प्रियंका के गांव में फोन कनेक्टिविटी भी नहीं, पिता को 4 दिन बाद मिली खबर, फिरोज ने कॉन्स्टेबल की ड्‌यूटी के साथ की पढ़ाई

Posted By: Himmat Jaithwar
8/16/2020

उत्तराखंड के चमोली जिले में आने वाला छोटा सा गांव है रामपुर। यहां 80-90 परिवार रहते हैं। गांव में न पक्की सड़कें हैं और न ही प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र। मोबाइल तो दूर की बात, यहां लैंडलाइन फोन तक नहीं है। पांचवी कक्षा के बाद बच्चों को दूसरे गांव में पढ़ने जाना पड़ता है, क्योंकि रामपुर में पांचवी तक ही स्कूल है। यदि किसी की तबियत खराब हो जाए तो करीब 100 किमी दूर देवाल आना पड़ता है, तब इलाज मिल पाता है।

गांव में अपने खेत में परिवार के साथ प्रियंका दीवान। उनके पिता किसान हैं।

इसी गांव की हैं प्रियंका दीवान, जिन्होंने सिविल सर्विसेज एग्जाम-2019 में 257वीं रैंक पाई है। प्रियंका के परिवार को यह खुशखबरी रिजल्ट आने के 4 दिन बाद मिल सकी। उनके पास ऐसा कोई जरिया नहीं था, जिससे वे तुरंत अपने माता-पिता को यह बता सकें कि मैं आईएएस में सिलेक्ट हो गई हूं। 4 दिन बाद जब उनके पिता ने गांव से थोड़ा दूर आकर कहीं से कॉल किया तब उन्हें पता चला कि बिटिया ने इतनी बड़ी परीक्षा पास कर ली।

जब बेटी ने खुशखबरी दी तो मां-बाप ने ऐसी खुशी मनाई।

जब हमारी प्रियंका से बात हो रही थी तो वह अपनी दो बहन और एक भाई के साथ गाड़ी से देहरादून से चमोली के लिए निकली थीं। बोलीं, पांचवी तक मैं रामपुर में ही पढ़ी। फिर हर रोज 3 किमी दूर टोरटी गांव जाया करती थी क्योंकि वहां छठवीं से दसवीं तक का स्कूल था। दसवीं के बाद गोपेश्वर आ गए। यह थोड़ी बड़ी जगह है, जहां स्कूल-कॉलेज सब हैं। फिर यहां से ग्रेजुएशन किया।

जब फर्स्ट ईयर में थी, तब कॉलेज में एक फंक्शन में डीएम आए थे। उन्होंने हम लोगों को कलेक्टर की पोस्ट की अहमियत बताई और कहा कि आप भी प्रयास करें तो सक्सेस पा सकते हैं।

प्रियंका के गांव में उनकी सफलता का ऐसे जश्न मनाया गया। पूरे गांव में प्रियंका की सफलता की चर्चा है।

तब पहली बार इस एग्जाम के बारे में पता चला, यह 2012 का किस्सा है। मेरे मामाजी देहरादून के सेशन कोर्ट में जज हैं। जब उनसे इस एग्जाम के बारे में पूछा तो उन्होंने बहुत गाइड किया। तब इसके बारे में थोड़ा बहुत पता चला, लेकिन तब भी मन पूरी तरह से पढ़ाई के लिए तैयार नहीं था। 2012 से ही मैं बच्चों को ट्यूशन दिया करती थी। प्राइवेट स्कूल में भी पढ़ाती थी।

2015 में देहरादून आ गई, क्योंकि एलएलबी करना था। 2017 में लगा कि आखिर कब तक यूं प्राइवेट नौकरी करते रहेंगे। मैं अपने आसपास की चीजों को भी बदलना चाहती थी। गांव के हालात देखकर बहुत मन होता था कि हम कुछ ऐसा बनें, जिससे इन हालात को बदल सकें। फिर सोचा कि एक बार तो एग्जाम देना ही चाहिए।

