काठमांडू. भारत और नेपाल के बीच सरहदी झगड़ा कुछ बढ़ सा गया है। इसके कई पक्ष और किरदार हैं, पर सबसे अहम तो भारत और नेपाल ही है। भारत के पक्ष से हम कमोबेश वाकिफ हैं। जरूरी है नेपाल की नजरों से भी इसे देखा और जाना जाए। तो ये इसी की कोशिश है। बता रहे हैं प्रो. उद्धब प्याकुरेल। आप काठमांडू यूनिवर्सिटी में प्रोफसर हैं और भारत के कई संस्थानों से गहरे जुड़े रहे हैं।
"भारत-नेपाल सीमा विवाद पर खूब चर्चा हो रही है और इसे ऐसा पेश किया जा रहा है जैसे कि यह इतिहास में पहली बार हो रहा हो। भारत की ओर से खास बात यह कही जा रही है कि यह मुद्दा सिर्फ नेपाल नहीं लाया है, बल्कि चीन के इशारे पर लाया गया है। इंडियन आर्मी चीफ मनोज मुकुंद नरवणे के शुरुआती बयान से आप इसे समझ भी सकते हैं।
आर्मी चीफ नरवणे ने कहा था कि, 'सीमा पर कोई विवाद नहीं है। न ही वहां पहले इस तरह की कोई समस्या रही है। हो सकता है कि उन्होंने (नेपाल) किसी और के इशारे पर यह मुद्दा उठाया हो। इसकी संभावना बहुत ज्यादा है।'
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के शिक्षाविद और मीडिया भी विश्लेषण किए बिना ही सेना प्रमुख के दृष्टिकोण के सहारे अपनी बात रख रहे हैं। ऐसा करते वक्त वे यह महसूस नहीं करते कि नेपाल और भारत निकटतम पड़ोसी हैं और दोनों देश खास संबंधों से जुड़े हुए हैं।
नेपाल और भारत के आपस में कुछ अनोखे प्रावधान हैं, जिन्होंने संबंधों को 'विशेष' बनाया है। सीमा प्रबंधन की खुली-खुली प्रकृति, निवास, संपत्ति का मालिकाना हक, व्यापार-व्यवसाय में भागीदारी, आने-जाने और इस तरह की कई अन्य चीजों में दोनों देशों के नागरिकों के लिए समान अधिकार हैं। 1950 को हुई शांति और मित्रता संधि के आर्टिकल-7 के तहत दोनों देश एक-दूसरे को ये विशेषाधिकार देते हैं।
अगर हम इतिहास में जाएं, तो यह नेपाल और भारत ही हैं जो अभी भी बॉर्डर प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। दोनों देशों के दर्जनों इलाकों पर अपने दावे और प्रतिवाद हैं। नेपाल-भारत सीमा मुद्दे पर भारत की ओर से तो शायद ही कभी आवाज आई हो, लेकिन नेपाल जो 1990 से पहले इस मुद्दे को अनौपचारिक रूप से उठाता था, अब उसने इस एजेंडे को औपचारिक रूप से टेबल पर लाना शुरू कर दिया है।
1997 में भारतीय प्रधानमंत्री आईके गुजराल की नेपाल यात्रा पर आधिकारिक रूप से सीमा विवाद के मुद्दे पर चर्चा की गई थी। विदेश मंत्री जसवंत सिंह जब 1999 में काठमांडू आए, तब फिर से इस पर चर्चा हुई। बाद में इसी मुद्दे को दोनों देशों के उच्च स्तरीय संवाद जैसे कई मौकों पर बातचीत की सूची में रखा गया। कई महत्वपूर्ण दस्तावेजों में इसका उल्लेख भी है।
सबसे पहले यह मुद्दा 23 मार्च 2002 को भारत-नेपाल संयुक्त बयान के 27वें पॉइंट में कवर किया गया। यह संयुक्त बयान नेपाल के प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा की भारत की आधिकारिक यात्रा के बाद जारी किया गया था।
इस दस्तावेज में दोनों प्रधानमंत्रियों ने भारत और नेपाल के बीच वैज्ञानिक तरीकों से अंतरराष्ट्रीय सीमा को सीमांकित करने को बेहद जरूरी बताया था। इसके साथ ही जॉइंट टेक्निकल लेवल बॉर्डर कमिटी को यह काम 2003 तक पूरा करने का निर्देश दिया था। यह संयुक्त बयान ही था, जिसमें कालापानी क्षेत्र का उल्लेख करते हुए कहा गया था कि "इस इलाके को लेकर दोनों पक्षों की धारणाएं अलग-अलग हैं।"
