट्रिक टन की है। पर ज्यादातर ऑक्सीजन पूर्वी हिस्से में बनती है और देश के अन्य हिस्सों में इसे पहुंचने में 6-7 दिन लग जाते हैं। इस तरह किसी भी दिन 3000-4000 मीट्रिक टन ऑक्सीजन ही अस्पतालों तक पहुंच पाती है।
- 24 अप्रैल के आंकड़े बताते हैं कि अलग-अलग उद्योगों ने 9,103 मीट्रिक टन लिक्विड मेडिकल ऑक्सीजन का उत्पादन किया। पर वे 7,017 मीट्रिक टन ऑक्सीजन ही बेच सके। अगर हम पिछले साल अगस्त के उत्पादन से तुलना करें तो यह सिर्फ 5,700 मीट्रिक टन था। यह 25 अप्रैल को बढ़कर 8,922 मीट्रिक टन हो गया था।
- ऑक्सीजन की 50% सप्लाई स्टील कंपनियों से हो रही है। देशभर में 33 प्लांट्स से ऑक्सीजन सप्लाई हो रही है। टाटा स्टील 600 मीट्रिक टन, JSW 1,000 मीट्रिक टन और इसी तरह रिलायंस इंडस्ट्री, अडाणी, आईटीसी और जिंदल स्टील एंड पॉवर समेत सभी बड़े स्टील प्लांट ऑक्सीजन दे रहे हैं। इंडस्ट्री ने अब तक 16,000 मीट्रिक टन स्टोरेज टैंक्स से लिक्विड ऑक्सीजन उपलब्ध कराई है।
नई दिल्ली में फ्री ऑक्सीजन रिफिल के लिए सिलेंडर लेकर वॉल्ड सिटी पहुंचे मरीज के रिश्तेदार।
भारत के ऑक्सीजन संकट का समाधान कब तक हो सकेगा?
- 15 मई तक। देश के सबसे बड़े लिक्विड मेडिकल ऑक्सीजन प्रोड्यूसर लिंडे पीएलसी के एक्जीक्यूटिव मलय बनर्जी के मुताबिक 15 मई तक प्रोडक्शन 25% तक बढ़ जाएगा। ट्रांसपोर्ट इंफ्रास्ट्रक्चर भी संकट से निपटने को तैयार हो जाएगा। संकट बढ़ा क्योंकि इसके लिए कोई भी तैयारी नहीं थी। जल्द ही 9,000 टन प्रतिदिन ऑक्सीजन प्रोडक्शन होने लगेगा।
- भारत इस समय 100 क्रायोजेनिक कंटेनर लिक्विड मेडिकल ऑक्सीजन इम्पोर्ट कर रहा है। लिंडे 60 कंटेनर उपलब्ध करा रहा है। कुछ कंटेनर तो भारतीय वायुसेना ने विदेशों से उठाए हैं। कुछ कंटेनर ऑक्सीजन एक्सप्रेस के जरिए देश के कोने-कोने तक पहुंचाए गए। 80-160 टन लिक्विड नाइट्रोजन से भरे कंटेनर कई शहरों में पहुंचाए गए।
- कंपनी ऑक्सीजन सिलेंडर की संख्या भी दोगुनी बढ़ाकर 10,000 करने जा रही है। ताकि ग्रामीण इलाकों में ऑक्सीजन सप्लाई को बेहतर बनाया जा सके। बनर्जी के मुताबिक कंपनी हब-एंड-स्पोक टाइप सिस्टम बनाने जा रही है ताकि लोकल स्तर पर लोकल डीलर्स तक लिक्विड ऑक्सीजन पहुंचाई जा सके।
पर यह संकट बना क्यों? ऑक्सीजन सिस्टम की अनदेखी क्यों हुई?