अपने पिता के साथ प्रियंका। उनके गांव में लैंडलाइन फोन भी अभी तक नहीं पहुंच सका।

इसके बाद मैंने तैयारी शुरू कर दी। लेकिन कोई कोचिंग ज्वॉइन नहीं की। इंटरनेट वाला फोन भी नहीं था। एक फ्रेंड के पास फोन था। उसके पास से पूरा सिलेबस नोट करके ले आई थी। एक लायब्रेरी में मेम्बरशिप ले ली थी। वहां से किताबें मिल जाती थीं, इसलिए सिर्फ जरूरी किताबें ही खरीदीं। रोजाना पढ़ने के घंटे भी तय नहीं किए। हर रात को अगले दिन का प्लान बनाती थी, कि कल क्या काम हैं और उस हिसाब से पढ़ाई के लिए कैसे टाइम मैनेज करना है। इस तरह से करीब ढाई साल पढ़ाई की। लायब्रेरी से किताबें पढ़कर खुद के नोट्स बनाया करती थी। उसी से पढ़ती थी। पहली ही कोशिश में एग्जाम क्लियर हो गया। लेकिन मेरा सपना पूरा नहीं हुआ। मुझे अब जो पिछले गांव हैं, उनकी तस्वीर बदलना है। अभी तो पहली सीढ़ी है।

चार दिन बाद जब पापा से बात हुई तो उन्होंने क्या कहा? ये पूछने पर प्रियंका बोलीं, उन्होंने कहा कि , 'तुमने मुझे अमर बना दिया'। इसके बाद पापा और मैं दोनों रोने लगे। मुझे मेरे जिले से इन्विटेशन मिला है। वहां स्वागत समारोह है। पहले नानी के घर जाऊंगी। फिर अपने घर जाऊंगी।

सफलता की दूसरी कहानी :

11 लाख की नौकरी छोड़ दी, घरवालों ने कहा था ऐसे नौकरी कौन छोड़कर आता है

बिहार के समस्तीपुर से तीन किमी दूर धुरलक नाम का गांव आता है। यहां रहने वाले राहुल मिश्रा ने 2017 में 11 लाख रुपए पैकेज वाली नौकरी छोड़ दी थी। राहुल ने आईआईटी, बीएचयू से पढ़ाई की थी और 2016 में उनका कैंपस प्लेसमेंट हो गया था। वो नौकरी करने पुणे चले गए थे लेकिन 6 महीने बाद ही घर आ गए। कहते हैं, 'हमारे क्षेत्र में नौकरी बड़ी मुश्किल से मिलती है। इसलिए जब मैं जॉब छोड़कर आया तो घर में सबका मिलाजुला रिएक्शन था'। पिताजी जरूर मेरे साथ थे, लेकिन बाकी लोग कह रहे थे कि क्यों छोड़ दी। कहां मिलती है आसानी से नौकरी। हालांकि राहुल तय कर चुके थे कि उन्हें सिविल सर्विसेज में जाना है।

अपने परिवार के साथ राहुल मिश्रा। कहते हैं, जब पिता को बताया तो दोनों एक-दूसरे को देखकर रो दिए थे।

राहुल ने घर आने के बाद सबसे पहले सोशल मीडिया से दूरी बनाई। वॉट्सऐप चलाना बंद कर दिया। सोशल मीडिया के सारे अकाउंट्स का इस्तेमाल करना छोड़ दिया। घर से कम ही निकलते थे। अधिकतर समय पढ़ाई को ही दे रहे थे। कोई कोचिंग ज्वॉइन नहीं की थी। टेस्ट सीरीज के लिए जरूर ऑनलाइन क्लासेज लीं थीं। एग्जाम की स्ट्रेटजी कैसे बनाई? ये पूछने पर बोले, पुराने सालों के पेपर देखकर मुझे पता चला कि इस एग्जाम की डिमांड क्या है। कुछ सीनियर्स थे जो यह एग्जाम क्रैक कर चुके थे, उनसे पूछा करता था कि उन्होंने ये कैसे किया। इसके अलावा उन दोस्तों से बात करता था जो आईएएस की तैयारी कर रहे थे। बाकी सब सेल्फ स्टेडी थी।

राहुल अपने गांव के पहले ऐसे व्यक्ति हैं, जिन्होंने सिविल सेवा परीक्षा में कामयाबी हासिल की है।

अचानक दोस्तों को छोड़ना कितना कठिन था ? इस सवाल पर राहुल कहते हैं, शुरू में बहुत कठिन था। लेकिन धीरे-धीरे जब पढ़ाई में मन लगने लगा तो सब भूलते गया। बोले, मैंने अपने गांव के हालात देखे हैं। इसलिए मन में कुछ करने का ठाना था। बोले, रिजल्ट वाले दिन पिताजी स्कूल के लिए निकले ही थे। बोल रहे थे कि चौक पर रुककर गाड़ी में हवा डलवाएंगे फिर जाएंगे। उनके निकलते ही रिजल्ट आ गया। मैंने देखा लिस्ट में मेरा नाम भी है, तो बिना किसी से बात किए दौड़ लगा दी। डेढ़ किमी दौड़कर चौक पर पहुंच गया और पिताजी से कहा, हमारा सिलेक्शन हो गया। इतने में वो और मैं दोनों रोने लगे। हमें देख रहे लोग समझ ही नहीं पा रहे थे कि सीन क्या चल रहा है।