इसी तरह, 24 से 26 नवंबर 2008 में जब भारत के विदेश मंत्री प्रणब मुखर्जी नेपाल दौरे पर थे, तब जारी हुए संयुक्त बयान के 13वें पॉइंट में लिखा गया था कि, “दोनों मंत्रियों ने नोट किया है कि जॉइंट टेक्निकल कमिटी ने भारत-नेपाल सीमा की 98% वैज्ञानिक स्ट्रिप मैपिंग पूरी कर ली है और आगे कुछ इलाकों में सहमति के साथ मैपिंग पर हस्ताक्षर के लिए आवश्यक कदम उठाए जाएंगे।" इसमें सीमा से संबंधित बाकी मुद्दों को जल्दी से सुलझाने के लिए संबंधित अधिकारियों को निर्देश भी दिए गए थे।
इसके अलावा 4 अगस्त, 2014 को भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नेपाल की आधिकारिक यात्रा के बाद जारी संयुक्त बयान के 12वें पॉइंट में लिखा गया था कि "दोनों प्रधानमंत्रियों ने नेपाल-भारत के लंबित पड़े सीमा मुद्दों को जल्द सुलझाने की जरूरत बताई है।”
इससे पहले सीमा विवाद के मुद्दे को दोनों देशों के बीच बने एक विदेश मंत्री-स्तरीय संयुक्त आयोग को सौंप दिया गया था। यह संयुक्त आयोग 1987 में दोनों देशों के सभी द्विपक्षीय मामलों की समीक्षा करने के लिए बनाया गया था।
2014 में पीएम मोदी की नेपाल यात्रा से पहले ही इस आयोग ने विदेश सचिवों को इस मद्दे पर काम करने के निर्देश दिए थे। इसलिए इस संयुक्त बयान में लिखा गया था कि दोनों प्रधानमंत्री लंबित पड़े सीमा विवाद (जिनमें कालापानी और सुस्ता शामिल हैं) को सुलझाने के लिए संयुक्त आयोग द्वारा विदेश सचिवों को निर्देशित करने का स्वागत करते हैं।
भारतीय पक्ष ने सीमा के लगभग 98% सहमत हो चुके हिस्से पर जल्द हस्ताक्षर करने का जोर दिया। नेपाली पक्ष ने सभी बाकी सीमा मुद्दों को भी हल करने की इच्छा व्यक्त की। अब क्योंकि ये सभी दस्तावेज विदेश मंत्रालय के संग्रह में हैं, इसलिए भारतीय शिक्षाविद और बुद्धिजीवी अपने सेना प्रमुख को ऐसी विवादास्पद टिप्पणी करने से पहले उन पत्रों को पढ़ने का सुझाव दे सकते थे।
यहां एक और सवाल यह है कि इस मुद्दे पर नेपाल के पीछे चीन था या नहीं? कुछ मौकों और घटनाओं से पता चलता है कि नेपाल से जुड़े मुद्दों को निपटाने के लिए भारत और चीन एक दूसरे की सहमति लेते हैं। ताजा विवाद में भी यही हुआ है।
नेपाल 29 अप्रैल 1954 को तिब्बत पर हुए भारत-चीन समझौते से अच्छी तरह से वाकिफ है, जहां पहली बार लिपुलेख को भारतीय तीर्थयात्रियों को इजाजत देने वाली छह बॉर्डर में शामिल किया गया था।
8 मई 2020 को भारतीय रक्षामंत्री ने जिस सड़क का उद्घाटन किया, वह 2015 में मोदी की चीन यात्रा के दौरान लिपुलेख के माध्यम से एक व्यापार मार्ग का विस्तार करने के लिए भारत और चीन समझौते का हिस्सा थी। जब नेपाल को इसकी जानकारी मिली तो उस समय के प्रधानमंत्री सुशील कोइराला ने भारत और चीन दोनों को डिप्लोमेटिक नोट भेजकर विरोध दर्ज किया था।
