लेंस बदल देने से चांद नहीं बदल जाता, WHO ने 30 जनवरी को जारी की थी सबसे बड़ी चेतावनी

Posted By: Himmat Jaithwar
5/3/2020

- रवीश कुमार

पैनडेमिक. यह एक ऐसा शब्द है जिससे कोविड-19 के प्रसार को बयां किया जाने लगा है. हिन्दी में इसे वैश्विक महामारी कहते हैं. इस शब्द की खासियत यह रही है कि यह सबसे बड़ी चेतावनी की निशानी बन गया. हम सभी के दिमाग़ में यह बात बैठ गई कि विश्व स्वास्थ्य संगठन WHO ने 11 मार्च को पैनडेमिक की घोषणा की और यही सबसे बड़ा अलर्ट था, अलार्म था. चेतावनी की सबसे बड़ी घंटी थी. वैश्विक महामारी के ख़िलाफ़ युद्ध का बिगुल था. यह सही नहीं है.

30 जनवरी को WHO ने पब्लिक हेल्थ इमरजेंसी ऑफ इंटरनेशनल कंसर्न की घंटी बजाई थी. वही सबसे अंतिम और सबसे ऊंचा अलार्म था. WHO की निमावलियों में यही सबसे बड़ा और अंतिम अलार्म था. 70 साल के इतिहास में सिर्फ 6 बार पब्लिक हेल्थ इमरजेंसी ऑफ इंटरनेशनल कंसर्न की घोषणा हुई है. 30 जनवरी तक चीन के बाहर दुनिया के 18 देशों मं 98 मरीज़ ही हुए थे और एक भी मौत नहीं हुई थी. उस दिन भारत में केरल में एक केस हुआ था जो वुहान से ही आया था.

यह तारीख़ इसलिए महत्वपूर्ण है ताकि आप समझ सकें कि 30 जनवरी को वैश्विक महामारी का सबसे ऊंचा अलार्म बजाने के बाद भी सरकारें सोती नहीं. सरकारें अक्सर 11 मार्च के वैश्विक महामारी की घोषणा को आधार बताती हैं. वो इसलिए कि अगर आप 30 जनवरी की तारीख से देखेंगे कि उनके लापरवाही आपराधिक लगने लगेगी.

आप प्रश्न करने लगेंगे कि 30 जनवरी से 13 मार्च तक भारत की सरकार क्या कर रही थी? भारत सरकार ने किन तथ्यों के आधार पर 13 मार्च को कहा था कि वैश्विक महामारी की स्थिति नहीं है? आप यह भी प्रश्न करने लगेंगे कि जब 30 जनवरी को WHO ने ख़तरे की सबसे तेज़ घंटी बजा दी थी तो फिर फरवरी का महीना लापरवाही में क्यों बीता? हम जिस आर्थिक तबाही की तरफ बढ़ रहे हैं, आज न कल सभी को 30 जनवरी की तारीख़ों पर लौटना ही पड़ेगा. मीडिया भले ही तारीख़ की समझ बदल दे मगर आर्थिक तबाही की बैचैनियां गोदी मीडिया के झूठ से नहीं दबेंगी.

WHO यानी विश्व स्वास्थ्य संगठन पर हमले इसलिए भी होते हैं ताकि जनता को लगे सारी ग़लती WHO की है, सरकारों की नहीं. ध्यान रहे कि 11 मार्च के बाद भी कई सरकारें जागी हैं और उन्होंने ऐसे कदम उठाए हैं जिससे वे संक्रमण के प्रकोप को नियंत्रित और आर्थिक नुकसान को कम करने में सफ़ल रहे हैं. मगर कई सरकारें अपनी लापरवाहियों, अहंकार और तमाशे के दम पर तैयारियों का झांसा देती रहीं. वो तो सफल रही मगर जनता लंबे समय के लिए आर्थिक दुर्दिन में चली गई.