फिर पापा घर आ गए। उन्होंने उस दिन छुट्टी ले ली। दिनभर फोन आए। उन दोस्तों के भी कॉल आए, जिनके बारे में मुझे लगा था कि अब कभी कॉल नहीं करेंगे। ऐसे रिश्तेदारों के भी फोन आए, जो थोड़ा दूर चले गए थे। एकदम से सब करीब आ गए। राहुल कहते हैं, इस एग्जाम की यही खूबी है कि एक बार आप सफल हो जाएं तो सबके रिएक्शन बड़ी जल्दी बदल जाते हैं। राहुल की आईएएस में 202 रैंक आई है। पूरे गांव में उनकी सफलता का जश्न मन रहा है।

सफलता की तीसरी कहानी :

5 बार एग्जाम दी, क्रैक नहीं कर पाए लेकिन पढ़ना बंद नहीं किया

'मैं 2014 से सिविल सर्विसेज एग्जाम दे रहा था, लेकिन सिलेक्शन नहीं हो पा रहा था। 2016, 2017 और 2018 में प्रारंभिक परीक्षा में पास हो गया लेकिन मुख्य परीक्षा में रुक गया। 2019 मेरे लिए आखिरी मौका था, और इस बार मेरा सिलेक्शन हो गया'। यह कहना है फिरोज आलम का, जो अभी तक दिल्ली पुलिस में कॉन्टेबल थे। फिरोज ने 12वीं के बाद ही दिल्ली पुलिस को ज्वॉइन कर लिया था। जब पुलिस की परीक्षा पास की, तब लक्ष्य भी यही था कि या तो पुलिस में जाऊंगा या फिर आर्मी में जाऊंगा।

अपने सीनियर्स को देखकर फिरोज के मन में ख्याल आया था कि वो भी कुछ बड़ा कर सकते हैं।

तीन साल पुलिस में बिताने के बाद सीनियर अफसरों को देखा। जफर कहते हैं, सीनियर्स की लीडरशिप देखकर मैं बहुत इम्प्रेस हुआ। मन में यह सोचा कि जब ये लोग कर सकते हैं तो मैं क्यों नहीं कर सकता। इसी के बाद मैंने तैयारी शुरू कर दी। मुझे लगातार असफलताएं मिलीं लेकिन मैंने तैयारी करना बंद नहीं किया। ड्यूटी अवर्स के हिसाब से पढ़ाई करता था। जब शहर में बड़े इवेंट्स होते थे, तब ड्यूटी अवर्स बढ़ जाते थे तो पढ़ाई अच्छे से नहीं हो पाती थी। हालांकि मैंने कभी भी पढ़ना बंद नहीं किया। और आखिरकार सफलता मिल गई।

फिरोज अपने परिवार से पहले ऐसे शख्स हैं, जिन्होंने सिविल सर्विसेज एग्जाम को क्रैक किया है। कहते हैं पिता पहले स्क्रैप का काम करते थे। बाद में भैया बीएसएफ में चले गए तो परिवार की स्थितियां थोड़ी ठीक हुईं। फिर मैं भी पुलिस में लग गया। फिरोज की 645वीं रैंक आई है। सीएसई-2019 में जो 829 कैंडीडेट्स सफल हुए हैं, उनमें से 42 मुस्लिम कम्युनिटी से हैं। इन्हीं में से एक फिरोज भी हैं।

फिरोज का मैरिट लिस्ट में नाम आने के बाद से ही यूजर्स उन्हें वेबसीरीज पाताललोक का इमरान अंसारी बता रहे हैं। दरअसल इस वेबसीरीज में इमरान अंसारी नाम का जो किरदार होता है, वो भी कॉन्स्टेबल होता है और आईएएस की तैयारी कर रहा होता है। फिरोज कहते हैं, सफलता का एक ही फॉर्मूला है कि कभी हार मत मानो। हो सकता है सक्सेस आपके आखिरी ट्राय का ही इंतजार कर रही हो। जैसा मेरे साथ हुआ।



Log In Your Account