इतिहास में नेपाल की सीमा को कई संधियों और समझौतों के जरिए रेखांकित किया गया है। 1816 की सुगौली संधि, ईस्ट-इंडिया कंपनी और नेपाल के बीच 1860 के दशक का समझौता जिसमें पश्चिमी नेपाल की समतल भूमि का कुछ हिस्सा वापस करने की बात हुई थी और दांग (दुदुवा) के एक छोटे से इलाके पर 1875 का एक समझौता भी इनमें शामिल है।
दस्तावेजों में कहा गया है कि 1816 की संधि के ठीक बाद ही लिम्पियाधुरा क्षेत्र पर विवाद शुरू हो गया था। तब 1817 में चौतरिया बोम शाह ने कहा था कि यह इलाका नेपाल का है। ईस्ट-इंडिया कंपनी के कार्यवाहक मुख्य सचिव जे. एडम ने काठमांडू में अपने प्रतिनिधि एडवर्ड गार्डनर को लिखे एक लेख में बोम शाह द्वारा किए गए दावे को स्वीकार भी किया था। बाद में यही ईस्ट इंडिया कंपनी एक नया नक्शा लेकर आई, जिसमें टिंचर नदी को लिम्पियाधुरा की बजाय लिपुलेख से बहना बताया गया।
दिलचस्प बात यह भी थी कि एक ही समय में एक ओर ईस्ट-इंडिया कंपनी उपजाऊ भूमि का एक बड़ा हिस्सा नेपाल को वापस कर रही थी, ताकि लखनऊ के विरोध प्रदर्शनों को दबाने में नेपाल का समर्थन मिल सके। वहीं दूसरी ओर यह नेपाल के सीमावर्ती बिंदु को अपने नक्शे में कुटी यांगती की उत्तर-पश्चिम धारा को लिम्पियाधुरा की बजाय लिपुलेख में दर्शा रही थी, जिससे कि लिपुलेख ही टिंचर नदी का उद्गम बतलाया जा सके। हालांकि, अंग्रेजों ने ऐसा क्यों किया, इसका कारण किसी भी दस्तावेजों में सामने नहीं आया।
उपलब्ध दस्तावेज बताते हैं कि अंग्रेजों ने संशोधित नक्शे के जरिए जो इलाका नेपाल से छिना था, वह ब्रिटिश भारत के पूर्ण नियंत्रण में नहीं था। इसीलिए, नेपाल के 1959 के संसदीय चुनाव में लिम्पियाधुरा क्षेत्र के निवासी भाग ले रहे थे और 1961 में नेपाली जनगणना में यहां के लोगों को शामिल भी किया गया था। हालांकि, पिछले कुछ सालों में यह इलाका नेपाल से छूटता गया।
आजादी के बाद भारत ने टिंचर नदी से पंखा गाद तक की रेखा को बदल दिया। इस तरह 1970 के दशक में नेपाल को भारत की सीमा को कालापानी से नीचे दिखाते हुए द्विपक्षीय मंचों पर इस मुद्दे को सामने रखना पड़ा।
वास्तव में, सीमा विवाद के लंबित पड़े मुद्दों ने नेपाल-भारत संबंधों को जटिल कर दिया है। दोनों देशों की सीमा से जुड़ी स्टडी में मैं भी शामिल रहा हूं, ऐसी ही एक स्टडी ने दोनों ही सरकारों को यह तथ्य महसूस करने का सुझाव दिया था कि नेपाल में भारत विरोधी बयानबाजी सहित अधिकांश समस्याएं सीमा विवाद का परिणाम हैं। सीमा विवाद अगर सुलझ जाता है तो बाकी मुद्दे अपने आप ही सुलझ जाएंगे।
नेपाल यह अच्छी तरह जानता है कि सीमा पर दावों और प्रतिवादों को सुलझाने एक ही तरीका है- कुछ लें और कुछ दें। लेकिन, भारतीय नौकरशाहों ने इस विवाद पर नई दिल्ली को यह कहते हुए अवगत कराया है कि कालापानी सहित सीमा मुद्दा एक गंभीर द्विपक्षीय मुद्दा नहीं है, बल्कि यह नेपाल में राजनीतिक फायदे उठाने का एक जरिया है।
भारत के लिए अब पिछली गलतियों से सीखने और उच्च स्तरीय राजनीतिक बातचीत के जरिए सीमा विवाद को सुलझाने का सबसे अच्छा समय है। एक अच्छे पड़ोसी को दोष देने के बजाय, भारत जल्द बातचीत की व्यवस्था के जरिए इसे सुलझाए, ताकि स्थिति जल्द सामान्य हो सके।"
(उद्धब प्याकुरेल ने जेएनयू से पीएचडी की और काठमांडू यूनिवर्सिटी में पॉलिटिकल सोश्योलॉजी के प्रोफेसर हैं।)