हाल के इतिहास में 11 जून 2009 को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने दुनिया में नोवल इंफ्लुएंज़ा ए वायरस के आ धमकने का एलान किया था और वैश्विक महामारी कहा था. WHO ने कहा था कि H1N1 वायरस पहले कभी मानव शरीर में नहीं देखा गया था. यह वायरस बिल्कुल नया है. बहुत आसानी से एक आदमी से दूसरे आदमी में फैलता है. उस वक्त 74 देशों में H1N1 के 30,000 केस सामने आए थे. WHO ने कहा था कि उनके पास जो साक्ष्य हैं, एक्सपर्ट की राय है उसके आधार पर इमरजेंसी कमेटी ने बताया है कि इस बीमारी के दुनिया भर में फैलने की आशंका है. यह वैश्विक महामारी है. 2009 में H1N1 की शुरूआत में ही WHO ने दुनिया को अलर्ट कर दिया था.

विश्व स्वास्थ्य संगठन के लिए भी कोरोना नया था. जिस तरह H1N1 था लेकिन वो एक इंफ्लुएंज़ा था और WHO ने अभी तक इंफ्लुएंज़ा को लेकर ही वैश्विक महामारी की घोषणा की थी या पैनडेमिक शब्द का इस्तमाल हुआ था. 30 जनवरी को पहली बार कोविड-19 के लिए पैनडेमिक की घोषणा हुई थी.

WHO ने कभी तालाबंदी का सुझाव नहीं दिया था. तालाबंदी की नकल सबने चीन से शुरू कर दी. चीन ने वुहान को पूरी तरह बंद कर दिया था. इसका मतलब यह है कि महामारी से लड़ने के लिए देश क्या करेंगे यह उनके अपने विवेक पर निर्भर करता है.

11 मार्च को जब वैश्विक महामारी का नाम दिया गया था तब उस दिन WHO की तरफ़ से प्रेस रिलीज़ जारी की गई थी. उसमें सात सुझाव लिखे थे. पहला कि तथ्यों के आधार पर तैयारी और फैसला हो. अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और यात्राओं में दखल देने की ज़रूरत नहीं है. वैक्सीन की खोज की गति तेज़ हो. कमज़ोर स्वास्थ्य सेवाओं वाले देशों की मदद की जाए. अफवाहों और ग़लत सूचनाओं को रोका जाए. अपनी तैयारियों की समीक्षा करते रहें. डेटा और जानकारी साझा करें. यह विज्ञान का समय है, तथ्यों का समय है.

2005 में एक इंटरनेशनल हेल्थ रेगुलेशन बना था. 194 सदस्य देशों सहित 196 देशों ने दस्तखत किए थे. तय हुआ था कि महामारी के समय सब मिलकर काम करेंगे. इसमें यह भी लिखा है कि बंदरगाहों, हवाई अड्डों और भूतल परिवहन की गतिविधियों को लेकर कुछ कदम उठाए जा सकते हैं ताकि दूसरे देश में महामारी न फैले. लेकिन ट्रैफिक और ट्रेड यानी यातायात और कारोबार में कम से कम रूकावट आए इसलिए अनावश्यक तरीके से व्यापार और पर्यटन को न रोका जाए.

30 जनवरी को जब विश्व स्वास्थ्य संगठन ने पब्लिक हेल्थ इमरजेंसी की चेतावनी जारी की थी तब भी कहा था कि इस वक्त तक जो जानकारियां उपलब्ध हैं उनके आधार पर अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और यात्राओं पर रोक नहीं लगनी चाहिए.

बेशक विश्व स्वास्थ्य संगठन को लेकर अलग अलग तरह से आलोचना होती रहती है. इस वक्त भी होती है. लेकिन असली कसूरवार जो है वो इन आलोचनाओं से बचने का प्रयास करता है. विश्व स्वास्थ्य संगठन एक सलाह देने वाली संस्था है. अगर अनिवार्य संस्था होती तो दिन भर स्वास्थ्य मंत्रालय WHO से बैठकें करता रहता. बहरहाल आलोचनाओं को लेकर अलग से लेख लिखे जा सकते हैं, लिखे जा भी रहे हैं, इस लेख का मतलब सीमित है. इतना बताना कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 30 जनवरी को दुनिया को अपनी सबसे ऊंची चेतावनी दे दी थी. ताईवान, न्यूज़ीलैंड, दक्षिण कोरिया, जर्मनी जैसे देशों ने उस चेतावनी को ठीक से सुना और आज वो उस चेतावनी को न सुनने वाल देशों की तुलना में ज़्यादा निश्चिंत हैं. भारत जैसा दृश्य किसी देश में नहीं हुआ कि लाखों लोग सड़कों पर भूखे प्यासे भटक रहे हैं और सरकार की वाहवाही हो रही है.

