हिडमा को माओवादी संगठन में भर्ती करने वाले से जानिए उसकी कहानी, कैसे बच्चों की विंग बालल संगम से सेंट्रल कमेटी तक पहुंचा

Posted By: Himmat Jaithwar
4/8/2021

छत्तीसगढ़ के बीजापुर में सुरक्षा बलों पर हुए नक्सली हमले का मास्टरमाइंड माड़वी हिडमा इस समय चर्चा में है। बीजापुर और सुकमा जिले की सीमा पर स्थित तर्रेम के टेकलागुड़ा गांव में 3 अप्रैल को सुरक्षा बल और नक्सलियों के बीच हुए संघर्ष में माड़वी हिडमा ही माओवादियों को लीड कर रहा था। यह इलाका नक्सलियों का गढ़ है और यहां माओवादियों की बटालियन नंबर वन का दबदबा है। इस बटालियन का तकनीक कौशल इसे दूसरी नक्सल बटालियनों से अलग करता है।

बस्तर के साउथ जोन (सुकमा, बीजापुर और दंतेवाड़ा) में सक्रिय इसी बटालियन का कमांडर है हिडमा। हिडमा की मौत की खबर जब तब फैलती रही है, लेकिन हर बार किसी नई बड़ी वारदात में उसका नाम आ जाता है। हिडमा के बारे में पुलिस और सुरक्षा बल के पास भी ज्यादा जानकारी नहीं है। दैनिक भास्कर ने उसके बारे में जानने के लिए पूर्व नक्सली कमांडर बदरना से बात की। बदरना 2000 में आत्मसमर्पण कर चुके हैं। फिलहाल जगदलपुर में रहते हैं। दरअसल 1996 में बदरना ने ही हिडमा को माओवादी संगठन में भर्ती किया था। बदरना उसके नक्सली संगठन में भर्ती होने और फिर सेंट्रल कमेटी तक पहुंचने का किस्सा विस्तार से बताते हैं।

महज 16 साल की उम्र में नक्सल संगठन में हुआ भर्ती
हिडमा माओवादी संगठन में आया कैसे? इस सवाल पर बदरना कहते हैं, '16 साल की उम्र में उसके गांव पूर्वती में माओवादियों की ग्राम राज्य कमेटी ने उसे चुना। भर्ती की प्रक्रिया मैंने ही पूरी की थी। उसके साथ कई और बच्चे भी थे। उन्हीं में आज का मशहूर नक्सली पापाराव भी था। बच्चों के लिए माओवादियों में 'बालल संगम' नाम से एक संगठन होता है। हिडमा की शुरुआत उसी से हुई।'
बदरना बताते हैं, 'दुबली पतली, लेकिन चुस्त कद काठी वाला हिडमा बहुत तेज-तर्रार था और चीजों को बहुत तेजी से सीखता था।'

'उसकी इसी काबिलियत की वजह से उसे बच्चों की विंग 'बालल संगम' का अध्यक्ष बनाया गया। गोंड समाज से आने वाले हिडमा की शादी माओवादी संगठन में आने से पहले हो चुकी थी। उसका असली नाम मुझे ठीक से याद नहीं, लेकिन हिडमा नाम उसे संगठन ने दिया था।' बस्तर में माड़वी हिडमा कई नामों से जाना जाता है। हिडमा उर्फ संतोष ऊर्फ इंदमूल ऊर्फ पोड़ियाम भीमा उर्फ मनीष। तो आखिर उसका असली नाम क्या है? इस पर बदरना कहते हैं कि रणनीति के तहत उसका असली नाम छिपाया जाता है।

नक्सल प्रभावित इलाकों में हिडमा को संतोष ऊर्फ इंदमूल ऊर्फ पोड़ियाम भीमा उर्फ मनीष के नाम से जाना जाता है। उसका असली नाम क्या है, यह कोई नहीं जानता है।
नक्सल प्रभावित इलाकों में हिडमा को संतोष ऊर्फ इंदमूल ऊर्फ पोड़ियाम भीमा उर्फ मनीष के नाम से जाना जाता है। उसका असली नाम क्या है, यह कोई नहीं जानता है।

माओवादियों का अपना एजुकेशन सिस्टम और कल्चरल कमेटी होती है। यहां हिडमा ने पढ़ाई करने के साथ गाना-बजाना सीखा। क्रांति गीत और कुछ खास तरह के वाद्ययंत्रों को बजाना सीखना माओवादियों के प्रशिक्षण का हिस्सा होता है। बदरना बताते हैं, 'हिडमा जितना अच्छी तरह एंबुश लगाना सीख रहा था, उतना ही अच्छा वह वाद्ययंत्रों को बजाने में भी था। उसकी आवाज में भी दम है। उसकी तेजी का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वह प्राथमिक उपचार की शिक्षा लेने में भी सबसे आगे था।'

ट्रेनिंग के बाद हिडमा की पहली पोस्टिंग महाराष्ट्र के गढ़चिरौली में की गई थी। बदरना बताते हैं, '2010 में ताड़मेटला में 76 जवानों की हत्या के बाद उसे संगठन में अहम जिम्मेदारी दी गई। इसके बाद झीरम घाटी के हमले की रणनीति भी हिडमा ने ही तैयार की। 2017 में सुकमा के बुर्कापाल में सेंट्रल रिजर्व फोर्स पर हुए हमले का मास्टरमाइंड भी वही था।' बदरना कहते हैं, 'अपनी उम्र के किसी भी माओवादी से वह बहुत आगे था। हालांकि जब हमले की रणनीति बनती है तो और भी बड़े-बड़े कमांडर इससे जुड़ते हैं, लेकिन हां, हिडमा जिस हमले को लीड करता है, उसकी रणनीति बनाने में वहीं आगे रहता है।'