- जब आप इसका जवाब तलाशेंगे तो राजनीतिक और प्रशासनिक इच्छाशक्ति पर सवाल उठते हैं। इसमें ऑक्सीजन बाजार की नाकामी भी रही है, जो अहसास नहीं दिला सकी कि यह कितना जरूरी है। इसके अलावा जानकारी की कमी और लापरवाही को भी जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।
- भारत की बात करें तो लापरवाही ही बड़ी वजह है। कभी भी सरकारों ने स्वास्थ्य तंत्र को विकसित करने के लिए आवश्यकता के हिसाब से खर्च किया ही नहीं। मौजूदा सरकारें भी सरकारी अस्पतालों के बजाय प्राइवेट अस्पतालों को सुविधा संपन्न बनाने की नीतियां बनाती रही हैं। इस वजह से निवेश हुआ भी है तो वह सिर्फ प्राइवेट अस्पतालों मे ।
- महामारी के पहले तक तो कुछ सरकारें ऑक्सीजन को जीवनरक्षक मानने तक को तैयार नहीं थीं। ऑक्सीजन सिस्टम विकसित करने के बजाय नई दवाएं बनाने पर ज्यादा जोर दिया गया। ऑक्सीजन सिस्टम तो विकसित नहीं हुए, उसकी कमी को दूर करने के लिए दवाएं जरूर मार्केट में आ गईं, जिससे दवा कंपनियों ने भरपूर मुनाफा कमाया।
अमेरिकी वायुसेना का विमान शुक्रवार को राहत सामग्री लेकर भारत पहुंचा। इस विमान में 200 साइज डी ऑक्सीजन सिलेंडर और रेगुलेटर, 223 साइज एच ऑक्सीजन सिलेंडर और रेगुलेटर, 210 पल्स ऑक्सीमीटर, 1 लाख 84 हजार एबॉट रैपिड डायग्नोस्टिक टेस्ट किट्स और 84 हजार N-95 फेस मास्क लाया गया है। यह अमेरिका से आने वाली राहत सामग्री की पहली खेप है।
इस संकट का तत्काल समाधान क्या है?
- महामारी के संकट से निकालने के लिए ऑक्सीजन सिस्टम लगने में वक्त लगेगा। इसमें सबसे बुनियादी है ऑक्सीजन स्रोत। ऑक्सीजन सिलेंडर, ऑक्सीजन कंसंट्रेटर और ऑक्सीजन जनरेटर की व्यवस्था करना आसान नहीं है।
- ऑक्सीजन सिलेंडर की बात करें तो इनका परिवहन खर्चीला और मुश्किल है। एक ऑक्सीजन सिलेंडर 24 से 72 घंटों तक ऑक्सीजन दे सकता है। कोरोना के गंभीर लक्षण वाले मरीजों को एक हफ्ते तक यानी 3-4 सिलेंडर की जरूरत होगी।
- बिस्तर के पास रखने वाली ऑक्सीजन कंसंट्रेटर मशीनें वातावरण से नाइट्रोजन को बाहर निकालकर शुद्ध ऑक्सीजन अलग करती हैं। होम आइसोलेशन में सामान्य लक्षण वाले मरीजों के लिए ये अच्छा विकल्प है। पर है बहुत महंगा। कंसंट्रेटर एक समय पर पांच बच्चों या दो बीमार वयस्कों को ऑक्सीजन सप्लाई कर सकते हैं।
- ऑक्सीजन जनरेटर बड़े ऑक्सीजन प्लांट हैं, जो एक घंटे में 5 हजार लीटर तक ऑक्सीजन बना सकते हैं। ऑक्सीजन छोटे सिलेंडर में सप्लाई होती है। एक प्लांट दिनभर में 30 से 50 छोटे सिलेंडर भर सकता है। सेटअप में 70 लाख रुपए तक खर्च हो जाते हैं। ऑक्सीजन कंसंट्रेटर और जनरेटर का फायदा ये है कि ये इनसे प्राइवेट गैस कंपनियों पर निर्भरता पूरी तरह खत्म हो जाती है।
- मध्यम आकार के अस्पताल (रोज 15-20 मरीजों को ऑक्सीजन सप्लाई करने वाले) को 40 हजार लीटर से अधिक ऑक्सीजन लगेगी। इसके लिए ऑक्सीजन जनरेटर या कंसंट्रेटर का इस्तेमाल ही ठीक होगा। सिलेंडर का इस्तेमाल आपात परिस्थिति में हो सकता है। ज्यादातर सरकारी अस्पताल सिलेंडरों पर ही निर्भर हैं।