और अंत में एक नोट-
3 मई को भारतीय सेना के तीनों अंग जब कोरोना से लड़ने वाले डाक्टरों हेल्थ स्टाफ, पुलिसकर्मियों को सलामी देंगे तो किसे अच्छा नहीं लगेगा. सेना का कोई भी प्रदर्शन भव्य ही होता है. सेना सभी का शुक्रिया अदा करेगी. आसमान में विमान उड़ेंगे और सागर में अलग अलग पोत मिलकर सम्मान में आकार बनाएंगे. अद्भुत दृश्य तो होगा ही. लेकिन क्या हम सेना से वाकई आंखें मिलाने लायक तैयारी कर चुके हैं? जिस स्तर की तैयारी सेना की होती है क्या कोरोना से लड़ने की तैयारी से हम उसे मैच कर सकते हैं?

तालाबंदी तीसरी बार बढ़ाई गई है. इसका मतलब है कि इससे सफलता नहीं मिली है. पहले की असफलताओं पर पर्दा डालने के लिए तालाबंदी की गई ताकि जनता कड़े निर्णय की भव्यता से चकित हो जाए. हो भी गई. तालाबंदी भले फेल रही हो लेकिन इस मामले में तालाबंदी सफल हो गई जो उसका मकसद नहीं था. सेना के समक्ष जाने से पहले क्या हम आश्वस्त हैं कि तालाबंदी के दौर में हमने स्वास्थ्य तैयारियों को दुरुस्त कर लिया है?

कोरोना से संक्रमित मरीज़ों की संख्या बढ़ती जा रही है. भले महामारी 100 किमी प्रति घंटे की रफ्तार से नहीं फैल रही लेकिन उसकी रफ्तार 60 किमी प्रति घंटे की तो है ही. भारत ने तालाबंदी के इतने लंबे दौर में एक भी दिन ऐसा हासिल नहीं किया है जब कोई केस नहीं आया हो. भारत ने सैंपल टेस्ट की संख्या ज़रूर बढ़ाई हैं मगर उसके बढ़ने की रफ्तार धीमी है. अभी भी हम पर्याप्त टेस्ट नहीं कर रहे हैं. हर बार नीति बदल कर टेस्ट न करने की ज़रूरत को सही ठहराया जा रहा है. एक बात याद रखिएगा. कैमरे का लेंस बदल देने से चांद नहीं बदल जाता है.

तालाबंदी के दौर में लाखों लोग अपनी नौकरी गंवा चुके हैं, सैलरी गंवा चुके हैं. उनके पास टैक्स देने या ईएमआई देने के पैसे नहीं हैं. सरकारी कर्मचारियों को भी कटौती का सामना करना पड़ रहा है. ज़ाहिर है हमारी आर्थिक स्थिति बुरी है. क्या आईटी सेल के डर से कोई यह पूछने का साहस कर पाएग कि जब एक एक पैसा काटा जा रहा है तो सेना के त्री-लोकीय प्रदर्शन पर कितना पैसा ख़र्च होगा? क्या वो खर्चा जायज़ है?

क्या अच्छा नहीं होता कि हम अपनी तैयारियों से दुनिया को हतप्रभ कर देते. न्यूज़ीलैंड और ताईवान की तरह पहले चरण में कोरोना पर काबू पा लेते और फिर सेना के सामने जा कर उसे सलामी देते. सेना से सलामी लेते. झूठ पर पर्दा डालकर सेना के बलिदान और शौर्य के सामने जब सलामी के लिए हाथ उठे तो याद रखिएगा एक सैनिक सिर्फ सत्य के जान देता है. वो सत्य की रक्षा करता है. जय हिन्द.



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