हिडमा जिंदा है या मर गया? वह कोई आदमी है या सिर्फ पदनाम

हिडमा के बारे में बहुत कन्फ्यूजन है। वह जिंदा है या मर गया? माड़वी केवल पदनाम तो नहीं? यह सवाल अक्सर उठते रहते हैं। माओवादियों में कई बार किसी बड़े लड़ाके की मौत हो जाने पर उसके नाम पर पदनाम तय कर दिया जाता है। माओवादी कमांडर, रमन्ना और भूपति उसी श्रेणी में हैं। इनके मरने के बाद भी इनके पदनाम चला करते हैं।

बदरना इस बारे में कहते हैं, 'अभी फिलहाल तो मैं हिडमा से नहीं मिला, लेकिन वह जिंदा है, यह जानता हूं। मैंने करीब 10 साल पहले उसे देखा था। तब वह वैसा ही था जैसा हमने भर्ती किया था। उस वक्त 30-31 साल का रहा होगा। अब तो वह 40-41 साल का होगा। संगठन के किसी व्यक्ति की सटीक उम्र किसी को नहीं पता होती, क्योंकि यह सब गरीब आदिवासी घर से होते हैं, इनका जन्म प्रमाण पत्र नहीं होता।'

यह दंतेवाड़ा का किस्तराम बाजार है। कहा जाता है कि हिडमा यहां आया-जाया करता है, लेकिन पुलिस उसे कभी पकड़ नहीं सकी।
यह दंतेवाड़ा का किस्तराम बाजार है। कहा जाता है कि हिडमा यहां आया-जाया करता है, लेकिन पुलिस उसे कभी पकड़ नहीं सकी।

पुलिस को चकमा देने में माहिर
बदरना कहते हैं, 'पुलिस को हिडमा ने कई बार चकमा दिया। दंतेवाड़ा का स्थानीय बाजार है, किस्तराम। वहां कई बार पुलिस को जानकारी मिली कि हिडमा आ रहा है। पुलिस तैनात हुई। हिडमा वहां कई बार आया, पर उसे कोई पहचान नहीं पाया। पुलिस के पास उसकी जो फोटो है वह 25 साल पुरानी है। इसके अलावा माओवादियों में चाहे आप कमांडर बन जाएं या सिपाही रहें, सबका रहन-सहन एक जैसा होता है। इसलिए भी उसे पहचानना आसान नहीं है।'

तकनीक का जानकार हिडमा हर हमले का वीडियो बनाता है
बस्तर के साउथ जोन में तैनात किसी सीआरपीएफ के जवान से पूछेंगे तो वह बताएगा। हिडमा लड़ाई की रणनीति बनाने में इसलिए जबरदस्त है क्योंकि उसे आधुनिक तकनीक का बहुत ज्ञान है। बदरना कहते हैं, 'यह बात बिल्कुल सच है। उसे तकनीक से बचपन में भी लगाव था। वह अपने हर हमले का वीडियो बनाता है ताकि उस हमले के कमजोर पॉइंट और मजबूत पॉइंट पर बाद में माओवादी फौज के बीच चर्चा हो सके।'

हर हमले के बाद संगठन के अन्य लोग और हमले में शामिल कमांडर से लेकर सिपाही तक सब लोग इस वीडियो को देखते हैं और उसकी समीक्षा करते हैं ताकि पता लगाया जा सके कि आखिर कहां चूक हुई और कहां हमने पहले से बेहतर किया।

यह सड़क सुकमा से बुर्कापाल जाती है। कुछ सालों पहले यहां नक्सली हमला हुआ था।
यह सड़क सुकमा से बुर्कापाल जाती है। कुछ सालों पहले यहां नक्सली हमला हुआ था।

बदरना बताते हैं कि पहले माओवादी हमलों में सिर्फ शामिल लोगों की बातचीत के आधार पर समीक्षा होती थी, लेकिन अब ज्यादातर नक्सल हमलों का वीडियो बनता है। बदरना हंसते हुए कहते हैं, 'सुरक्षा बल ऐसा नहीं करते। वहां रणनीति एसी में बैठकर वह अफसर बनाते हैं, जिन्हें फील्ड में लड़ाई के लिए नहीं जाना। और फील्ड में जाने वाले सिपाही को बस निर्देश दिया जाता है। संघर्ष के बाद सफलता या असफलता की समीक्षा के लिए भी केवल अफसर बठते हैं।'

बदरना बताते हैं, 'मैंने मीडिया में पढ़ा कि हिडमा को तेलुगु, तमिल, मराठी, हिंदी और फर्राटेदार अंग्रेजी आती है। ज्यादातर नक्सली तेलुगु, तमिल की थोड़ी-बहुत जानकारी रखते हैं। हिडमा वैसे भी बचपन से तेज था तो उसे यह दोनों भाषाएं दूसरों से ज्यादा आती हैं। उसकी पहली पोस्टिंग महाराष्ट्र के गढ़चिरौली में हुई थी, इसलिए उसे मराठी भी आती है। हिंदी और स्थानीय बोली हल्बी हर नक्सली को आती है। गोंड समुदाय से होने की वजह से उसे गोंडवी भी आती है। बाकी उसके साथ के दूसरे माओवादियों से उसकी अंग्रेजी ठीक है, लेकिन फर्राटेदार बिल्कुल भी नहीं।'



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